पाकिस्तान का अनाज संकट: जब ऊंटों के गले में लटगाई गई 'थैंक यू अमेरिका' की तख़्ती
5 फरवरी, 1953 की एक रिपोर्ट के अनुसार, खाद्य पदार्थों की कमी इस हद तक बढ़ गई थी कि कुछ क्षेत्रों में लोग पेड़ की जड़ों और घास को उबालकर अपना पेट भरने लगे थे.
उन दिनों, पाकिस्तान में गेहूं की प्रति मन (एक मन 40 किलो) की क़ीमत 13 रुपये 14 आने थी, लेकिन समस्या यह थी कि इस क़ीमत पर भी गेहूं मिलना मुश्किल था.
दैनिक 'ज़मींदार' ने 29 जनवरी, 1953 को लिखा था कि - कौड़ियों की क़ीमत पर मिलने वाली ये फसल इन दिनों 25 से 30 रुपये मन मिल रही है. वह भी केवल उन लोगों को जिनकी ऊंची पहुंच हैं.
यह एक ऐसा संकट था जिसने पाकिस्तान की जनता को दिन में तारे दिखा दिए थे, लेकिन सवाल यह था, कि यह संकट कैसे पैदा हुआ?
संकट पैदा क्यों हुआ?
5 फरवरी, 1953 को लाहौर चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री की एक आपात बैठक में इस स्थिति पर विचार किया गया.
स्थिति की विस्तृत समीक्षा के बाद, चैम्बर अधिकारी इस निष्कर्ष पर पहुंचे, कि इन समस्याओं का मूल कारण सरकार की ग़लत व्यापार नीति थी. और अधिकारियों ने न तो समस्याओं को समझा और न ही वो समस्या को हल करने में सक्षम हैं.
चैंबर के अधिकारियों द्वारा किए गए विश्लेषण का निष्कर्ष यह निकला कि पंजाब की अनाज मंडियों, जिन्हें पूर्व में अनाज का गढ़ माना जाता था अब वो खाली पड़ी थीं, क्योंकि अनाज के व्यापार पर सरकार के नियंत्रण ने कारोबार ख़त्म कर दिया था.
यह तो केवल एक अर्थशास्त्री ही बता सकता है कि यह विश्लेषण कितना सही था. लेकिन अनाज के लाने-ले जाने और कारोबार पर सरकारी नियंत्रण के क्या प्रभाव पड़े थे. इसका अंदाज़ा 3 फरवरी, 1953 को प्रकाशित एक ख़बर से होता है.
संकट कितना गंभीर था?
इस ख़बर में कहा गया था कि गेहूं की अनुपलब्धता के कारण लोग मक्का और बाजरा खाने के लिए मजबूर हो गए थे. जिसके नतीजे में देश की विभिन्न मंडियों से इन वस्तुओं की बिक्री में वृद्धि हो गई थी. ऐसी ख़बरें भी थीं कि कुछ स्थानों पर ये वस्तु भी मुश्किल से मिल रही थी.
इन ख़बरों के बाद, सरकार ने इन वस्तुओं के एक ज़िले से दूसरे ज़िले में ले जाने पर प्रतिबंध लगा दिया था. अख़बार ने लिखा कि सरकार के इस फ़ैसले के बाद अनाज मंडियों में कारोबार ख़त्म हो गया था. और इन जगहों पर दैनिक मज़दूरी करने वाले लाखों मज़दूर बेरोज़गार हो गए थे.
खाद्य पदार्थ के व्यवसाय में शामिल लोगों की बेरोज़गारी अपनी जगह लेकिन गेहूं सहित अन्य खाद्य पदार्थों की कमी के कारण जिस तरह की स्थिति पैदा हुई, उस समय के समाचार पत्रों के अध्ययन से इसकी बहुत ही परेशान करने वाली तस्वीरें उभर कर सामने आती हैं.
5 फरवरी, 1953 की एक रिपोर्ट के अनुसार, खाद्य पदार्थों की कमी इस हद तक बढ़ गई थी कि कुछ क्षेत्रों में लोग पेड़ की जड़ों और घास को उबालकर अपना पेट भरने लगे थे.
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उस समय के एक प्रमुख पत्रकार मोहम्मद सईद ने अपनी आत्मकथा 'आहंग बाज़गश्त' में लिखा है कि सरगोधा और लायलपुर (अब फ़ैसलाबाद) ज़िलों में इस तरह की घटनाएं सामने आई थीं और ऐसी ख़बरें लगातार आती रहीं जिससे खाद्य वस्तुओं की कमी का मुद्दा तेज़ी से सामने आया.
यह स्थिति शहरों से दूर कम विकसित ग्रामीण क्षेत्रों में भी थी लेकिन शहरी क्षेत्रों में अनाज की कमी बहुत अलग अंदाज़ में सामने आई थीं.
2 जनवरी, 1953 को प्रकाशित एक ख़बर के अनुसार, सरकार ने अनाज की कमी की स्थिति से निपटने के लिए 25 से अधिक लोगों को दावत में बुलाने पर प्रतिबंध लगा दिया था. और इसका उल्लंघन करने पर तीन साल की क़ैद, जुर्माना या एक ही समय में दोनों सज़ा देने की घोषणा कर दी थी.
सरकार ने क्या क़दम उठाए हैं?
इस तरह की ख़बरों से अनाज की कमी के प्रभावों का अंदाज़ा होता हैं. लेकिन इस स्थिति से निपटने के लिए जो क़दम उठाए गए उनसे पता चलता है कि व्यापक रणनीति अपनाने के बजाय, संबंधित अधिकारियों ने ज़ाहिरी और दिखावटी उपायों पर अधिक ध्यान दिया.
इस संबंध में जो तत्काल क़दम उठाया गया था उनमें एक ज़िले से दूसरे ज़िले में खाद्य पदार्थों की आवाजाही को रोकना था. जिसका आम तौर पर उल्लंघन होता था और इसमें शामिल लोगों को गिरफ़्तार करके सज़ाएं दी जाती थीं. इस प्रकार, अनाज की कमी के अलावा, सामान्य राजनीतिक स्थिरता भी बढ़ने लगी थी.
इस अवसर पर जनता में बेचैनी, धोखाधड़ी करने वालों और आपराधिक तत्वों से जुड़ा हुआ एक और पहलू भी सामने आया, जो हर संकट में लोगों की मजबूरियों और चिंताओं का फ़ायदा उठाने के लिए सक्रिय हो जाता है. इसलिए इस दौरान बड़े पैमाने पर ऐसी ख़बरें आईं कि नकली राशन कार्ड बनाने का कारोबार अपने चरम पर पहुंच गया था. नकली राशन कार्ड बनाने और बेचने वाले दो रुपये में राशन कार्ड बनाकर बेच रहे थे.
इन जालसाज़ों की गिरफ़्तारी की ख़बरें भी उन दिनों लगातार आ रही थीं. उस समय पुलिस की सक्रियता भी बहुत ही निचले स्तर पर दिखाई दी. इसका अंदाज़ा 15 जनवरी, 1953 को प्रकाशित होने वाली एक ख़बर से होता है.
ख़बर के अनुसार, लाहौर में एक व्यक्ति को केवल दस मन आटे की तस्करी करते हुए गिरफ्तार किया गया था. संकट के इस पूरे अरसे के दौरान, एक ज़िले से दूसरे ज़िले में अनाज की तस्करी करके ले जाने वालों की ख़बरें सुर्खियों में प्रकाशित हो रही थीं. लेकिन इसके बावजूद कभी ये ख़बर सामने नहीं आई कि इन पाबंदियों का उल्लंघन कितनी बड़ी मात्रा में हो रहा था और गिरफ़्तार होने वाले कौन लोग थे?
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इन ख़बरों के सामने आने से निश्चित रूप से इस बात का अंदाज़ा हो जाता है कि इस प्रतिबंधित व्यवसाय के पीछे कौन हैं लेकिन इस पूरी अवधि के दौरान ऐसी कोई रिपोर्ट सामने नहीं आ सकी.
'लोग रोटी पकाने के झंझट से आज़ाद हो जाएंगे'
नीति-निर्माण के स्तर पर इस चुनौती से किस अंदाज़ में निपटने की कोशिश की जा रही थी. इसका अनुमान 11 फरवरी 1953 को प्रकाशित केंद्रीय वित्त सचिव, सईद हसन के एक बयान से लगाया जा सकता है.
बयान में कहा गया था कि सरकार देश में बेकरी प्रणाली लागू करने पर विचार कर रही है जिसके तहत बेकरियों को विशेष राशन कार्ड जारी किए जाएंगे. जिसके माध्यम से वे गेहूं या आटा प्राप्त कर सकेंगे.
इन बेकरियो की ज़िम्मेदारी होगी कि लोगों को पकी हुई रोटी उपलब्ध कराएं.
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वित्त सचिव ने कहा था कि रोटी की गुणवत्ता को बरक़रार रखने के लिए सरकार इस व्यवस्था की लगातार जांच पड़ताल करती रहेगी.
उन्होंने दावा किया था कि इस तरह से पाकिस्तान, यूरोप और अमेरिका के बाद पहला देश बन जाएगा जहां लोग घर पर रोटी पकाने की परेशानी से आज़ाद हो जायेंगे.
इस घोषणा में सरकार कितनी गंभीर थी?
यह इस तथ्य से स्पष्ट हो जाता है कि ऐसी कोई योजना बनाई ही नहीं गई थी. पाकिस्तान में बनी बनाई रोटी की पहली योजना ज़ुल्फिकार अली भुट्टो के समय में अमल में आई थी.
वित्त सचिव का यह बयान इस संकट से निपटने के लिए सरकारी अधिकारियों के रवैये को दर्शाता है. इसके अलावा सरकार और उसके पदाधिकारियों के विभिन्न अवसरों पर जारी किए गए बयान भी इसी तरह के थे.
इसी तरह पंजाब के मुख्यमंत्री मियां मुमताज़ मोहम्मद ख़ान दौलताना की अध्यक्षता में 3 फरवरी को प्रांतीय कैबिनेट की एक बैठक हुई. अगले दिन प्रकाशित होने वाली एक ख़बर के अनुसार, बैठक में इस बात पर सहमति हुई कि गेहूं के संकट से निपटने के लिए उन्हीं तरीकों का इस्तेमाल किया जाएगा, जो द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान किये गए थे.
सरकार ने उन किसानों को पुरस्कृत करने के प्रस्ताव पर भी विचार किया, जो अगले वर्ष ज़्यादा गेहूं का उत्पादन करेंगे. ख़बर के मुताबिक, उस बैठक में शामिल होने वालों के अनुसार, इस संकट का कारण, पिछले साल बारिश कम होने की वजह से फसलों की पैदावार में होने वाली कमी थी.
मुख्यमंत्री ने लोगों से तहरीक-ए-पाकिस्तान की भावना से इस संकट का सामना करने की अपील की.
सरकार ने गेहूं की कमी को दूर करने के लिए और 15 करोड़ रुपये के गेहूं ख़रीदने का फैसला किया. इसके साथ ही यह भी फ़ैसला किया कि 100 रुपये प्रति माह से कम आय वाले परिवारों की सहूलत के लिए सस्ती दुकानें खोली जाएंगी. अगले दिन अख़बार ने लिखा कि संकट से निपटने के लिए सरकार किसी बड़े फ़ैसले तक पहुंचने में विफल रही है.
'ताक़तवर वर्ग हर संकट का फायदा उठाता है'
सत्तर के दशक में भी, खाद्य पदार्थों की कमी हुई थी. इससे निपटने के लिए, पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की सरकार ने राशन डिपो की व्यवस्था बनाई थी. जहां लोग लाइन में लग कर राशन कार्ड दिखाते और नियंत्रित दरों पर आटा और चीनी लेते थे.
मिर्ज़ा अब्दुल रहमान, फेडरेशन ऑफ़ पाकिस्तान चैंबर्स ऑफ कॉमर्स के चीफ़ कोऑर्डिनेटर का कहना है, कि यह एक अनुचित नीति थी.
मिर्ज़ा अब्दुल रहमान के अनुसार, इस नीति से, पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने अपनी पार्टी के लोगों का भला किया था और लोगों की समस्याओं में कोई ख़ास कमी नहीं आ सकी थी.
आटे और चीनी के अलावा, वनस्पति घी की कमी भी उसी समय में पैदा हुई तो भुट्टो ने इस मामले को भी इसी तरह से निपटाया.
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मिर्ज़ा अब्दुल रहमान का कहना है, कि हाल के वर्षों में विभिन्न सरकारों द्वारा अपने सहयोगियों और पसंदीदा राजनीतिक तत्वों के बारे में इसी तरह की नीति अपनाई गई. इसी तरह जो तत्व अफ़ग़ानिस्तान में आटे की तस्करी करते हैं, उन्हें खुली छूट मिल जाती है.
यह जानकारी और विश्लेषण इस तरफ इशारा करता है कि पाकिस्तान की स्थापना के बाद के शुरुआती वर्ष हों या आज का दौर, विभिन्न हितों के कारण, हमेशा एक ऐसा शक्तिशाली वर्ग मौजूद रहा है. जिनके अपराधों पर आंखें मूंद ली गईं और इस पूरी स्थिति के हानिकारक प्रभाव सरकारों और उनके प्रमुखों को बर्दाश्त करने पड़े.
1953 के खाद्य संकट के दौरान ख्वाजा नाज़िमुद्दीन पाकिस्तान के दूसरे प्रधानमंत्री थे. पूर्व आईएसपीआर प्रमुख ब्रिगेडियर अब्दुल रहमान सिद्दीकी ने अपनी पुस्तक 'फ़ौज और सियासत' में लिखा है कि इस संकट के कारण प्रधानमंत्री का मज़ाक उड़ाया जाता था और उनके नाम को बदलकर 'हाज़िमुद्दीन' कहा जाने लगा था. मोहम्मद सईद ने लिखा है कि लोग उन्हें आम तौर पर 'क़ायद ए क़िल्लत' (संकट का नेता) कहते थे.
'मार्शल लॉ लागू होते ही संकटों का समाधान हो जाता है'
1953 में लाहौर में लगाए जाने वाले पहले मार्शल लॉ और 1958 में पूरे देश में लगाए जाने वाले मार्शल लॉ से पहले देश में खाद्य पदार्थों के संकट की स्थिति की भी एक अहम भूमिका थी. लेकिन मार्शल लॉ लागू होने के बाद, खाद्य पदार्थ का संकट रातों रात समाप्त हो गया और इस संबंध में कोई शिकायत सुनने में नहीं आई.
इसी तरह, सत्तर के दशक में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की लोकप्रियता कम होने में भी राशन डिपो सिस्टम ने अहम भूमिका निभाई थी. लेकिन जैसे ही मार्शल लॉ सरकार आई, इस प्रणाली को समाप्त कर दिया गया था.
1977 के मार्शल लॉ के बाद आने वाली सरकारों के दौर में कई बार खाद्य पदार्थों के संकट की स्थिति पैदा हुई, जिसमें जनरल मुशर्रफ़ का दौर भी शामिल है.
इन सभी संकटों के पीछे एक ही तरह के कारक दिखाई देते हैं. यानी भविष्य की परिस्थितियों का अनुमान लगाने में विफलता, संकटों से निपटने के लिए योजना बनाने में नाकामी और ताक़तवर तत्वों की अवैध गतिविधियों की तरफ से आँखें बंद कर लेना.
इसका मतलब है कि पाकिस्तान में महीने और साल तो बदलते रहे हैं लेकिन स्थिति हमेशा एक ही रही है. समस्या की जड़ पकड़ने की बजाय लगातार गेहूं आयात करते रहना भी इसी का एक संकेत है.
मोहम्मद सईद के अनुसार, 1953 में सरकार ने इतना गिर कर खाद्य पदार्थों की मदद मांगी कि कराची के बंदरगाह पर उतरने वाली गेहूं को जिन ऊंटों पर लादा गया उनके गले में 'थैंक यू अमेरिका' यानी धन्यवाद अमेरिका की तख़्ती लटका दी गई. इसी तरह, मौजूदा दौर में भी मूल मुद्दे पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय, गेहूं के आयात पर ज़ोर दिया जा रहा है.
मोहम्मद सईद 1953 में गेहूं के संकट के बारे में लिखते हैं कि उस समय दो समस्याएं एक साथ उत्पन्न हुई थीं. एक तो गेहूं की कमी, दूसरा संकट भारत द्वारा कोयले की आपूर्ति में रुकावट के कारण उत्पन्न हुआ था.
कोयले की वजह से रेलवे इंजनों को चलाने के लिए ईंधन की समस्या पैदा हुई तो पाकिस्तान में यह सोच आम हो गई कि कोयले की कमी को अतिरिक्त गेहूं को जलाकर पूरा कर लिया जाये. यह सोच गेहूं की प्रचुरता की ओर इशारा करती है और तथ्य भी यही है.
इस संकट में भी गेहूं के इतने स्टॉक थे कि मार्शल लॉ एडमिनिस्ट्रेटर लेफ्टिनेंट जनरल आज़म ख़ान की एक ही धमकी के बाद, गेहूं की भरमार हो गई और ऐसा लगने लगा कि जैसे यहां कभी खाद्य पदार्थों की कमी थी ही नहीं.