डॉलर मजबूत होकर पूरी दुनिया को दे रहा है दर्द, अगले साल भीषण आर्थिक मंदी, कैसे बचेगा भारत?
डॉलर के मजबूत होने के असर से अमीर देश अछूते नहीं हैं। यूरोप में, जो पहले से ही ऊर्जा की बढ़ती कीमतों के बीच मंदी की ओर तेजी से बढ़ रहा था, वहां 20 वर्षों में पहली बार एक यूरो की कीमत 1 डॉलर से कम हो गई है।
Dollar Vs Rupee : काहिरा में रहने की कीमत इतनी ज्यादा बढ़ गई है, कि सुरक्षा गार्ड की नौकरी करने वाले मुस्तफा जमाल को पैसे बचाने के लिए अपनी पत्नी और एक साल की बेटी को मिस्र की राजधानी काहिरा से करीब 112 किलोमीटर दूर अपने गांव भेजना पड़ा। वहीं, 28 साल के गमाल को दो अलग अलग काम करने पड़ते हैं, तब जाकर वो अपनी जरूरतों को पूरा कर पाते हैं। उनका कहना है, कि'हर चीज के दाम दोगुने हो गए हैं और कोई विकल्प नहीं बचा था।" ये कहानी सिर्फ काहिरा की ही नहीं है, लंदन, पेरिस, नैरोबी, इंस्ताबुल के लोग भी सुरक्षा गार्ड जमाल के दर्द को समझ रहे हैं। केन्या के एक ऑटो पार्ट्स डीलर और तुर्की में बच्चों के कपड़े बेचने वाले एक दुकानदार और यूनाइटेड किंगडम के मैनचेस्टर में शराब आयातक, सभी की एक ही शिकायत है और वो शिकायत ये है, कि अमेरिकी डॉलर में हो रही लगातार मजबूती से स्थानीय मुद्रा लगातार कमजोर हो रहा है, जिसकी वजह से कीमतें आसमान को छू रही हैं और रोजमर्रा के सामान खरीदने के लिए लोगों को संघर्ष करना पड़ रहा है।
पूरी दुनिया पर समान संकट
पूरी दुनिया के लिए ये एक वित्तीय संकट का समय है, जब यूक्रेन पर रूसी आक्रमण ने लोगों के सामने खाद्य और ऊर्जा संकट की गंभीर स्थिति पैदा कर दी है। अलजजीरा की एक रिपोर्ट के मुताबिक, कॉर्नेल विश्वविद्यालय में व्यापार नीति के प्रोफेसर ईश्वर प्रसाद कहते हैं, "एक मजबूत डॉलर दुनिया के बाकी हिस्सों में खराब स्थिति को और खराब कर देता है।" वहीं, कई अर्थशास्त्रियों को चिंता है कि डॉलर की तेज वृद्धि से अगले साल किसी समय वैश्विक मंदी की संभावना बढ़ रही है। बेंचमार्क आईसीई यूएस डॉलर इंडेक्स के अनुसार, डॉलर इस साल 18 प्रतिशत ऊपर जा चुका है और पिछले महीने 20 साल के उच्च स्तर पर पहुंच गया है।
डॉलर क्यों हो रहा है मजबूत?
डॉलर के लगातार मजबूत होने के पीछे कोई खास रहस्य नहीं हैं। अमेरिका में महंगाई से निपटने के लिए अमेरिकी केन्द्रीय बैंक फेडरल रिजर्व ने इस साल अपनी अल्पकालिक ब्याज दर को अब तक पांच गुना बढ़ा चुका है और संकेत यही मिल रहे हैं, कि इसमें और बढ़ोतरी की संभावना है। इसकी वजह से अमेरिकी सरकार के कॉरपोरेट बॉन्ड के वैल्यू में इजाफा हुआ है, जिसकी वजह से अमेरिका में निवेश करने के लिए निवेशक काफी उत्सुक हो गये हैं, लिहाजा अमेरिका में निवेशक लगातार निवेश कर रहे हैं, लिहाजा डॉलर मजबूत होता जा रहा है। सिर्फ इस साल निवेशक भारतीय बाजार से 26 अरब डॉलर निकालकर उसे अमेरिका में निवेश कर चुके हैं, लिहाजा रूपये पर गंभीर प्रभाव पड़ा है। यही हाल दुनिया के बाकी देशों में भी हो रहा है। ज्यादातर देशों की मुद्राएं इस वजह से डॉलर के सामने कमजोर हो गईं हैं, खासकर गरीब देशों पर इसका गंभीर प्रभाव पड़ा है। डॉलर के मुकाबले इस साल भारतीय रुपया करीब 10 प्रतिशत, मिस्र पाउंड 20 फीसदी और तुर्की लीरा में 28 प्रतिशत की गिरावट आई है।
अमीर देश भी नहीं हैं अछूते
डॉलर के मजबूत होने के असर से अमीर देश अछूते नहीं हैं। यूरोप में, जो पहले से ही ऊर्जा की बढ़ती कीमतों के बीच मंदी की ओर तेजी से बढ़ रहा था, वहां 20 वर्षों में पहली बार एक यूरो की कीमत 1 डॉलर से कम हो गई है। वहीं, यूनाइटेड किंगडम का पाउंड एक साल पहले की तुलना में 18 प्रतिशत गिर गया है। ब्रिटेन की स्थिति तो इतनी खराब हो गई है, कि नई प्रधानमंत्री लिज ट्रस की कुर्सी पर खतरा मंडरा रहा है। लिज ट्रस ने प्रधानमंत्री बनने के बाद टैक्स में भारी कटौती की घोषणा की थी, लिहाजा यूके बाजार में हलचल मच गया और प्रधानमंत्री ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए वित्तमंत्री को बर्खास्त कर दिया।
वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए बुरी खबर
आमतौर पर, देशों को गिरती मुद्राओं से कुछ लाभ मिल सकता है, क्योंकि यह उनके उत्पादों को विदेशों में सस्ता और अधिक प्रतिस्पर्धी बनाता है। लेकिन फिलहाल, उच्च निर्यात से किसी भी तरह का लाभ मिलने की संभावना काफी कम है,क्योंकि आर्थिक विकास लगभग हर जगह फैल रहा है और डॉलर के मजबूत होने से कई देशों में दर्द बढ़ रहा है। डॉलर के मजबूत होने से यह मौजूदा मुद्रास्फीति दबावों को जोड़कर अन्य देशों के आयात को और अधिक महंगा बनाता है। यह उन कंपनियों और उन उपभोक्ताओं और सरकारों को और परेशान करता है, जिन्होंने डॉलर में उधार लिया था। ऐसा इसलिए है, क्योंकि ऋण भुगतान करते समय डॉलर में बदलने के लिए अब उन्हें ज्यादा स्थानीय मुद्रा की आवश्यकता होगी। लिहाजा, इसका असर ये होता है, कि स्थानीय मुद्रा को कमजोर होने से बचाने के लिए केन्द्रीय बैंक ब्याज दरों को बढ़ाने के लिए मजबूर होता है, और ब्याज दर बढ़ने से देश के आर्थिक विकास पर गंभीर असर पड़ता है और महंगाई के साथ साथ बेरोजगारी भी बढ़ने लगती है। कैपिटल इकोनॉमिक्स के एरियन कर्टिस ने अलजजीरा को दिए गये एक इंटरव्यू में कहा कि, "सीधे शब्दों में कहें तो, "डॉलर में मजबूती वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए बुरी खबर है और यह एक और कारण है, कि हम अगले साल वैश्विक अर्थव्यवस्था के मंदी में फंसने की तरफ बढ़ रहे हैं।"
मजबूत डॉलर कैसे मचाता है तबाही, जानिए
प्रभावशील मुद्राओं ने दुनिया भर में पहले भी कई बार आर्थिक पीड़ा दी है। उदाहरण के लिए, 1990 के दशक में एशियाई वित्तीय संकट के दौरान, इंडोनेशियाई कंपनियों ने भारी मात्रा में डॉलर उधार लिया था, लेकिन जैसे ही डॉलर के मुकाबले इंडोनेशियन करेंसी क्रैश किया, ठीक वैसे ही इंडोनेशिय कंपनियों का सफाया हो गया। वहीं, कुछ साल पहले, मैक्सिकन मुद्रा में आई भारी गिरावट ने मैक्सिकों की कंपनियों को बदहाल कर दिया। और इस साल भी कुछ ऐसा ही हो रहा है और साल 2022 में डॉलर में आ रही तेज मजबूती वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए दर्दनाक हो सकता है। यह ऐसे समय में वैश्विक मुद्रास्फीति के दबाव को बढ़ा रहा है, जब कीमतें पहले से ही बढ़ रही हैं। यूक्रेन में युद्ध के कारण ऊर्जा और कृषि बाजारों में व्यवधान ने COVID-19 मंदी और वसूली से उपजी आपूर्ति बाधाओं को बढ़ा दिया। भारतीय राजधानी नई दिल्ली में, रवींद्र मेहता दशकों से अमेरिकी बादाम और पिस्ता निर्यातकों के ब्रोकर के रूप में फल-फूल रहे हैं। लेकिन रुपये में रिकॉर्ड गिरावट ने कच्चे माल और शिपिंग लागत को भारी स्तर तक बढ़ा दिया है, जिसका गंभीर असर उनके व्यापार पर पड़ा है, क्योंकि खरीददार कम हो गये हैं। इस साल अगस्त महीने में भारत ने बादाम के 400 कंटेनरों का ही आयात किया, जबकि पिछले साल भारत में 1,250 कंटेनरों का आयात किया गया था।
भारतीय रुपये ने किया बेहतर प्रदर्शन
भारतीय रुपये ने दूसरी करेंसी के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन किया है। जबकि रुपया सितंबर में डॉलर के मुकाबले 2.6% गिर गया था और 81 और 82 के मनोवैज्ञानिक सीमारेखा को तोड़ते हुए, यह वर्तमान परिवेश में दुनिया की सबसे स्थिर मुद्राओं में शामिल हो गया है। क्योंकि, अस्थिर बाजार ने लगभग दुनिया की सभी मुद्राओं और अर्थव्यवस्थाओं को प्रभावित किया है। इसलिए, सितंबर में डॉलर के मुकाबले कोरियाई मुद्रा में लगभग 6 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई थी और ब्रिटिश मुद्रा पाउंड को भी लगभग उतना ही नुकसान हुआ था। ऑस्ट्रेलियाई डॉलर में 4.8% की गिरावट आई और स्वीडिश मुद्रा क्रोना, चीनी मुद्रा युआन और फिलीपीन की मुद्रा पेसो में क्रमशः 4.6%, 4.1% और 4.1% की गिरावट आई। लिहाजा, जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, इन मुद्राओं के विपरीत रुपये में तुलनात्मक रूप से कम गिरावट आई है। भारतीय रुपये में सिर्फ 2.6% की ही गिरावट आई है, जो यूरोपीय मुद्रा यूरो में आई गिरावट के बराबर है, जिसमें सितंबर में 2.4% की गिरावट आई थी।
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