वो लड़ाई जिसमें अमरीका इराक़ के साथ था और इसराइल ईरान की तरफ़
इराक़ पर इस युद्ध का जो असर हुआ था उसी की वजह से सद्दाम हुसैन ने 1990 में कुवैत पर हमला करने का फ़ैसला किया.
बस उसी मोड़ पर उन क्षेत्रीय और पश्चिमी देशों ने इराक़ के ख़िलाफ़ मोर्चा बना लिया जो ईरान के साथ उसकी लड़ाई में उसके साथ थे.
ईरान के लिए भी युद्ध के नतीजे कुछ कम भयावह नहीं थे. इस युद्ध से भारी मानवीय क़ीमत तो चुकानी पड़ी ही, इसका व्यापक आर्थिक नुक़सान भी हुआ. युद्ध की वजह से ही बहुत से ईरानियों ने धार्मिक नेताओं की क्षमता पर सवाल उठाने शुरू कर दिए थे.
इराक़ ने 22 सितंबर, 1980 को ईरान पर हमला किया था, जिससे दोनों देशों के बीच शुरू हुई दुश्मनी आठ साल तक चली और इस दुश्मनी ने न सिर्फ़ मध्य पूर्व क्षेत्र को अस्थिर किया बल्कि दोनों देशों का भारी नुक़सान हुआ.
आख़िरकार ये जंग 20 अगस्त, 1988 को ख़त्म हुई. उस वक़्त इराक़ के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन ने हमले का कारण शत अल अरब नहर पर विवाद को बताया था, जो दोनों देशों के बीच सीमा भी निर्धारित करती थी.
लेकिन संघर्ष का असल मुद्दा क्षेत्रीय संघर्ष था. सद्दाम हुसैन को दरअसल ईरान में हुई इस्लामी क्रांति से ख़तरा महसूस हो रहा था. दरअसल 1979 में हुई इस्लामी क्रांति के ज़रिए ही आयतुल्लाह ख़ुमैनी सत्ता में आए थे.
ख़ुमैनी सद्दाम हुसैन को एक ऐसा सुन्नी क्रूर शासक मानते थे, जो अपने देश के शिया समुदाय का दमन कर रहा था. आयतुल्लाह ख़ुमैनी ने सद्दाम हुसैन को सत्ता से हटाने की अपनी इच्छा को भी नहीं छुपाया.
इसलिए सद्दाम हुसैन के लिए युद्ध का मतलब था- इससे पहले कि आयतुल्लाह ख़ुमैनी की सत्ता ख़ुद उनके लिए ख़तरा बन जाए, ख़ुमैनी की सत्ता को पहले ही उखाड़ फेंकना.
इसराइल की भूमिका
आयतुल्लाह ख़ुमैनी की इस्लामी हुकूमत भले ही यहूदियों का विरोध करती थी, लेकिन इस लड़ाई में इसराइल ने ईरान का साथ दिया था. ईरान और इराक़ के बीच जैसे-जैसे लड़ाई तेज़ हुई, इसराइल ने बगदाद के पास एक न्यूक्लियर रिएक्टर पर 7 जून, 1981 को बमबारी कर दी.
सत्तर के दशक में इराक़ ने फ्रांस से एक ऐसा परमाणु रिएक्टर ख़रीदने की कोशिश की थी जिससे मिलते-जुलते एक रिएक्टर का इस्तेमाल फ्रांस ने अपने हथियार कार्यक्रम में किया था. फ्रांस ने इससे इनकार कर दिया लेकिन बगदाद के पास तुवाइथा न्यूक्लियर सेंटर में 40 मेगावॉट का एक रिसर्च रिएक्टर बनाने में मदद देने पर रज़ामंदी दी थी.
इसराइल का कहना था कि इराक़ परमाणु हथियार विकसित कर रहा है और वो उस पर कभी भी हमला कर सकता है. इस आशंका को देखते हुए तत्कालीन इसराइली प्रधानमंत्री मेनाकेम बेजिन ने ओसिरक रिएक्टर पर बमबारी करने के लिए कई एफ़-16 विमान भेज दिए.
बमबारी शुरू होने के कुछ ही लम्हों के भीतर ये सेंटर मलबे में बदल गया. उस वक्त इसराइल की सेना ने ये कहा था कि बमबारी से इराक़ का परमाणु जिन वापस बोतल में बंद हो गया. लेकिन इस हमले की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आलोचना हुई. यहां तक कि अमरीका ने भी इसराइल की आलोचना वाले संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव का समर्थन किया था.
युद्ध विराम की पेशकश
सद्दाम हुसैन का मानना था कि ईरान उस वक़्त अस्थिरता के दौर से गुज़र रहा था और इराक़ी सेनाओं को जीत हासिल करने में ज़्यादा देर नहीं लगेगी. लेकिन वस्तुस्थिति का यह अंदाज़ा लगाना दरअसल एक ग़लती थी.
साल 1982 तक आते-आते ईरानी सेनाओं ने उस क्षेत्र पर फिर से अपने क़ब्ज़े में ले लिया था जिसे इराक़ी सेनाओं ने क़ब्ज़ा लिया था. इतना ही नहीं ईरानी सेनाएं इराक़ के काफ़ी अंदर तक घुस गई थीं.
तब इराक़ ने युद्ध विराम की पेशकश की थी जिसे ईरान ने नामंज़ूर कर दिया था. इस तरह युद्ध शुरू तो इराक़ ने किया था लेकिन इसे लंबा खींचने का फ़ैसला ईरानी नेता आयतुल्लाह ख़ुमैनी ने किया.
इस वक़्त तक आते-आते यह युद्ध एक तरह से नाक की लड़ाई में तब्दील हो चुका था और दोनों ही पक्ष इस युद्ध की मानवीय क़ीमत की अनदेखी कर रहे थे.
ख़ुमैनी ने हज़ारों ईरानी युवकों को 'मानव हमलों' की रणनीति के तहत लड़ाई के मैदान में भेजा जो मारे भी गए. सद्दाम हुसैन ने ईरानियों के ख़िलाफ़ रसायनिक हथियारों का प्रयोग किया.
रासायनिक हथियारों से लड़ाई
संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञों ने इस बात की पुष्टि की थी कि इराक़ ने ईरान के ख़िलाफ़ परमाणु हथियारों का इस्तेमाल करके जिनेवा कन्वेंशन का उल्लंघन किया है.
ये बात ज़ाहिर हो चुकी थी कि इराक़ 1983 से मस्टर्ड गैस और साल 1985 से नर्व गैस ताबुन का इस्तेमाल कर रहा है. ताबुन वो चीज़ थी जो मिनटों में कई लोगों की जान ले सकती थी.
साल 1988 में इराक़ ने अपनी ही ज़मीन पर मुल्क के उत्तरी इलाक़े में कुर्दों के ख़िलाफ़ रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल किया. इस घटना के बाद कुर्द छापामार लड़ाके ईरान की हमलावर फौज के साथ जुड़ने लगे थे.
16 मार्च, 1988 को इराक़ ने कुर्द बहुल शहर हलब्ज़ा पर मस्टर्ड गैस सरीन और ताबुन वाले रासायनिक हथियारों से बमबारी की. इस हमले में हज़ारों आम लोग मारे गए.
इराक़ के अनफाल हमले में भी रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल किया गया था. कहा जाता है कि इस हमले में कुर्द बहुल इलाकों से 50,000 से 100,000 लोग या तो मारे गए थे या फिर ग़ायब हो गए. लड़ाई में रासायनिक हथियारों के इस्तेमाल के कारण सुरक्षा परिषद ने इराक़ की आलोचना 1986 में की थी लेकिन इसके बावजूद अमरीका और दूसरे पश्चिमी देश युद्ध खत्म होने तक बगदाद का साथ देते रहे.
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पश्चिमी ताक़तों की भूमिका
जब तक जंग चलती रही, इराक़ से पश्चिमी देशों के रिश्ते परवान चढ़ते रहे. पश्चिमी देशों को ये डर था कि आयतुल्लाह ख़ुमैनी के इस्लामी कट्टरपंथ का जिस तरह से उभार हो रहा है, उसके मद्देनज़र ईरान को रोका जाना ज़रूरी था.
वो 1982 का साल था जब अमरीका ने इराक़ को चरमपंथ का समर्थन करने वाले देशों की सूची से हटा दिया था. इसके ठीक दो साल बाद अमरीका ने इराक़ के साथ कूटनीतिक रिश्ते बहाल कर लिए.
साल 1967 के अरब-इसराइल संघर्ष के समय अमरीका ने इराक़ से अपने कूटनीतिक रिश्ते तोड़ लिए थे. हालांकि इराक़ को हथियारों की सबसे बड़ी सप्लाई उसके पुराने सहयोगी दोस्त रूस से मिला करती थी.
लेकिन ब्रिटेन, फ्रांस और अमरीका जैसी दूसरी पश्चिमी ताक़तें भी इराक़ को हथियारों की मदद मुहैया कराने लगी थीं. सद्दाम हुसैन की हुकूमत के साथ अमरीका तो इंटेलीजेंस शेयर भी कर रहा था.
लेकिन तभी ईरान-कोंट्रा स्कैंडल सामने आया और दुनिया को ये पता चला कि अमरीका चुपके से ईरान को भी हथियार दे रहा था, इस उम्मीद से कि लेबनान में बंधक बनाकर रखे गए अमरीकियों को रिहा कराया जा सके. इस मसले पर इराक़ और अमरीका के बीच काफ़ी विवाद हुआ था.
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कुवैत की अपील
इराक़-ईरान युद्ध के दौरान शहरों की लड़ाई में दोनों देशों की सेनाओं ने एक दूसरे के प्रमुख शहरों पर बमबारी की जिसमें आम लोग भी प्रभावित हुए.
टैंकरों की लड़ाई में दोनों देशों ने खाड़ी में एक दूसरे के तेल टैंकरों और व्यापारी जहाज़ों को निशाना बनाया. इसका मक़सद व्यापारिक हितों को तहस-नहस करना था. दरअसल टैंकर युद्ध ने दोनों देशों के संघर्ष का अंतरराष्ट्रीयकरण कर दिया.
कुवैत ने अपने जहाज़ों पर ईरान के लगातार हमलों के बाद अंतरराष्ट्रीय जगत से सुरक्षा की अपील की और तब अमरीका और सोवियत संघ ने हस्तक्षेप किया. इस वक़्त तक पासा ईरान के ख़िलाफ़ पलट चुका था.
ईरानी अधिकारियों ने जब देखा कि उनका देश न सिर्फ़ भारी क़ीमत चुका रहा है बल्कि अलग-थलग भी पड़ने लगा है तो उन्होंने ख़ुमैनी से युद्ध विराम की पेशकश को स्वीकार करने की अपील की.
जब जुलाई 1988 में आख़िरकार युद्ध विराम हो गया तब आयतुल्लाह ख़ुमैनी ने कहा था कि यह उनके लिए ज़हर का प्याला पीने जैसा था.
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युद्ध की क़ीमत
आठ साल तक चले इस युद्ध का ख़ामियाज़ा बहुत बड़ा था. लगभग पाँच लाख लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी. कुछ अनुमान तो मृतकों की संख्या 15 लाख तक होने के भी लगाए गए हैं.
किसी भी देश को वे उद्देश्य हासिल नहीं हुए जिनकी वजह से युद्ध शुरू हुआ था या फिर लंबा चला.
न तो आयतुल्लाह ख़ुमैनी सद्दाम हुसैन को और न ही सद्दाम हुसैन आयतुल्लाह ख़ुमैनी को सत्ता से हटा सके.
सद्दाम हुसैन का ये मक़सद भी पूरा नहीं हो सका था कि दोनों देशों के बीच की सीमा को इराक़ के हित में फिर से निर्धारित किया जाए.
हालांकि इराक़ी नेता सद्दाम हुसैन ने अपनी जीत होने का दावा किया था लेकिन असल में स्थिति ये थी कि वह सिर्फ़ अपनी हार से बच गए थे, और उसके लिए भी उन्हें व्यापक बाहरी मदद की ज़रूरत पड़ी थी.
इराक़ पर इस युद्ध का जो असर हुआ था उसी की वजह से सद्दाम हुसैन ने 1990 में कुवैत पर हमला करने का फ़ैसला किया.
बस उसी मोड़ पर उन क्षेत्रीय और पश्चिमी देशों ने इराक़ के ख़िलाफ़ मोर्चा बना लिया जो ईरान के साथ उसकी लड़ाई में उसके साथ थे.
ईरान के लिए भी युद्ध के नतीजे कुछ कम भयावह नहीं थे. इस युद्ध से भारी मानवीय क़ीमत तो चुकानी पड़ी ही, इसका व्यापक आर्थिक नुक़सान भी हुआ. युद्ध की वजह से ही बहुत से ईरानियों ने धार्मिक नेताओं की क्षमता पर सवाल उठाने शुरू कर दिए थे.
युद्ध ख़त्म होने के कुछ ही समय बाद आयतुल्लाह ख़ुमैनी का निधन हो गया ईरान में एक नया दौर शुरू हुआ जिसमें स्वमूल्यांकन किया गया. ईरान-इराक़ युद्ध ने बहुद दर्दनाक यादें छोड़ीं.
आधुनिक काल में कम ही ऐसे युद्ध हुए हैं जो इतने लंबे चले और जो इतने हिंसक और भयावह रहे.