महिला खिलाड़ियों के तन दिखने और ना दिखने, दोनों ही पर तिलमिलाहट क्यों?
टोक्यो ओलंपिक में महिला जिमनास्टों के 'लियोटार्ड' या 'यूनीटार्ड' पहनने पर हुआ विवाद क्या मर्दवादी मानसिकता को बेपर्दा करने वाला है.
टोक्यो ओलंपिक में भारत के लिए पदक की दावेदार पहलवान विनेश फोगाट का सबसे पहला 'दंगल' अपनी सहूलियत के कपड़े पहनने का था. टी-शर्ट और ट्रैक-पैंट में कुश्ती करना बेहतर था, लेकिन ऐसे कपड़ों में उनके शरीर के उभार दिखने से लोगों को परेशानी थी.
हरियाणा में पली-बढ़ी विनेश जब सलवार-कुर्ते की जगह चुस्त पोशाक पहनकर अभ्यास करती तो कई उंगलियां उठतीं कि लड़की को ऐसे कपड़े पहनकर घर से निकलने कैसे दिया गया.
यानी लड़की अगर खेल खेले, तो तन ढका रहे और वो दंगल के अखाड़े में पारंपरिक लड़की बनी रहे, अगर कुछ लोगों का बस चलता तो वे कुश्ती के मुकाबले में भी घूँघट की माँग करते.
विनेश की बात हरियाणा के गाँव की है और पंद्रह साल पुरानी है, लेकिन दुनिया के हर कोने में, हर दौर में महिला खिलाड़ियों की पोशाक पर चर्चा कई बार उनकी मेहनत और लगन पर हावी हो जाती है.
टोक्यो ओलंपिक में भी अपनी सहूलियत के कपड़े पहनने का एक दंगल चल रहा है. जर्मनी की महिला जिमनास्टिक टीम ने जांघों से पहले खत्म होने वाली पोशाक 'लियोटार्ड' की जगह पूरा बदन ढँकने वाली 'यूनीटार्ड' पहनने का फ़ैसला किया.
उनका तर्क ये है कि ढँके बदन में उन्हें ज़्यादा सहूलियत है और मर्दों की तरह उन्हें भी इसकी आज़ादी मिलनी चाहिए. अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों में महिला खिलाड़ियों की पोशाक अक्सर ऊंची, छोटी और तंग रहती है.
वहीं मर्दों की पोशाक के नियमों में शरीर को आकर्षक दिखाने वाले कोई कायदे नहीं हैं, सारा ध्यान खेलने की सहूलियत पर होता है. अभी तक ऐसा विवाद शायद नहीं हुआ, लेकिन अगर कोई महिला खिलाड़ी स्कर्ट की जगह, पुरुषों की तरह लंबे शॉर्ट्स में टेनिस खेलने आएगी तो न जाने क्या प्रतिक्रिया होगी?
खेल के नियम बनानेवालों और बाज़ार ने महिलाओं के शरीर को उनके खेल जितनी ही अहमियत जो दे रखी है. यानी लड़की खेल खेले, तो चाहे जितनी दौड़-भाग हो पर वो आकर्षक बनी रहे.
मर्दाना दुनिया में आकर्षक औरतें
खेल की दुनिया को हमेशा मर्दाना माना गया है. औरतों की कोमल समझी जाने वाली प्रवृति से अलग, शारीरिक दम-खम बढ़ाने के लिए पसीने में भीगी, कठोर दिनचर्या वाली ज़िंदगी. लेकिन विडंबना ये कि उसमें भी औरत से सुंदरता और शारीरिक आकर्षण बनाए रखने की उम्मीद कायम रहती है. और हद तो ये है कि अगर वो आकर्षक बनी रहे तो खेल से ध्यान हटने का आरोप भी सबसे पहले उसी पर लगता है.
विनेश की बड़ी बहन गीता ने कुछ साल पहले एक इंटरव्यू में कहा था कि उनके करियर के शुरुआती समय में लोग घात लगाए रहते थे कि लड़की से कोई चूक हो जाए या कोई लड़का दोस्त बन जाए तो कैसे इनके मां-बाप को शर्मिंदा करके ये जता दिया जाए कि इन्हें छूट देना ग़लत था. यानी लड़की खेल खेले, और आकर्षक हो तो बदचलन भी हो सकती है.
https://twitter.com/M_Raj03/status/905307773012815873
बीमारी जाती नहीं
भारतीय महिला क्रिकेट टीम की कप्तान मिताली राज ने साल 2017 में जब बिना बाज़ू की टॉप में अपनी एक सेल्फ़ी ट्विटर पर पोस्ट की तो उन पर ताने कसने वालों की कमी नहीं थी.
उन्हें ट्विटर पर तो ट्रोल किया ही गया, मीडिया में उनके बारे में छपे लेख की हेडलाइंस ने भी 'पॉर्न स्टार', 'इनडीसेंट' और 'एक्सप्लोसिव' जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया.
'मिताली राज ट्रोल्ड: आर यू अ पॉर्न स्टार? ट्विटर शेम्स हर, क्वेश्चन्स ड्रेस सेन्स'
'इंडियन कैप्टन मिताली राज ट्रोल्ड ऑन ट्विटर फ़ॉर हर इनडीसेन्ट ड्रेसिंग'
'मिताली राज वेयर्स एक्सप्लोसिव ड्रेस एंड गेट्स ट्रोल्ड'
खेल की मर्दाना दुनिया में 'मॉडर्न' और 'फ़ॉर्वर्ड' होने के ऐसे तमगे महिलाओं पर ही लगाए जाते हैं. उन्हीं के कपड़ों पर सवाल उठते हैं. चाहे वो मैदान पर हों या बाहर.
18 साल की उम्र में टेनिस की दुनिया में भारत का नाम करने वाली सानिया मिर्ज़ा की पोशाक भी मर्यादाओं के उल्लंघन के आरोप के घेरे में आई थी.
साल 2005 में सुन्नी उलेमा बोर्ड के एक मौलाना ने उनपर 'अभद्र' कपड़े पहनकर खेलने का आरोप लगाया जिससे उनके मुताबिक 'नौजवान लड़कियों पर बुरा असर पड़ रहा था.'
उन्होंने फतवा जारी करके कहा था कि इस्लाम औरतों को छोटी निकर, स्कर्ट और बिना बाज़ू के कपड़े पहनने की इजाज़त नहीं देता और सानिया जैसे कपड़े पहनती हैं वो शरीर के बड़े हिस्सों को ढँकती नहीं, जिसके बाद कल्पना करने के लिए कुछ नहीं बचता.
सानिया ने फ़तवे पर टिप्पणी देने से मना कर दिया और बस इतना कहा कि उनके कपड़ों पर इतना विवाद हो, ये उन्हें परेशान करता है.
परेशान तो करेगा ही. कभी धर्म तो कभी समाज और कभी बाज़ार, महिला खिलाड़ी के शरीर से नज़र हटती ही नहीं है.
'सेक्सिज़म' और हिंसा का संबंध
मर्दों की दुनिया में, खेल के कपड़ों में, अक्सर महिला खिलाड़ियों को 'अवेलेबल' भी मान लिया जाता है. सुरक्षित माने जाने वाले ट्रेनिंग सेंटर्स और कोच के हाथों यौन उत्पीड़न के किस्से आम हैं, लेकिन आवाज़ उठाना मुश्किल है और पहले से ही दुर्लभ मौकों को खोने का दबाव ज़्यादा.
महिला खिलाड़ियों को उनके आकर्षण के चश्मे से देखने और इस हिंसा का गहरा ताल्लुक है.
जर्मन जिमनास्टिक्स टीम ने टोक्यो ओलंपिक से पहले, इसी साल अप्रैल में यूरोपियन आर्टिस्टिक जिमनास्टिक्स चैम्पियनशिप में पहली बार 'यूनीटार्ड' पहनकर अपना विरोध दर्ज किया था.
जर्मन फ़ेडरेशन ने कहा था कि जिमनास्टिक्स में महिलाओं की 'सेक्सुअलाइज़ेशन' और यौन हिंसा रोकने के लिए ये क़दम ज़रूरी है.
जिमनास्टिक्स की दुनिया में हिंसा का ताज़ा उदाहरण अमेरिकी महिला टीम के डॉक्टर रहे लैरी नासर का है, जिन पर 150 महिला खिलाड़ियों ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया और जिन्हें अब 175 साल की जेल की सज़ा हो गई है. लेकिन 'सेक्सिस्ट' सोच और संस्कृति में बदलाव लाना आसान नहीं है.
पिछले सप्ताह नार्वे की महिला बीच-हैंडबॉल टीम ने भी जब अपनी सहूलियत को आगे रखते हुए बिकिनी शॉर्ट्स की जगह निकर पहनने का फैसला किया तो उन्हें पोशाक के नियम के उल्लंघन के लिए हर्जाना देना पड़ा, लेकिन महिला खिलाड़ी अकेली भी नहीं. अमेरिकी पॉप स्टार 'पिंक' ने इस हर्जाने का ख़र्च उठाने की पेशकश की है.
अपने ट्वीट में उन्होंने कहा कि हर्जाना तो ऐसे 'सेक्सिस्ट' नियम बनाने वाली फ़ेडरेशन पर लगाया जाना चाहिए, "मुझे नॉर्वे की महिला टीम पर गर्व है, बढ़े चलो."
वैसे इस 'बढ़े चलो' के नारे को जीने में अभी बहुत सारे दंगल बाकी हैं.
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