कोरोना वायरस के चलते दुनिया के सामने वे पाँच मुद्दे जो दब गए
कोविड-19 महामारी ने शायद दुनिया की कई बड़ी ख़बरों को न्यूज़ एजेंडे से ग़ायब कर दिया है.
यह वायरस पूरी दुनिया में फैल चुका है और यह बेहद ख़तरनाक है. इसको लेकर तमाम तरह के सवाल पैदा हो रहे हैं. ये सवाल न केवल इस चीज से जुड़े हुए हैं कि इससे निबटने के लिए शुरुआत में हमने कैसे क़दम उठाए, बल्कि इससे ये भी चिंताएं पैदा हो रही हैं कि आने वाले वक़्त में हम अपने समाजों को कैसे संगठित करेंगे और किस तरह से अपने कामकाज को आगे बढ़ाएंगे?
इस महामारी के पैदा होने के साथ ही कुछ बड़ी अंतरराष्ट्रीय समस्याएं हाशिये पर चली गई हैं और शायद अब इनसे निबटने में काफ़ी देर हो चुकी है. अन्य दिक्क़तें कहीं ज़्यादा बुरी हालत में पहुंच गई हैं. साथ ही कुछ सरकारें कोविड-19 महामारी की आड़ में अपनी लंबे वक्त से दबी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करना चाहती हैं.
यहां ऐसे पांच मसले दिए जा रहे हैं जिन पर हमें आने वाले हफ्तों और महीनों में नज़र रखनी चाहिए.
परमाणु हथियारों की अंधी दौड़ फिर शुरू होगी?
नई रणनीतिक शस्त्र कटौती संधि या न्यू स्टार्ट अगले साल फ़रवरी में ख़त्म हो रही है. इस संधि के ज़रिए अमरीका और रूस के एक-दूसरे को धमकाने के लिए इस्तेमाल होने वाले लंबी दूरी के परमाणु हथियारों के जख़ीरे पर लगाम लगाई गई है.
अब इस संधि को फिर से लागू करने (नवीनीकरण) का वक़्त कम होता जा रहा है. यह संधि शीत युद्ध के दौरान किए गए कुछ बड़े हथियार नियंत्रण समझौतों में से एक है जो अभी तक जीवित बने हुए हैं.
इस बात को लेकर वाक़ई में डर है कि अगर यह संधि नहीं रहती है तो पाबंदियों की ग़ैर-मौजूदगी और पारदर्शिता के अभाव में परमाणु हथियारों की एक नई दौड़ का जन्म हो सकता है.
बेहद तेज हाइपरसोनिक मिसाइलों जैसे गुप्त हथियारों को जिस तरह से विकसित करने का काम चल रहा है उससे हथियारों की एक नई दौड़ के शुरू होने का ख़तरा और बढ़ गया है.
रूस इस समझौते को फिर से लागू करने के लिए राज़ी दिखाई दे रहा है. हालांकि, ट्रंप प्रशासन इस बात पर अड़ा हुआ है कि अगर चीन इस संधि में शामिल नहीं होता है तो इस संधि को रद्दी की टोकरी डाल दिया जाना चाहिए. बीजिंग इस संधि में शामिल होने में क़तई दिलचस्पी नहीं दिखा रहा है. साथ ही एक नया व्यापक दस्तावेज तैयार करने के लिहाज से अब बहुत देर हो चुकी है.
ऐसे में, जब तक वॉशिंगटन अपना मन नहीं बदलता है या नया प्रशासन नहीं आता है, तब तक ऐसा ही लग रहा है कि न्यू स्टार्ट संधि एक इतिहास बनने रही है.
ईरान के साथ तनाव और बढ़ेगा?
ईरान की परमाणु हथियार विकसित करने की गतिविधियों पर लगाम लगाने वाले जेसीपीओए एग्रीमेंट से अमरीका के हाथ खींच लेने से पैदा हुए विवाद ने चीजों को और खराब बना दिया है.
मौजूदा वक्त में संयुक्त राष्ट्र ने बड़े पैमाने पर ऐसी पाबंदियां लगा रखी हैं जिनके जरिए कोई देश ईरान को आधुनिक हथियार नहीं बेच सकता है.
लेकिन, परमाणु समझौते को समर्थन देने वाले संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के तहत हथियारों पर लगी रोक इस साल 18 अक्टूबर को ख़त्म होने वाली है. ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी ने पहले ही चेतावनी दे दी है कि अगर अमरीका इस पाबंदी को आगे बढ़ाने में सफल रहा तो इस चीज के गंभीर नतीजे होंगे.
हालांकि, इस बात के आसार नहीं हैं कि रूस इस विस्तारित हथियारों पर पाबंदी पर अपनी सहमति देगा. ऐसे हालात में ट्रंप चाहेंगे कि यूरोपीय नेता परमाणु समझौते में एक ऐसी व्यवस्था लागू करें जिससे ईरान के खिलाफ कहीं ज्यादा व्यापक आर्थिक पाबंदियां लागू हो जाएं. ये पाबंदियां समझौते के चलते बड़े तौर पर हटा ली गई थीं.
जेसीपीओए से बाहर निकलने के बाद से ही अमरीका ईरान पर लगातार दबाव बनाए हुए है. ईरान ने समझौते की कई शर्तों का उल्लंघन किया है, लेकिन ये ऐसी नहीं हैं जिन पर वापसी न की जा सके.
अब हालांकि, ट्रंप प्रशासन ऐसा कहता हुआ दिख रहा है कि ईरान को उस समझौते पर कायम रहना चाहिए जिसे यूएस खुद तोड़ चुका है या फिर वह नई पाबंदियों के लिए खुद को तैयार रखे.
यूएस और ईरान के बीच संबंध और खराब होंगे और अमरीका और इसके अहम यूरोपीय सहयोगियों के बीच मौजूदा तनाव और बढ़ जाएगा.
साथ ही हथियारों की बिक्री पर लगी पाबंदी से बड़े लेवल पर ऐसा नहीं दिखाई दे रहा कि इससे ईरान के क्षेत्रीय व्यवहार में कोई बदलाव आया है या उसकी अपने समर्थन वाले सशस्त्र गुटों को सैन्य सामान मुहैया कराने की हैसियत कुछ कम हुई है.
इसराइल की वेस्ट बैंक के विलय की कोशिश
इसराइल में लंबे वक्त से चल रहा चुनावी कैंपेन थम गया है और मुश्किल में पड़े प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू कुर्सी पर बने रहने में कामयाब हुए हैं. कम से कम कुछ वक्त के लिए तो ऐसा ही है. इसके लिए उन्होंने मुख्य विपक्षी पार्टी के साथ सत्ता साझा करने का समझौता कर लिया है.
उनके खिलाफ कई क़ानूनी मामले लंबित हैं. शायद यही वजह है कि नेतन्याहू एक विवादित राष्ट्रवादी एजेंडे को ला रहे हैं. इसके तहत वह इसराइल के कब्जे वाले वेस्ट बैंक का इसराइल में विलय करने की कोशिश में हैं. इस तरह यह भूभाग इसराइल का स्थायी तौर पर हिस्सा बन जाएगा.
तार्किक रूप से यह "दो राज्यों वाले समाधान" की किसी भी उम्मीद को खत्म कर देगा. ऐसा तब है जबकि डोनाल्ड ट्रंप के पीस प्लान में इसे लेकर प्रावधान थे. ऐसे में यह उम्मीद दम तोड़ती नजर आ रही है कि इसराइल और फ़लस्तीन के बीच किसी तरह की स्थायी शांति हो सकती है.
फ़लस्तीन लोग पहले से ही बेइमानी के आरोप लगा रहे थे. यूरोप समेत कई दूसरी सरकारें सतर्कता बरतने की बात कह रही हैं. इस तरह की चर्चा भी चल रही है कि अगर इसराइल इस प्लान पर आगे बढ़ता है तो उस पर पाबंदियां लगाई जाएं. ऐसे में ट्रंप प्रशासन की भूमिका अहम होगी. क्या ट्रंप प्रशासन इसराइल को अपने मंसूबे पूरे करने की इजाजत देगा या वह उसे इस योजना पर आगे बढ़ने से रोकेगा?
ऐसा दिखाई दे रहा है कि नेतन्याहू को इसराइल के सीरियाई गोलन हाइट्स के विलय करने में प्रेसिडेंट ट्रंप के समर्थन से बल मिला है. साथ ही जेरूसलम में अमरीकी दूतावास खुलने से भी नेतन्याहू उत्साहित हैं.
अमरीका की मौजूदा स्थिति भ्रमित करने वाली है. ऐसा लग रहा है कि वह वेस्ट बैंक के इलाकों के विलय को तभी समर्थन देगा जबकि इसराइल फ़लस्तीनी राज्य के लिए बातचीत करने के लिए राजी हो
ब्रेक्सिट अभी मसला ख़त्म नहीं हुआ है
ब्रेग्जिट एक ऐसा शब्द है जिसे शायद हम सब भुला बैठे थे.
लेकिन, वक्त धीरे-धीरे कम होता जा रहा है. यूरोपीय यूनियन से ब्रिटेन के अलग होने का संक्रमण काल 31 दिसंबर को खत्म हो रहा है. यूरोपीय यूनियन और ब्रिटेन के बीच भविष्य के रिश्ते किस तरह के होंगे इसे लेकर मोटे तौर पर बातचीत शुरू हो चुकी है. लेकिन, इस तरह का कोई संकेत नहीं मिल रहा है कि प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन की सरकार इस संक्रमण की अवधि में देरी होने या इसके विस्तार को लेकर कोई विचार भी कर रही है या नहीं.
हालांकि, महामारी ने ब्रेग्जिट के पूरे संदर्भ को ही बदल दिया है. अब एक ऐसी आर्थिक गिरावट पैदा हो रही है जिससे उबरने में शायद सालों का वक्त लगे. इन्हें देखते हुए ब्रिटेन में इस पुरानी बहस के फिर से जिंदा होने के आसार कम ही दिख रहे हैं.
हालांकि, कोविड-19 से निबटने के लिए यूरोपीय यूनियन के शुरुआती कदम ऐसे नहीं थे जिनकी तारीफ की जाए. दूसरी ओर, ब्रिटेन की इस संकट से निबटने की रणनीति भी कोई खास अच्छी नहीं थी.
ब्रिटेन के यूरोपीय यूनियन से निकलने से दोनों तरफ तनाव पैदा हो रहा है. शायद इससे एक ज्यादा सहमति भरी सोच पैदा हो जो कि ब्रिटेन और यूरोपीय यूनियन के भविष्य के रिश्तों को तय करे.
लेकिन, आर्थिक मंदी की मार और एक बदली हुई दुनिया में, आप अमरीका का कितना समर्थन कर सकते हैं? आप चीन के पक्ष में कहां तक जा सकते हैं? जैसे कई बड़े सवाल यूके के सामने खड़े होंगे.
पर्यावरण परिवर्तनः सबसे अहम मुद्दा
महामारी के खिलाफ दुनियाभर के किए जा रहे उपाय एक तरह से पूरे अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने पर्यावरण परिवर्तन की सबसे बड़ी और जटिल चुनौती से निबटने की तैयारियों की परीक्षा की तरह है.
आपसी सहयोग के लिहाज से कोविड-19 का अनुभव अब तक एक मिलीजुली स्थिति के बारे में बताता है. महामारी के गुजरने के बाद की दुनिया में बने रहने वाले तनाव से चीजें बड़े स्तर पर जटिल हो जाएंगी.
पर्यावरण परिवर्तन पर चर्चा को फिर से पटरी पर लाना है. लेकिन, संयुक्त राष्ट्र की कोप26 क्लाइमेट कॉन्फ्रेंस जैसी अहम बैठक जो कि नवंबर में ग्लास्गो में होनी थी, उसे अगले साल तक के लिए टाल दिया गया है.
लेकिन, बड़ा सवाल यह है कि अंतरराष्ट्रीय सोच में क्या बदलाव होंगे? क्या पर्यावरण परिवर्तन को लेकर तुरंत और बड़े कदम उठाने के लिए दुनिया एक होगी? और क्या नई विश्व व्यवस्था में इस बेहद बड़े मसले पर तेज प्रगति हो पाएगी?