ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को लेकर ट्विटर पर हुए हंगामे के मायने क्या हैं?
इस पोस्टर को डिज़ाइन करने वाली कलाकार और दलित अधिकारों के लिए काम करने वाली तेनमौली सुंदरराजन ने बीबीसी से कहा, "ये पोस्टर पिछले दो साल से सोशल मीडिया पर है लेकिन इस पर हंगामा तब हुआ जब ट्विटर के सीईओ इसे अपने हाथ में लेकर खड़े हो गए. इसका विरोध करने वाले शायद डरे हुए हैं कि सच्चाई ग्लोबल लेवल पर पहुंच जाएगी."
#SmashBrahmanicalPatriarchy यानी ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को ख़त्म करो.
'ब्राह्मणवादी' और 'पितृसत्ता' हिंदी के ये दो भारी से लगने वाले शब्द जहां भी इस्तेमाल होते हैं, वहां अक्सर कोई न कोई विवाद हो जाता है.
इस बार भी यही हुआ. जब ट्विटर के सीईओ जैक डोर्से ने एक पोस्टर अपने हाथों में लेकर तस्वीर खिंचवाई तो हंगामा हो गया.
जैक डोर्से ने अपने हाल के भारत दौरे पर कुछ भारतीय महिलाओं के साथ एक बैठक की थी और उसके बाद ये तस्वीर सामने आई थी.
तस्वीर सामने आने के बाद Brahminical Patriarchy शब्द के इस्तेमाल पर तीख़ी बहस छिड़ गई और सोशल मीडिया पर मौजूद एक तबके ने इसे 'ब्राह्मणों के ख़िलाफ़' और 'ब्राह्मणों के प्रति नफ़रत और पूर्वाग्रह से ग्रस्त' बताया.
विवाद इतना बढ़ा कि #Brahminsऔर #BrahiminicalPatriarchy हैशटैग वाले हज़ारों ट्वीट किए गए और बाद में ट्विटर को सफ़ाई तक देनी पड़ी.
ट्विटर इंडिया ने कहा -
''हमने हाल ही में भारत की कुछ महिला पत्रकारों और कार्यकर्ताओं के साथ बंद कमरे में एक चर्चा की ताकि ट्विटर पर उनके अनुभवों को अच्छी तरह समझ सकें. चर्चा में हिस्सा लेने वाली एक दलित ऐक्टिविस्ट ने यह पोस्टर जैक को तोहफ़े के तौर पर दिया था.''
https://twitter.com/TwitterIndia/status/1064523207800119296
ट्विटर इंडिया की ओर से किए गए एक दूसरे ट्वीट में कहा गया-
''ये ट्विटर का या हमारे सीईओ का बयान नहीं बल्कि हमारी कंपनी की उन कोशिशों की सच्ची झलक है जिनके ज़रिए हम दुनिया भर में ट्विटर जैसे तमाम सार्वजनिक मंच पर होने वाली बातचीत के हर पक्ष को देखने, सुनने और समझने का प्रयास करते हैं.''
https://twitter.com/TwitterIndia/status/1064523210211831809
इसके बाद ट्विटर की लीगल हेड विजया गड़े ने भी ट्वीट करके माफ़ी मांगी.
उन्होंने कहा,
"मुझे इसका बहुत खेद है. ये हमारे विचारों को नहीं दर्शाता है. हमने उस तोहफ़े के साथ एक प्राइवेट फ़ोटो ली थी जोहमें दिया गया था. हमें ज़्यादा सतर्क रहना चाहिए था. ट्विटर सभी लोगों के लिए एक निष्पक्ष मंच बनने की पूरी कोशिश करता है और हम इस मामले मेंनाकामहुए हैं. हमें अपने भारतीय ग्राहकों को बेहतर सेवाएं देनी चाहिए."
इन सबके बावजूद मामला शांत नहीं हुआ और अब भी इस मुद्दे पर लगातार बहस छिड़ी हुई है.
ऐसे में सवाल ये है कि 'ब्राह्मणवादी पितृसत्ता' है क्या? क्या ये वाक़ई ब्राह्मणों के ख़िलाफ़ नफ़रत वाली कोई भावना या साज़िश है?
महिलावादी साहित्य और लेखों में 'ब्राह्मणवादी पितृसत्ता' शब्द का इस्तेमाल ये समझाने के लिए किया जाता है कि समाज में महिलाओं की स्थिति और जाति-व्यवस्था कैसे एक दूसरे से गुंथे हुए हैं. इस बात को साबित करने के लिए दलित और महिलावादी कार्यकर्ता कई मिसालें देते हैं कि किस तरह स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व को धर्म और धर्म की व्याख्या करने वाले ब्राह्मण स्वीकार नहीं करते. वे शास्त्रों के हवाले से बताते हैं कि लड़की को पहले पिता, फिर पति और बाद में बेटों के संरक्षण में रहना चाहिए.
मोटे तौर पर इसी व्यवस्था को वे ब्राह्मणवादी पितृसत्ता कहते हैं.
मशहूर फ़ेमिनिस्ट लेखिका उमा चक्रवर्ती अपने लेख 'Conceptualizing Brahmanical Patriarchy in India' में ऊंची जातियों में मौजूद तमाम मान्यताओं और परंपराओं के ज़रिए महिलाओं और उनकी यौनिकता (सेक्शुअलिटी) पर काबू करने की प्रथा को 'ब्राह्मणवादी पितृसत्ता' बताती हैं.
दलित चिंतक और लेखक कांचा इलैया का नज़रिया
'ब्राह्मणवादी पितृसत्ता' को समझने के लिए पहले 'पितृसत्ता' को समझना होगा.
पितृसत्ता वो सामाजिक व्यवस्था है जिसके तहत जीवन के हर क्षेत्र में पुरुषों का दबदबा क़ायम रहता है. फिर चाहे वो ख़ानदान का नाम उनके नाम पर चलना हो या सार्वजनिक जीवन में उनका वर्चस्व. वैसे तो पितृसत्ता तक़रीबन पूरी दुनिया पर हावी है लेकिन ब्राह्मणवादी पितृसत्ता भारतीय समाज की देन है.
ब्राह्मणवाद और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को समझने के लिए हमें भारत के इतिहास में झांकना होगा. वैदिक काल के बाद जब हिंदू धर्म में कट्टरता आई तो महिलाओं और शूद्रों (तथाकथित नीची जातियों) का दर्जा गिरा दिया गया.
महिलाओं और शूद्रों से लगभग एक जैसा बर्ताव किया जाने लगा. उन्हें 'अछूत' और कमतर माना जाने लगा, जिनका ज़िक्र मनुस्मृति जैसे प्राचीन धर्मग्रथों में किया गया है.
ये धारणाएं बनाने और इन्हें स्थापित करने वाले वो पुरुष थे जो ताक़तवर ब्राह्मण समुदाय से ताल्लुक रखते थे. यहीं से 'ब्राह्मणवादी पितृसत्ता' की शुरुआत हुई.
ब्राह्मण परिवारों में महिलाओं की स्थिति दलित परिवारों की महिलाओं से बेहतर नहीं कही जा सकती.
आज भी गांवों में ब्राह्मण और तथाकथित ऊंची जाति की औरतों के दोबारा शादी करने, पति से तलाक़ लेने और बाहर जाकर काम करने की इजाज़त नहीं है. महिलाओं की यौनिकता को काबू में करने की कोशिश भी ब्राह्मण और सवर्ण समुदाय में कहीं ज़्यादा है.
हालांकि ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि दलितों में पितृसत्ता है ही नहीं. लेकिन वो कहते हैं कि 'दलित-बहुजन पितृसत्ता' और 'ब्राह्मणवादी पितृसत्ता' में एक फ़र्क है.
'दलित-बहुजन पितृसत्ता' में भी महिलाओं को दूसरे दर्जे का इंसान ही माना जाता है लेकिन ये ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के मुकाबले थोड़ी लोकतांत्रिक है. वहीं, ब्राह्मणवादी पितृसत्ता औरतों पर पूरी तरह नियंत्रण करना चाहती है, फिर चाहे ये नियंत्रण उनके विचारों पर हो या शरीर पर.
अगर एक दलित महिला पति के हाथों पिटती है तो कम से कम वो चीख-चीखकर लोगों की भीड़ इकट्ठा कर सकती है और सबके सामने रो सकती है लेकिन एक ब्राह्मण महिला मार खाने के बाद भी चुपचाप कमरे के अंदर रोती है क्योंकि उसके बाहर जाकर रोने और चीखने से परिवार की तथाकथित इज़्ज़त पर आंच आने का ख़तरा होता है.
'यह ब्राह्मण का नहीं, विचारों का विरोध है'
महिला अधिकार कार्यकर्ता और कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य कविता कृष्णन (CPI-ML) कहती हैं कि 'ब्राह्मणवादी पितृसत्ता' एक विचारधारा है और इसके विरोध का मतलब ब्राह्मण समुदाय का विरोध नहीं है.
कविता कहती हैं, "ऐसा नहीं है कि ब्राह्मणवादी पितृसत्ता और ब्राह्मणवादी विचारधारा सिर्फ़ ब्राह्मण समुदाय में मौजूद है. ये दूसरी जातियों और दलितों में है. ब्राह्मणवादी मानसिकता दूसरी जातियों को ये अहसास दिलाती है कि तुम्हारे नीचे भी कोई है, तुम उसका उत्पीड़न कर सकते हो."
कविता के मुताबिक हमें शुरुआत इस सवाल से करनी चाहिए कि जब कोई ख़ुद को गर्व के साथ ब्राह्मण बताता है तो उसका मतलब क्या होता है.
कविता कहती हैं, "ब्राह्मण एक भारी-भरकम शब्द है और इस पर इतिहास का एक बोझ है. ब्राह्मण जाति का पिछले कई सालों से समाज पर एक वर्चस्व रहा है और इस वर्चस्व के शिंकजे में महिलाएं भी रही हैं.''
कविता कहती हैं, ''अब आप ये पूछ सकते हैं कि अगर कोई गर्व से दलित होने की बात कह सकता है तो गर्व से ब्राह्मण होने की क्यों नहीं. ये दोनों बातें एक जैसी इसलिए नहीं हैं क्योंकि दलित की पहचान पहले से ही दबाई जाती रही है जबकि ब्राह्मणों के साथ ऐसा नहीं है.''
कविता कृष्णन का मानना है कि हमें ये स्वीकार करना होगा कि ब्राह्मणवादी पितृसत्ता समाज में मौजूद है और इसे ख़त्म किया जाना ज़रूरी है.
उन्होंने कहा, "पितृसत्ता दुनिया के लगभग हर कोने में मौजूद है लेकिन उसकी वजहें अलग-अलग है. भारत में स्थापित पितृसत्ता की एक बड़ी वजह ब्राह्मणवाद है."
हालांकि ऐसा भी नहीं है कि सभी लोग ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की अवधारणा और उसकी मौजूदगी पर सहमत हैं.
'मुट्ठी भर लोगों की साज़िश'
आरएसएस के विचारक और बीजेपी सांसद प्रोफ़ेसर राकेश सिन्हा ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को 'यूरोपीय संस्कृति से प्रभावित' तबके की साज़िश बताते हैं.
वो कहते हैं, "भारतीय समाज हमेशा से प्रगतिशील रहा है. हम सबको साथ लेकर चलने और सबका सम्मान करने में यक़ीन रखते हैं. एक तरफ़ हम जाति-विहीन समाज का सपना देख रहे हैं और दूसरी तरफ़ ये लोग एक जाति विशेष को गलत तरीके से प्रस्तुत करके समाज को बांटने का काम कर रहे हैं."
राकेश सिन्हा का मानना है कि ट्विटर के सीईओ का इस पोस्टर के साथ तस्वीर खिंचाना उनकी कंपनी का भारतीयों के प्रति नकारात्मक रवैया दिखाता है.
उन्होंने कहा, "हर समाज में कुछ न कुछ खामियां होती हैं. भारतीय समाज खुद ही अपनी खामियां सुधारने की कोशिश कर रहा है लेकिन मुट्ठी भर लोग एक जाति विशेष को नकारात्मकता का विशेषण बनाकर समाज को संकीर्ण बनाने की कोशिश कर रहे हैं."
क्या कहती हैं पोस्टर डिज़ाइन करने वाली महिला
इस पोस्टर को डिज़ाइन करने वाली कलाकार और दलित अधिकारों के लिए काम करने वाली तेनमौली सुंदरराजन ने बीबीसी से कहा, "ये पोस्टर पिछले दो साल से सोशल मीडिया पर है लेकिन इस पर हंगामा तब हुआ जब ट्विटर के सीईओ इसे अपने हाथ में लेकर खड़े हो गए. इसका विरोध करने वाले शायद डरे हुए हैं कि सच्चाई ग्लोबल लेवल पर पहुंच जाएगी."
वहीं, जैक डोर्से को यह पोस्टर देने वाली संघपाली अरुणा का कहना है कि वो ख़ुद एक दलित हैं और उन्हें दलितों के साथ होने वाले भेदभाव का अंदाज़ा बख़ूबी है.
संघपाली कहती हैं, "भारत में पितृसत्ता की जड़ में ब्राह्मणवाद है और इसलिए पितृसत्ता को ख़त्म करने के लिए हमें ब्राह्मणवाद को ख़त्म करना होगा."
संघपाली कहती हैं कि ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के विरोध को ब्राह्मण समुदाय के विरोध के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए और न ही इस मामले का राजनीतीकरण किया जाना चाहिए.