म्यांमार: उनकी 'सूची' में पत्रकार फ़ेवरिट थे, उनके राज में जेल जा रहे हैं
साथ में बीबीसी न्यूज म्यांमार के एक सहयोगी थे जिन्होंने यात्रा के पहले दिन ही बता दिया था कि "हमारे पास कोई भी ऐसा वीडियो, कागज़ या इंटरव्यू नहीं मिलना चाहिए जिससे हमें जेल भेज दिया जाए".
हमारी प्रॉड्यूसर ऐन गैलाघर रोज़ सुबह फ़ोन पर हमसे ख़ैर पूछने के अलावा ये भी सुनिश्चित करती थीं कि हर जुटाई गई 'न्यूज़ सामग्री' इंटरनेट के ज़रिए उन तक लंदन या दिल्ली पहुंच जाए.
रंगून की ख़ूबसूरत इनया झील से सटे सात कमरे वाले एक मकान के बाहर ज़बरदस्त पहरा रहता था.
लोहे की सलाखों वाले गेट पर और भीतर दरवाज़े पर सैनिक तैनात रहते थे. बिना इजाज़त भीतर जाना असंभव था.
एक सुबह जब पहली मंज़िल पर बैठी उस महिला ने विदेशी अख़बारों के एक बंडल के साथ किसी को गेट के भीतर आते देखा तो ख़ुशी से दौड़ती हुईं नीचे पहुँच गईं.
तब रंगून बर्मा की राजधानी हुआ करती थी और करीब-करीब पूरा शहर या तो यांगोन नदी के या इनया झील के पास ही रहता था.
देश-दुनिया से कटी हुईं आंग सान सू ची दिन के कई घंटे अपने घर से झील को और उसमें तैरती हुईं सफ़ेद बत्तखों को निहारती रहती थीं.
साल था 1988. ऑक्सफ़र्ड में पढाई करने और संयुक्त राष्ट्र जैसी जगहों पर नौकरी करने के बाद आंग सां सू ची भारत में थीं जब बर्मा में उनकी माँ को ब्रेन स्ट्रोक हुआ था.
रंगून पहुँचने के एक महीने बाद ही सू ची ने देश की फ़ौजी देखरेख वाली सरकार से देश में लोकतांत्रिक चुनाव करने की मांग कर दी.
एक साल के भीतर उन्होंने नैशनल लीग फ़ॉर डेमोक्रैसी पार्टी बना कर उसे अहिंसा और जन असहयोग के सिद्धांत पर लांच कर दिया था.
इसके बाद से ही उन्हें 'फ़ौज मै फूट डालने' जैसे कई आरोपों के मद्देनज़र झील के किनारे वाले घर में नज़रबंद कर दिया गया था.
विदेशी मीडिया को पसंद करती थीं सू ची
1970 और 1980 के दशक में बर्मा के कई नामचीन अख़बार बंद हुए थे और स्थानीय पत्रकारों के ख़िलाफ़ कार्रवाई आम बात थी.
बाद में म्यांमार टाईम्स में काम कर चुके एक वरिष्ठ पत्रकार ने बताया, "उन दिनों सू ची सबसे ज़्यादा अख़बारों को पसंद करती थीं और ख़ासतौर से विदेशी मीडिया को. उन्हें लगता था मीडिया में निष्पक्षता की जो शक्ति है उसका सामना कोई भी फ़ौज नहीं कर सकती".
रंगून की उसी इनया झील के किनारे वाले घर में साल 2012 में नोबेल पुरस्कार विजेता और म्यांमार में संसदीय चुनाव जीत चुकीं आंग सान सू ची अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के साथ चाय पी रहीं थी.
ओबामा ने बाहर निकल कर कहा था, "मुझे ख़ुशी है कि अपनी एशिया यात्रा का आगाज़ मैंने लोकतंत्र की एक चिराग़, सू ची, से मुलाक़ात कर शुरू की है."
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तीन बार रिजेक्ट हुआ वीज़ा
उन्हीं आंग सान सू ची की सरकार वाले म्यांमार में रिपोर्टिंग करने के लिए मैंने सितंबर, 2017 में दिल्ली के म्यांमार दूतावास में वीज़ा की अर्ज़ी लगाई थी.
वजह साफ़ थी और ख़बर ऐसी जिससे दुनिया में हाहाकार मचा हुआ था.
म्यांमार के रखाइन प्रांत में हिंसा का शिकार हुए लाखों रोहिंग्या मुसलमानों को भाग कर बांग्लादेश के कॉक्स बाज़ार में शरण लेनी पड़ी थी.
कॉक्स बाज़ार से म्यांमार फ़ौज के 'जघन्य अपराधों और हत्याओं की खबरें तेज़ हो रहीं थीं.
उधर सू ची की सरकार और फ़ौज ने सभी आरोपों को सिरे से ख़ारिज कर दिया था.
म्यांमार का कहना था कि रखाइन प्रांत में 'आरसा चरमपंथी संगठन के लोगों ने दर्जनों पुलिस स्टेशनों पर हमला किया था और सरकारी कर्मचारियों की हत्याएं की थीं."
जबकि हज़ारों-लाखों की तादाद में भूख-प्यास से जूझते रोहिंग्या मुस्लिम शरणार्थी, बांग्लादेश पहुँच अपने या परिवारों के साथ हुई बलात्कार, लूट और हत्याओं की बात दोहरा रहे थे.
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आधुनिक इतिहास में कम समय में इतने ज़्यादा लोगों का पलायन बहुत कम ही देखा गया था.
मेरा वीज़ा तीन बार रिजेक्ट हुआ. वजह बताने के नाम पर दूतावास के अधिकारी अपने बड़े अफ़सर की ईमेल दे देते थे बस.
इस बीच म्यांमार में बीबीसी के दक्षिण-पूर्वी एशिया संवाददाता को पत्रकारों के एक 'मॉनीटर्ड' ग्रुप के साथ रखाइन ले जाया गया.
उस यात्रा में उन्हें रोहिंग्या मुसलमानों के जलाए हुए घरों के अलावा कुछ ऐसे सुराग मिले जिसमें स्थानीय लोगों को जले हुए घरों को 'नष्ट' करते देखा गया.
साफ़ था, बहुंसख्यक बौद्ध लोग अल्पसंख्यक रोहिंग्या मुसलमानों पर बुरी तरह हावी थे.
शायद उस खबर का असर था कि वीज़ा में एक और महीने का विलम्ब हो गया.
आखिरकार नवंबर में जब वीज़ा मिला तो बैंगकॉक होकर यांगोन पहुंचना पड़ा.
हैरानी थी कि पड़ोसी होने के बावजूद भारत और म्यांमार के बीच सीधी फ़्लाईट सेवा तक नहीं है.
लोकतंत्र समर्थक आंग सान सू ची के म्यांमार में उतरने में किसी भी अंतरराष्ट्रीय पत्रकार को दर्जनों सेक्योरिटी चेक्स से गुज़रना आम बात है.
अगले 10 दिनों तक हमें इस बात की बखूबी आदत पड़ चुकी थी.
दो पत्रकारों की गिरफ़्तारी
वैसे म्यांमार में इन दिनों स्वतंत्र मीडिया के नाम पर सिर्फ़ अंतरराष्ट्रीय मीडिया ही बची है. स्थानीय मीडिया पर सरकार और बहुसंख्यक समुदाय का ज़बरदस्त अप्रत्यक्ष दबाव बना रहता है.
अगर आपका ताल्लु्क बीबीसी, सीएनएन, रॉयटर्स, वॉशिंगटन पोस्ट, न्यूयॉर्क टाइम्स, अल जज़ीरा वगैरह से है तो मुश्किलें बढ़नी तय है.
उन दोनों पत्रकारों का वास्ता रॉयटर्स न्यूज़ एजेंसी के साथ था जिन्हें म्यांमार की एक अदालत ने हाल ही में सात साल की सजा सुनाई है.
म्यांमार के नागरिक, इन दोनों पत्रकारों पर रोहिंग्या समुदाय के ख़िलाफ़ हुई हिंसा की जांच के दौरान राष्ट्रीय गोपनीयता क़ानून के उल्लंघन का आरोप है.
वा लोन और क्याव सो ओ नाम के ये दोनों पत्रकार म्यांमार के ही नागरिक हैं.
2017 की दिसंबर में इन दोनों को तब गिरफ़्तार किया गया जब ये कुछ सरकारी दस्तावेज़ ले रहे थे.
ये दस्तावेज़ उन्हें कथित तौर पर पुलिस अफ़सरों ने दिए थे.
दोनों पत्रकारों ने ख़ुद को बेगुनाह बताया है और कहा है कि पुलिस ने ही उन्हें फ़ंसाया है.
मामला अदालत में चल रहा था और हाल ही में उन्हें सात साल की सज़ा सुनाई गई है.
दुनिया भर से आने वाली निंदा के बीच म्यांमार की नेता आंग सान सू ची ने महीनों बाद आसियान की एक बैठक में पत्रकारों की गिरफ़्तारी पर बात की.
अदालती फ़ैसले का बचाव करते हुए सू ची ने कहा, "उन्हें सज़ा इसलिए नहीं मिली कि वे पत्रकार हैं. सजा क़ानून का उल्लंघन करने के लिए मिली है".
दरअसल, ये दोनों पत्रकार अपनी न्यूज़ एजेंसी के लिए रखाइन प्रांत में हुए नरसंहार की जांच कर रहे थे.
म्यांमार में रिपोर्टिंग के दौरान हमारी मुलाक़ात इनमें से एक से हुई थी और बातचीत का मुद्दा कॉमन था.
रखाइन प्रांत में पहुँच कर वहां के बिगड़े हालात का जाएज़ा लेना और जानकारी जुटाना.
म्यांमार सरकार ने हमारे ऊपर रखाइन की राजधानी सितवे से आगे जाने पर रोक लगा दी थी.
यहाँ से सिर्फ़ दो घंटे की दूरी पर था मुआंग्डो ज़िला जहाँ के अलग-अलग इलाकों से हिंसा और अत्याचार की खबरें आई थीं.
सितवे में एक सुबह खबर मिली की खुद आंग सान सू ची वहां पहुँच कर प्रभावित इलाकों का दौरा करेंगी.
अभी तक के उनके सभी बयानों में फ़ौज के बचाव की ही बात निकली थी.
किस तरह गुजरते थे सिक्योरिटी से
सितवे के छोटे स हवाई अड्डे के करीब 500 मीटर पहले हमें रोक लिया गया और पास के पुलिस स्टेशन में 45 मिनट तक सवालों के जवाब देने पड़े.
साथ में बीबीसी न्यूज म्यांमार के एक सहयोगी थे जिन्होंने यात्रा के पहले दिन ही बता दिया था कि "हमारे पास कोई भी ऐसा वीडियो, कागज़ या इंटरव्यू नहीं मिलना चाहिए जिससे हमें जेल भेज दिया जाए".
हमारी प्रॉड्यूसर ऐन गैलाघर रोज़ सुबह फ़ोन पर हमसे ख़ैर पूछने के अलावा ये भी सुनिश्चित करती थीं कि हर जुटाई गई 'न्यूज़ सामग्री' इंटरनेट के ज़रिए उन तक लंदन या दिल्ली पहुंच जाए.
उसके बाद हम अपने लैपटॉप, मोबाइल फ़ोन और हार्ड ड्राइव से सभी डेटा डिलीट कर देते थे.
जो कुछ बचा के रखते थे उसमें म्यांमार के ख़ूबसूरत पगोडा, नदियां या टूरिस्टों वाली जगहों पर लिए गए सैलानियों के इंटरव्यू होते थे.
हमारी भी जांच हत्याओं के बारे में थी और कोशिश ये पता लगाने की थी कि कुछ दिन पहले बर्मा सरकार ने हिन्दुओं की जिन सामूहिक कब्रों के मिलने का दावा किया था उसका सच क्या था.
यांगोन से रखाइन की तरफ़ जाते समय बीबीसी बर्मीज़ सेवा के लगभग हर सहयोगी ने ख़ास हिदायतें दे रखीं थी.
संयुक्त राष्ट्र या दूसरी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के अफ़सरों ने भी अपने-अपने कर्मचारियों से लो-प्रोफ़ाइल रहने के निर्देश जारी कर दिए थे.
किसी तरह अपना काम पूरा करके हम मांडले और नेपीडॉ होते हुए यांगोन वापस पहुंचे.
यांगोन के औंग क्याव इलाके में 'फ़ादर्स ऑफ़िस' नाम की एक बार में हर शुक्रवार अंतरराष्ट्रीय पत्रकार इकठ्ठा होते हैं.
वा लोन से एक छोटी सी मुलाक़ात फिर हुई. उन्होंने मुस्कुरा कर कहा था "नेक्स्ट टाइम, कम टू बर्मा विद फ़ैमिली. विल बी मोर फ़न".
उसके कुछ हफ़्ते बाद से ही वो अपने सहयोगी के साथ म्यांमार की सबसे ख़तरनाक बताई गई इनसीएन जेल में हैं.
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