ममता बनर्जी के लिए अभी 'दिल्ली दूर' क्यों है ?
नई दिल्ली, 3 दिसंबर: ममता बनर्जी के मुंबई मिशन के बाद से कांग्रेस और टीएमसी के बीच में जुबानी जंग छिड़ चुकी है। बंगाल की मुख्यमंत्री की पार्टी कांग्रेस नेतृत्व को नकारा बता रही है तो सबसे पुराने दल होने का दम भरने वाली पार्टी उनका पुराना सियासी इतिहास सामने लाकर उन्हें बैकफुट पर धकलने की कोशिश कर रही है। लेकिन, मूल बात ये है कि 2024 में खुद को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुकाबले विपक्ष का मुख्य चेहरा बनाने के लिए तृणमूल सुप्रीमो जितनी उतावली हैं, उसकी वजह क्या है? क्या उन्होंने इसके लिए जमीनी राजनीति का कोई हिसाब-किताब किया है या फिर सिर्फ अपने सलाहकार के कहने पर चल रही हैं, जो आरोप कांग्रेस उनपर लगा रही है।
ममता खुद को पीएम इन वेटिंग क्यों पेश करना चाहती हैं ?
बंगाल में लगातार तीसरी जीत और वह भी लोकसभा चुनावों में भाजपा से कड़ी टक्कर के बाद, ममता बनर्जी का मनोबल सातवें आसमान पर पहुंचा रखा है। उन्होंने जब एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार की मौजूदगी में कहा है कि 'अब कोई यूपीए नहीं है' तो उनकी इस लाइन में उनके हौसले की बुलंदी झलकती है। उनका इतना आत्मविश्वास बेवजह भी नहीं है। वह लगातार तीसरी बार बंगाल में भारी बहुमत की सरकार बनाने में कामयाब हुई हैं। 2011 में उन्होंने वहां से लेफ्ट फ्रंट का साढ़े तीन दशक पुराना राज मटियामेट कर दिया था तो इस बार उन्होंने भारतीय जनता पार्टी की राज्य में उभरती ताकत को सख्ती से रोकने का काम किया है। वह सात बार सांसद रह चुकी हैं और केंद्र में रेल मंत्री जैसा भारी-भरकम पद भी संभाल चुकी हैं। दूसरी तरफ सत्ता में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसे लोकप्रिय वैश्विक शख्सियत हैं, लेकिन विपक्ष में उनके मुकाबले चारों ओर सन्नाटा ही नजर आता है। इस कमी को पूरा करने के लिए वह अपनी राजनीतिक प्रोफाइल को इस समय पूरा फिट मान रही हैं।
कहां कांग्रेस और सहयोगियों को तोड़ना मुश्किल है?
नवंबर में हुए उपचुनावों से पहले बिहार में कांग्रेस और आरजेडी का गठबंधन टूट गया था। दो सीटों पर चुनाव हुए। इनमें से तारापुर का परिणाम देखने के बाद दोनों पार्टियों को अपने फैसले पर फिर से मंथन करना होगा। यहां अगर ये साथ मिलकर लड़ते तो सत्ताधारी जदयू उम्मीदवार की राह मुश्किल कर सकते थे। खैर बिहार में तो दोनों दल डेढ़ दशक से ज्यादा सत्ता से दूर हैं। तेजस्वी यादव भले ही बंगाल में जाकर ममता से आशीर्वाद ले आए हों, लेकिन वह कांग्रेस की जगह टीएमसी के साथ गठबंधन के लिए तैयार होंगे, ऐसा मानने का अभी कोई कारण नहीं लगता। महाराष्ट्र में तो पिछले साल चुनाव हारने के बाद भी कांग्रेस के किस्मत का ताला खुल गया था। यहां भले ही पार्टी शिवेसना और एनसीपी की जूनियर पार्टनर हो, लेकिन सत्ता का स्वाद तो चख रही है। शरद पवार भले ही ममता बनर्जी को राष्ट्रीय स्तर पर पावर दे रहे हों, लेकिन उन्होंने टीएमसी नेता को पहले ही महाराष्ट्र से दूर रहने को कह दिया है। कांग्रेस जूनियर पार्टनर बनकर ही सही, झारखंड और तमिलनाडू में भी सत्ता में है। क्या वहां भी बंगाल की दीदी के कहने पर हेमंत सोरेन और स्टालिन अपनी सरकारों को किसी तरह परेशानी में डालने का ेजोखिम लेंगे?
गैर-बीजेपी और गैर-कांग्रेस पार्टियों को कैसे साथ में लाएंगी ?
आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और ओडिशा में गैर-बीजेपी और गैर-कांग्रेसी पार्टियों की सरकारें हैं। लेकिन, वाईएसआर कांग्रेस, टीआरएस और बीजेडी ने कई अहम मुद्दों पर संसद में बीजेपी सरकार का साथ दिया है। यह बात अलग है कि अभी टीआरएस ने लोकसभा में सरकार की नीतियों के खिलाफ खूब बवाल काटा है, लेकिन वह किसी भी तरह से बाकी विपक्षी दलों के साथ पूरी तरह से एकजुट नहीं दिखी है। लोकसभा चुनावों में अभी कम से कम ढाई साल हैं। कोई वजह नहीं है कि वो अभी से किसी नए मोर्चे में शामिल होकर केंद्र से मिलने वाले सहायताओं में बेवजह की राजनीति पनपने देना चाहेंगे। आंध्र के पूर्व सीएम चंद्रबाबू नायडू भी पिछले लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा से खुन्नस निकालने की कोशिश कर चुके हैं। लेकिन, क्या ममता अभी टीडीपी के साथ गठबंधन में फायदे का सौदा देखेंगी ?
यूपी में विधानसभा चुनावों से पहले क्या हो रहा है?
ममता बनर्जी डंके की चोट पर कह रही हैं कि उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में जहां कांग्रेस कमजोर है, वहां उनकी पार्टी भाजपा को टक्कर देने वाली समाजवादी पार्टी के साथ है। लेकिन, यह एक धारणा बनाने वाली ही बात है। ममता बंगाल से बाहर जहां भी टीएमसी की जमीन तलाशने में लगी हैं, वहां वह कांग्रेस की राजनीति पर हाथ साफ कर रही हैं। गोवा, त्रिपुरा, मेघालय से लेकर असम तक में उन्होंने जिन नेताओं को अपने साथ जोड़ा है, उन सबका किसी ना किसी वजह से अपनी पार्टी से मोहभंग हुआ था। बाकी बिहार, हरियाणा और झारखंड में उनके साथ आए नेताओं का राजनीतिक वजूद इतना नहीं है कि वह ममता के मंसूबे को आगे बढ़ाने में कोई खास योगदान दे पाएं। यूपी में तो टीएमसी का कोई जनाधार ही नहीं है। यहां अखिलेश ने इसबार इसलिए कांग्रेस के साथ गठबंधन करने से तोबा किया है कि वह फिर से 2017 की तरह मोदी बनाम राहुल करने का जोखिम नहीं ले सकते थे। यूपी ही नहीं किसी भी हिंदी हार्टलैंड में ममता के लिए पांव पसारना बहुत ही मुश्किल है।
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ममता बनर्जी के लिए अभी 'दिल्ली दूर' क्यों है ?
ममता बनर्जी बता रही हैं कि कांग्रेस का मौजूदा नेतृत्व पीएम मोदी की अगुवाई वाली भारतीय जनता पार्टी को चुनौती देने में सक्षम नहीं है। यह बात भी सही है कि करीब ढाई दशकों से पार्टी पर सोनिया गांधी और उनके परिवार का कब्जा है। लेकिन, कांग्रेस का एक बड़ा इतिहास भी रहा है। कांग्रेस से निकलकर जिस तरह से ममता बनर्जी उसे टक्कर देना चाहती हैं, ऐसी कोशिशों पहले भी हो चुकी हैं। सिर्फ चंद्रशेखर और वीपी सिंह ही ऐसे कांग्रेसी रहे, जिन्हें प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला और उसमें भी युवा तुर्क चंद्रशेखर को तो राजीव गांधी ने ही समर्थन की बैसाखी दी थी, जिसे हटाते ही वे चार महीने में हट गए। वीपी सिंह ने जरूर अपनी एक पहचान बनाने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने जिन नेताओं को बढ़ा आज वही उन्हें भुला चुके हैं। रामकृष्ण हेगड़े भी कांग्रेस से निकले थे और पवार, जगन मोहन रेड्डी ने भी उसे चुनौती दी। लेकिन, कोई आजतक राष्ट्रीय प्रभाव नहीं बना पाया है। पवार तो अभी तक यही कह रहे थे कि बिना कांग्रेस के ना हो पाएगा। ऐसे में ममता बनर्जी जिस मिशन पर निकली हैं, उसके लिए अभी 'दिल्ली बहुत दूर' लग रही है।