वो लोक गीत जिनमें गांधी दूल्हा हैं तो अंग्रेज़ बाराती
बापू के लोकगीतों का हिस्सा बनने पर महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के सामाजिक अध्ययन केंद्र के निदेशक प्रोफ़ेसर मनोज कुमार कहते हैं, "गाँधी को उनके जीवन काल में ही एक अवतार मान लिया गया. चंपारण में भी लोगों ने उनको उसी रूप में देखा. उनको एक उद्धारक के रूप में माना गया. इसलिए उनके जीवन काल में ही उनकी मूर्तियां बनीं और वे लोक गीत का भी हिस्सा बने. गाँधी जब तारणहार के रूप में आएंगे तो वे गीत-संगीत में ढलेंगे ही."
बापू का बिहार के चंपारण से ख़ास रिश्ता रहा है. यहां आकर महात्मा गांधी ने जब सत्याग्रह शुरू किया तो तब इसका असर न केवल तत्कालीन राजनीति और समाज पर पड़ा बल्कि इसने अलग-अलग भाषाओं के लोकगीतों पर भी असर डाला.
पत्रकार निराला बताते हैं, "ये असर दो तरह से सामने आया. पारंपरिक लोकगीतों जैसे- विवाह गीत, सोहर, पुरबी, कजरी में महात्मा गाँधी शामिल होने लगे और दूसरा ये कि उस समय की लोकबोली के रचनाकार गांधी पर अलग-अलग तरीक़े से गीत लिखने लगे. ऐसा सिर्फ़ चंपारण की धरती पर नहीं हुआ, दूसरी बोलियों में भी हुआ. लोकगीतों की दुनिया में ऐसा ही होता है."
"उस दौर में भोजपुरी का यह गीत बहुत मशहूर हुआ, मोरे चरखा के टूटे न तार, चरखवा चालू रहे. गान्ही बाबा बनलै दुलहवा, अरे दुल्हिन बनी सरकार, चरखवा चालू रहे...."
"उस ज़माने में गांवों में यह मशहूर विवाह गीत बन गया था जिसमें गांधी जी को दूल्हा बनाया गया और अंग्रेज़ों को बाराती."
गीतों की झनकार
निराला कहते हैं, "उसी समय का यह गीत भी है, 'कातब चरखा, सजन तुहु कात, मिलही एहि से सुरजवा न हो, पिया मत जा पुरूबवा के देसवा न हो. इस गीत में आमतौर पर मज़दूरों की महिलाओं के स्वर को प्रतिध्वनित किया गया. उस समय जब मज़दूर पूरब देस यानी कोलकाता, असम कमाने जाते थे तो उनकी पत्नियां मना करती थीं कि परदेस क्या करने जाना है...घर में ही रहकर चरखा चलाओ, हम भी चलाएंगे, गांधीजी कह रहे हैं कि इससे कमाई भी होगी, सुराज भी आएगा."
लेकिन समय के साथ लोकभाषाओं के ये गीत लोकस्मृति से ग़ायब होने लगे, इन गीतों की झनकार खो गई.
युवा गायिका चंदन तिवारी बीते क़रीब तीन सालों से ऐसे 'गांधी गीतों' को न केवलव इकट्ठा कर रही हैं बल्कि उन्हें संगीत में भी पिरो रही हैं.
अपने इस अभियान सरीखे संगीत के सफ़र को वो कुछ इस तरह बयान करती हैं, "क़रीब तीन साल पहले मैंने वर्धा स्थित महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में पहली बार गांधी से जुड़े गीतों और भजनों को गाया. वहां पर मैंने कैलाश गौतम का लिखा 'सिर फूटत हौ, गला कटत हौ, लहू बहत हौ, गान्ही जी/देस बंटत हौ, जइसे हरदी धान बंटत हौ, गान्ही जी' भी पहली बार गाया. वर्धा में मुझे जो सराहना मिली, उससे मुझे लगा कि गाँधी से जुड़े गीतों पर काम करना चाहिए और फिर ये सिलसिला शुरू हुआ."
चंपारण सत्याग्रह शताब्दी वर्ष
चंदन तिवारी बताती हैं, "इसके बाद मैंने मशहूर गांधीवादी दिवंगत अनुपम मिश्र को बिहार के एक प्रसिद्ध गांधीवादी मुरारी शरण का लिखा हुआ नदी गीत सुनाया, नदिया धीरे बहो. यह गीत सुनकर उन्होंने कहा कि तुम लोक गायिका हो, इसलिए तुम गाँधी पर आधारित लोक गीतों को भी ढूंढो. इसके बाद चंपारण सत्याग्रह शताब्दी वर्ष की तैयारी के सिलसिले में मुझे कुछ ऐसे लोकगीत मिल गए. इनमें स्नेहलता के लिखे मैथिली लोकगीत और सुभाष चन्द्र कुशवाहा के लेख में गाँधी जी पर भोजपुरी के महत्वपूर्ण रचनाकार रसूल मियां के कुछ भोजपुरी गीत शामिल हैं. और इस तरह ये सिलसिला आगे बढ़ता गया."
चंदन को अब तक क़रीब ऐसे दो दर्जन गांधी गीत मिले हैं जिनमें से कुछ को इन्होंने ख़ुद ही संगीत में भी ढाला है और बाकी गीतों को भी संगीतबद्ध करने की इनकी तैयारी है.
मोरे चरखा के टूटे न तार, चरखवा चालू रहे... चंदन का सबसे पसंदीदा गीत है.
लोकगीतों का हिस्सा
बापू के लोकगीतों का हिस्सा बनने पर महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के सामाजिक अध्ययन केंद्र के निदेशक प्रोफ़ेसर मनोज कुमार कहते हैं, "गाँधी को उनके जीवन काल में ही एक अवतार मान लिया गया. चंपारण में भी लोगों ने उनको उसी रूप में देखा. उनको एक उद्धारक के रूप में माना गया. इसलिए उनके जीवन काल में ही उनकी मूर्तियां बनीं और वे लोक गीत का भी हिस्सा बने. गाँधी जब तारणहार के रूप में आएंगे तो वे गीत-संगीत में ढलेंगे ही."
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