उत्तर प्रदेश चुनाव: आज़म ख़ान के बिना रामपुर का पहला चुनाव, बीजेपी या सपा किसे होगा नफ़ा, किसे नुक़सान
आज़म ख़ान के जेल में होने से रामपुर विधानसभा चुनाव में बीजेपी इतिहास रचेगी या आज़म ख़ान और उनके बेटे अब्दुल्ला आज़म अपने कहे मुताबिक़ चुनाव लड़कर जीतेंगे.
उत्तर प्रदेश विधानसभा में रामपुर एक ऐसी सीट है जिस पर बीजेपी ने आज तक जीत दर्ज नहीं की है. साल 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में प्रचंड जीत के बाद और 2017 के विधानसभा चुनाव में मिली शानदार कामयाबी के बाद भी बीजेपी ये सीट जीतने में कामयाब नहीं हो सकी.
यही नहीं, इस सीट पर बीजेपी उम्मीदवार रहे शिव बहादुर सक्सेना 46 हज़ार से ज़्यादा वोटों के अंतर से हारे, और जीतने वाले उम्मीदवार का नाम था - आज़म ख़ान.
ये पहला मौका नहीं था जब समाजवादी पार्टी के कद्दावर नेता आज़म ख़ान ने रामपुर विधानसभा सीट पर इतने भारी अंतर से जीत दर्ज की हो.
मात्र 32 साल की उम्र में पहली बार रामपुर के विधायक बनने वाले आज़म ख़ान ने अपना राजनीतिक सफ़र जनता दल (सेकुलर) के साथ शुरू किया था.
इसके बाद लोक दल, जनता दल और जनता पार्टी से होते हुए साल 1993 में आज़म ख़ान ने मुलायम सिंह यादव के साथ मिलकर समाजवादी पार्टी बनाई.
इसके बाद आज़म ख़ान धीरे-धीरे उत्तर प्रदेश में एक मुसलमान नेता के रूप में स्थापित हुए. और ये पहला मौका है जब आज़म ख़ान का गढ़ कहे जाने वाले रामपुर में उनकी ग़ैर मौजूदगी में विधानसभा चुनाव संपन्न होंगे.
ज़मीन क़ब्ज़ाने से लेकर तमाम दूसरे मामलों में आज़म ख़ान पिछले कई महीनों से जेल में हैं. उनके साथ-साथ उनकी पत्नी एवं साल 2019 के उपचुनाव में रामपुर की विधायक बनने वाली तज़ीन फ़ातिमा और बेटे अब्दुल्ला आज़म के ख़िलाफ़ भी अलग-अलग मामलों में केस दर्ज हैं.
तज़ीन फ़ातिमा जहां दिसंबर 2020 में जेल से बाहर आई हैं तो वहीं अब्दुल्ला आज़म बीते रविवार जेल से बाहर आए हैं.
और जेल से बाहर आते ही उन्होंने एलान किया है कि वह चुनाव लड़कर जीत हासिल करेंगे.
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अब्दुल्ला आज़म को मिला टिकट
समाजवादी पार्टी ने रामपुर विधानसभा सीट से आज़म ख़ान को टिकट दिया है तो वहीं स्वार टांडा सीट से उनके बेटे अब्दुल्ला आज़म को टिकट दिया है.
अब देखना ये होगा कि आज़म ख़ान की ग़ैर-मौजूदगी में बीजेपी रामपुर सीट पर इतिहास रचने में कामयाब होगी या नहीं.
साल 2019 के उपचुनाव में बीजेपी के उम्मीदवार भारत भूषण ने शानदार ढंग से चुनाव लड़ते हुए हार के अंतर को 46 हज़ार से कम करके 7716 तक ला दिया था. हालांकि, इस चुनाव में बीजेपी ने भारत भूषण को टिकट नहीं दिया है.
लेकिन रामपुर के चुनाव से जुड़ा सबसे बड़ा सवाल ये है कि इस सीट और इसके आसपास की पांच विधानसभा सीटों पर आज़म ख़ान की ग़ैर-मौजूदगी का क्या असर होगा.
बीबीसी ने इस और इस जैसे तमाम दूसरे सवालों के जवाब तलाशने के लिए रामपुर के आम लोगों, उम्मीदवारों और इस क्षेत्र की राजनीति को समझने वाले लोगों से बात की है.
इस सिलसिले में सबसे पहले हमारी बात इस सीट पर बीजेपी के उम्मीदवार आकाश सक्सेना से हुई.
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'मुक़दमों को राजनीतिक बताना कोर्ट की अवमानना'
आकाश सक्सेना जिस परिवार से आते हैं, उसका राजनीति और बीजेपी से बहुत पुराना संबंध रहा है. उनके पिता शिव बहादुर सक्सेना को बीजेपी के सबसे शुरुआती सदस्यों में से एक माना जाता है.
स्वार टांडा सीट से चार बार विधायक रहे शिव बहादुर सक्सेना उत्तर प्रदेश की कल्याण सिंह सरकार में मंत्री भी रहे हैं और अब बीजेपी ने उनके बेटे आकाश सक्सेना को रामपुर सीट पर उम्मीदवार बनाया है.
ये वही सीट है जिस पर आज़म ख़ान ने अब तक नौ बार जीत दर्ज की है. लेकिन चुनौती इतनी विशाल होने के बाद भी आकाश सक्सेना अपनी जीत के प्रति आश्वस्त नज़र आते हैं.
बीबीसी के साथ बातचीत में वह कहते हैं, "मैं इस बात को लेकर पूरी तरह आश्वस्त हूं कि जिस तरह मैंने अदालत में इस लड़ाई को जीता है, ठीक वैसे ही मैं रामपुर विधानसभा सीट के राजनीतिक मैदान की ये जंग जीतूंगा."
बता दें कि आकाश सक्सेना वही शख़्स हैं जो आज़म ख़ान और अब्दुल्ला आज़म के ख़िलाफ़ कई मामलों में शिकायतकर्ता हैं.
अब्दुल्ला आज़म पर दो जन्म प्रमाणपत्र और दो पैन कार्ड रखने का मामला है. इसमें से एक जन्म प्रमाण पत्र में जन्मतिथि 1 जनवरी 1993 और दूसरे जन्म प्रमाणपत्र में जन्मतिथि 30 सितंबर 1990 है.
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इस मामले में ही स्वार टांडा विधानसभा सीट से अब्दुल्ला आज़म की सदस्यता रद्द की थी.
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अखिलेश ने किया बचाव
लेकिन समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने हाल ही में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में दावा किया है कि अब्दुल्ला आज़म को फंसाने में कांग्रेस और बीजेपी दोनों शामिल थे.
इस पर आकाश सक्सेना कहते हैं, "पूरा देश जानता है कि आज़म ख़ान ने अपने बेटे को विधायक बनाने के लिए दो जन्म प्रमाणपत्र बनवाए. पहला जन्म प्रमाण पत्र रामपुर से बनवाया और दूसरा लखनऊ से बनवाया.
अपनी सफ़ाई में सिर्फ़ वह एक लाइन कहते हैं कि मुझसे ये ग़लती से हो गई. लेकिन हिंदुस्तान के संविधान में ग़लती की कोई जगह नहीं है. सिर्फ़ इतना भर कहने से कि ये ग़लती से हो गई. इससे किसी का जुर्म माफ़ नहीं किया जा सकता.
दोनों जन्म प्रमाण पत्रों की छह महीने जांच हुई. उसे जांच में सही पाया गया, मुकदमा लिखा गया. उस पर कार्रवाई हुई. और उन दस्तावेज़ों के आधार पर इनकी विधायकी गई. हिंदुस्तान में सिर्फ़ 15 विधायक ऐसे हैं जिनकी विधायकी दस्तावेज़ी सबूतों के आधार पर गई है. इनमें से 15वें विधायक अब्दुल्ला आज़म हैं.
दो जन्म प्रमाण पत्र, दो पैन कार्ड और दो पासपोर्ट...क्या ये ग़लती से हो गया. मैं सिर्फ़ ये जानना चाहता हूं कि ये किस आधार पर कहा जा रहा है कि ये राजनीति से प्रेरित है. आज़म ख़ान तो ख़ुद एलएलएम हैं. क़ानून के बारे में उन्हें मुझसे बहुत बेहतर जानकारी है. हर चीज़ को जानने के बाद भी सिर्फ़ अपने फ़ायदे के लिए जिस तरीके के काम किए गए हैं, उससे ये बिल्कुल साफ़ है कि ये चीज़ें राजनीतिक नहीं हैं."
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क्या कहते हैं अब्दुल्ला आज़म?
चुनावी रंग में सराबोर रामपुर में फ़िलहाल झंडे, बैनर और होर्डिंग तो कम नज़र आए लेकिन आज़म ख़ान के दफ़्तर के बाहर समर्थकों की भारी भीड़ नज़र आई जो बेसब्री से अब्दुल्ला आज़म का इंतज़ार कर रहे थे.
ये पहला मौका था जब जेल से बाहर आने के बाद अब्दुल्ला आज़म अपने समर्थकों से मुख़ातिब हो रहे थे. ऐसे में लोगों का उत्साह अपने चरम पर था.
हालांकि, आज़म ख़ान की टीम कोविड प्रोटोकॉल का ध्यान रखने की कोशिश करती दिख रही थी.
इसी दौरान हमारी मुलाक़ात अब्दुल्ला आज़म से हुई जिन्होंने बताया कि उनके ख़िलाफ़ लगाए गए आरोप बेबुनियाद हैं.
वो कहते हैं, "मेरे ऊपर जो सबसे बड़ा आरोप लगा, वो ये है कि मैंने ग़लत उम्र बताकर चुनाव लड़ा. मैं बहुत ज़्यादा ज़िक़्र उस मुक़दमे का इसलिए नहीं करूंगा क्योंकि मामला अभी सर्वोच्च अदालत में विचाराधीन है.
सर्वोच्च न्यायालय ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के चुनाव कराने वाले फ़ैसले पर स्टे दे दिया था और कहा था हम इस मुक़दमे को सुनेंगे. मुझे सर्वोच्च न्यायालय पर भरोसा है कि वह मेरे साथ इंसाफ़ करेगी.
लेकिन मैं ये बात पूरी ज़िम्मेदारी से कहूंगा कि न मेरे पास कोई ग़लत जन्म प्रमाणपत्र था और न है, जो उम्र सही थी, वही सही उम्र है और सही जन्मतिथि 30 सितंबर 1990 है."
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ये बात कहने के साथ ही अब्दुल्ला आज़म अपनी बेगुनाही का आधार स्पष्ट करने की कोशिश करते हैं.
वे कहते हैं, "आज़म ख़ान साहब का जो क़द है और अखिलेश यादव जी से जैसे मेरे पारिवारिक संबंध हैं, क्या ये संभव था कि मुझे 2017 में टिकट मिलता और 2022 में न मिलता. ख़ुद सोचिए कि मैं ये चीटिंग या फ़ोर्जरी क्यों करता. मेरा क्या उद्देश्य था. या तो ये होता कि मैंने कभी विधायकी या सांसदी देखी नहीं होती, मेरी आँख खुली तब भी मेरे वालिद बड़े ओहदे पर थे. अपनी वालिदा को भी एमपी देखा. अपने वालिद को भी एमपी देखा. विधायक देखा, मंत्री देखा, नेता प्रतिपक्ष देखा...तो ऐसा नहीं है कि मैंने कुछ देखा नहीं.
और जिस सीट से मैं चुनाव लड़ा था, वहां से समाजवादी पार्टी कभी चुनाव नहीं जीती. अगर मुझे विधायक बनने का शौक़ होता तो मैं उस सीट से नहीं लड़ता जिससे मेरे पिता नौ बार विधायक रहे?
यही नहीं, मैं अपने बड़े भाई की तरह, राष्ट्रीय अध्यक्ष जी से कह देता कि आप मुझे कहीं ऐडजस्ट कर दें तो क्या वह ऐसा नहीं करते? वह सबसे पहले ऐसा करते. और मैं जबकि ये जानता हूं कि मेरे ऊपर सारी नज़रें होंगी...मैं एमटेक हूं स्ट्रक्चरल इंजीनियरिंग से. पढ़ा-लिखा हूं. मेरी माँ पीएचडी हैं. मेरे वालिद एलएलएम के फ़ाइनल सेमेस्टर में इमरजेंसी में गिरफ़्तार हो गए थे. ...आपको लगता है कि मुझे ये फ़ोर्जरी करने की ज़रूरत पड़ती. ये एक करेक्शन था, ग़लती थी जिसे मैंने ठीक करवाया और उसके सारे सबूत मौजूद हैं."
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रामपुर का चुनावी गणित
लेकिन अगर अदालती मुक़दमों को एक तरफ़ रखकर इस इलाके के सामाजिक समीकरणों, आज़म ख़ान की चुनावी मैदान में अनुपस्थिति और अब्दुल्ला आज़म के कम अनुभव को ध्यान में रखा जाए तो बीजेपी और समाजवादी पार्टी की टक्कर काफ़ी दिलचस्प हो जाती है.
रामपुर सीट की आबादी में मुस्लिम मतदाताओं की संख्या लगभग 60 फ़ीसदी है. वहीं, हिंदू मतदाताओं की संख्या लगभग 40 फ़ीसदी है. यहां दलित, वैश्य, कायस्थ और ब्राह्मण मतदाता भी मौजूद हैं. लेकिन इसके बाद भी इस सीट पर हमेशा मुसलमान उम्मीदवार ही जीतते आए हैं.
यही नहीं, बीते 40 सालों में सिर्फ़ एक ऐसा मौका रहा है जब 1996 के चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार अफ़रोज़ अली ख़ान ने आज़म ख़ान को मात दी.
ऐसे में सवाल उठता है कि आज़म ख़ान की चुनावी मैदान से ग़ैर-मौजूदगी इस चुनावी गणित को कैसे बदलेगी.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के राजनीतिक समीकरणों को गहराई से समझने वाले वरिष्ठ पत्रकार हरवीर सिंह मानते हैं कि इस बात की संभावनाएं बहुत कम हैं कि बीजेपी इस सीट पर समाजवादी पार्टी को नुक़सान पहुंचा पाए.
वह कहते हैं, "सबसे बड़ी बात ये है कि ये 2017 का चुनाव नहीं है. पिछली बार सपा को लेकर भी लोगों में नाराज़गी थी. ख़ासतौर पर सेंटीमेंट आज़म ख़ान के भी ख़िलाफ़ था क्योंकि उनके कामकाज के तरीक़े को लेकर लोगों में नाराज़गी थी.
और रामपुर एक मुस्लिम बहुल सीट है. ऐसे में इसकी संभावना काफ़ी कम है कि बीजेपी कुछ नुक़सान पहुंचा पाएगी. उनके बेटे को भी ज़मानत मिल गई है. इसके साथ ही उनको लेकर जो भाव है, ऐसे में वह ये सीट निकाल ले जाएंगे."
हरवीर सिंह मानते हैं कि बीजेपी जितने प्रभावी ढंग से आज़म ख़ान के बाहर रहते हुए उन पर सवाल उठा सकती थी, उतने प्रभावी ढंग से जेल में रहते हुए ऐसा करना संभव नहीं है.
वो कहते हैं, "बीजेपी 2017 के चुनाव में आज़म ख़ान का हिंदुओं के ख़िलाफ़ जितना सांप्रदायिक दानवीकरण कर सकती थी, वो अब नहीं कर पाएगी क्योंकि वो काफ़ी वक़्त से जेल में हैं और बेचारगी की स्थिति में हैं. चूंकि वो जेल में हैं. बीमार हैं और लोगों के सामने उनका दबंग वाला चेहरा नहीं हैं. ऐसे में बीजेपी के पास आज़म ख़ान के ख़िलाफ़ प्रचार करने की गुंजाइश ज़्यादा नहीं है."
उत्तर प्रदेश की राजनीति को समझने वाले एक अन्य वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्र मानते हैं कि जेल में रहने की वजह से आज़म ख़ान के प्रति लोगों में एक सहानुभूति का भाव पैदा हुआ होगा.
वो कहते हैं, "ये बात सही है कि लोगों में आज़म ख़ान के प्रति एक सहानुभूति है. लेकिन ये सहानुभूति क्या सिर्फ़ मुसलमानों में है या हिंदुओं में भी है. ये देखने की बात है. और ये भी कहना होगा कि लोगों में आकाश सक्सेना के प्रति भी एक सहानुभूति है. वह लगातार लड़ते रहे हैं और रामपुर में रहकर आज़म ख़ान से लड़ने की हिम्मत करने वाला कोई आदमी अब तक मौजूद नहीं था.
ऐसे में ये पूरा का पूरा चुनाव आज़म ख़ान के अब तक के काम पर या तो एक मुहर होगी या उनके लिए एक संदेश होगा जो बताएगा उन्होंने जो किया वह ठीक नहीं किया."
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क्या कहते हैं रामपुर के आम लोग?
आज़म ख़ान की चुनावी मैदान से ग़ैर-मौजूदगी, अब्दुल्ला आज़म के सामने खड़ी चुनौतियों और बीजेपी के दावों पर रामपुर के आम लोगों ने भी अपनी राय रखी.
इनमें से कई लोगों ने कैमरे पर आने और नाम बताने से इनकार कर दिया.
ऐसे ही एक शख़्स बताते हैं कि 'आज़म ख़ान और उनके परिवार को उनके बड़े बोलों की सज़ा मिल रही है. नूरमहल को लेकर उन्होंने जो बयान दिया उसके बाद देखिए..नूरमहल वहीं का वहीं खड़ा है. लेकिन इनका पूरा परिवार जेल चला गया. कोई अच्छी बात है ये? लोगों को बढ़-चढ़कर बयान नहीं देना चाहिए."
लेकिन इसके साथ ही यह शख़्स उम्मीद करते हैं कि इससे 'आज़म ख़ान को सबक मिला होगा.'
लेकिन रामपुर के ही एक अन्य शख़्स मंसूर ख़ान मोहम्मद आज़म ख़ान के ख़िलाफ़ लगे मुक़दमों को फ़र्ज़ी बताते हैं.
पेशे से ड्राइवर मंसूर ख़ान कहते हैं, "उन पर झूठे मुक़दमे लगाए गए हैं. सारे मुक़दमे झूठे हैं. एक मुक़दमे के अलावा. उन्होंने उम्र का जो 20 या 22 साल वाला इल्ज़ाम लगाया है. वो सही है. लेकिन इसके अलावा सभी केस निहायत ही झूठे हैं.
मुर्गी चोरी, बकरी चोरी और न जाने कौन-कौन सी चोरी के आरोप उन पर लगाए गए हैं. उन पर बेशुमार मुक़दमे लगा दिए गए हैं."
इसी बीच दीपक नाम के एक शख़्स कहते हैं, "ऐसा नहीं है कि आज़म ख़ान के जेल में रहने से उनके अभियान पर असर नहीं पड़ेगा. जब एक व्यक्ति बाहर है और एक व्यक्ति अंदर है तो जो अंदर होता है, उस पर दबाव तो पड़ता ही है."
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