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West Bengal:क्या है बंगाल की बाउल संस्कृति, अमित शाह के दौरे से हो रही है चर्चा

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नई दिल्लीकेंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह (Home Minister Amit Shah) के रविवार को बाउल कलाकार वासुदेव दास बाउल (Baul) के घर भोजन के कार्यक्रम को लेकर बंगाल की यह लोक संस्कृति एक बार फिर सुर्खियों में है। पश्चिम बंगाल की संस्कृति में बाउल परंपरा का रस कैसे घुला हुआ है, इसका अंदाजा लगाने के लिए सिर्फ इतना ही काफी है कि रवींद्र संगीत और रवींद्रनाथ टैगोर (Rabindranath Tagore) की कविताओं पर भी इसका खासा प्रभाव पड़ा है। यही वजह है कि भाजपा नेता अमित शाह पश्चिम बंगाल में राजनीतिक अभियान में निकले तो उन्होंने टैगौर को श्रद्धांजलि अर्पित करने के साथ ही श्यामाबाटी में बाउल संगीतकार (Baul Singer) के घर खाना खाने का भी कार्यक्रम बनाया।

बंगाल में हुआ बाउल संस्कृति का जन्म

बंगाल में हुआ बाउल संस्कृति का जन्म

बंगाल की धरती पर जन्मी बाउल संस्कृति का प्रभाव पश्चिम बंगाल (West Bangal), बांग्लादेश, त्रिपुरा से लेकर असम की बराक वैली तक है। इस संस्कृति पर मूलरूप से हिंदुत्व (Hindutva) के भक्ति आंदोलन और सूफीवाद की छाप पड़ी है। लेकिन, इसके बावजूद यह इनसे पूरी तरह से स्वतंत्र विचारों की जीवंत पद्धति है। इस संगीत से मुख्य रूप से समाज के आर्थिक और सामाजिक रूप से बेहद पिछड़े लोग जुड़े रहे हैं, और इनका संगीत रूढ़िवादी भक्ति परंपरा से अलग हटकर है। बाउल परंपार से जुड़ने वाले लोग आमतौर पर बहुत ही सामान्य और सहज प्रवृत्ति के लोग बताए जाते हैं।

'जो इंसान में ईश्वर को खोजे वही बाउल है'

'जो इंसान में ईश्वर को खोजे वही बाउल है'

कवि दुधू शाह के एक पद में बाउल संस्कृति (Baul Culture) और परंपरा का बहुत ही सटीक विश्लेषण है। उन्होंने एक पद में कहा है- 'जे खोजे मानुषे खोदा सेई तो बाउल'। मतलब, जो इंसान में ईश्वर को खोजे वही बाउल है। बाउल शब्द की शुरुआत बातुल या व्याकुल शब्द से हुई समझी जाती है। यानि जो ईश्वर के प्रेम में डूब चुका है, वह बाउल है। दूसरे अर्थ में बाउल विचारधारा का भी आध्यात्मिक लक्ष्य मुक्ति है। लेकिन, यह दिव्य स्थिति इंसान इधर-उधर भटककर नहीं, बल्कि खुद के अंदर ही प्राप्त कर सकता है।

एकतारा और डुबकी प्रमुख वाद्ययंत्र

एकतारा और डुबकी प्रमुख वाद्ययंत्र

एकतारा और डुबकी बाउल संगीतकारों के प्रमुख वाद्ययंत्र हैं और इसी के माध्यम से गांव-गांव जाकर संगीत सुनाने की इनकी संस्कृति रही है। इस संगीत के जरिए ही यह अपने विचारों और विश्वासों को करीब 600 वर्षों से दूसरों तक पहुंचाते चले आ रहे हैं। यह संगीत शुरू में गुरुओं के जरिए शिष्यों तक पहुंचे और फिर एक संगीतकार से दूसरे संगीतकार तक। मानतवादी दार्शनिक ब्रजेंद्रनाथ सील के मुताबिक बाउल संगीत की शुरुआत 14वीं शताब्दी से लेकर 15वीं शताब्दी की शुरुआत में हुई। 16वीं और 17वीं शताब्दी तक इसका काफी प्रचार-प्रसार हुआ।

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भक्ति आंदोलन और सूफीवाद का असर

भक्ति आंदोलन और सूफीवाद का असर

बाउल भक्ति संगीत पर भक्ति आंदोलन और सूफीवाद का गहरा असर देखा जा सकता है। हालांकि, यह संगीत कई सदियों तक समाज के दबे-कुचले वर्ग तक ही प्रमुख रूप से सीमित रहा था, लेकिन नोबल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ टैगोर (Rabindranath Tagore) को इस संस्कृति को बड़ी पहचान दिलाने और मध्यवर्गीय बंगाली समाज में पैठ दिलाने में बहुत बड़ी भूमिका मानी जाती है। टैगोर और उनके सहयोगी क्षितिमोहन को बाउल को उनका उचित सम्मान दिलाने में बहुत बड़ा रोल रहा है। टैगोर तो बाउल संगीत (Baul Song) से इतने प्रभावित थे कि उनकी रचनाओं पर इसका बहुत ही गहरा प्रभाव रहा है।

दुनियाभर के कई मशहूर संगीतकार ने बाउल गायन सीखा

दुनियाभर के कई मशहूर संगीतकार ने बाउल गायन सीखा

वैसे माना जाता है कि आधुनिक काल में बाउल संगीत को दुनिया में पहचान दिलाने का श्रेय पूर्णचंद्र दास को जाता है। इनके पिता खुद एक जाने-माने बाउल गायक थे। ये टैगोर के बेहद करीबी मित्र भी थे। 1942 में पूर्णदास पहली बार इस संगीत को राज्य से बाहर ले गए। उन्हें जयपुर के कांग्रेस अधिवेशन में बाउल गायन के लिए निमंत्रण दिया गया था। जानकारी के मुताबिक वही पहली बार इस संगीत को 1962 में देश से बाहर ले गए और रूस में विश्व युवा महोत्सव में इसकी प्रस्तुति दी। 1967 में राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें बाउल सम्राट का सम्मान दिया। धीरे-धीरे दुनियाभर के कई मशहूर संगीतकार इस बाउल संगीतकला (Baul Folk Song) की ओर आकर्षित होते चले गए। (कुछ तस्वीरें सौजन्य सोशल मीडिया)

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English summary
West Bengal:What is the Baul culture of Bengal, discussion is being held with Amit Shah's visit
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