अंखफोड़वा कांड: जब भागलपुर में पुलिस ने आंखों में तेज़ाब डालकर 33 लोगों को अंधा किया
हाल ही में मशहूर पत्रकार अरुण शौरी की आत्मकथा प्रकाशित हुई है- 'द कमिश्नर ऑफ़ लॉस्ट कॉज़ेज़', जिसमें उन्होंने 1980 में हुए भागलपुर ब्लाइंडिंग केस की विस्तार से चर्चा की है. इसमें 33 लोगों की आंखें फोड़कर उनमें तेज़ाब डाल दिया गया था. क्या था पूरा मामला, बता रहे हैं रेहान फ़ज़ल विवेचना में.
1980 में जब पहली बार भागलपुर में अंधे किए गए लोगों की तस्वीरें छपीं तो उसने पूरे जनमानस को बुरी तरह से झकझोर दिया. कुछ पुलिस वालों ने तुरंत न्याय करने के नाम पर क़ानून अपने हाथों में ले लिया और 33 अंडर ट्रायल लोगों की आंखें फोड़ कर उसमें तेज़ाब डाल दिया. बाद में इस पर एक फ़िल्म भी बनी 'गंगाजल'.
मशहूर पत्रकार रहे और पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी की हाल ही में आत्मकथा प्रकाशित हुई है 'द कमिश्नर फ़ॉर लॉस्ट कॉज़ेज़' जिसमें उन्होंने इस घटना का विस्तार से ब्योरा दिया है, जिसे उनके अख़बार इंडियन एक्सप्रेस ने सबसे पहले ब्रेक किया था.
शौरी याद करते हैं, "नवंबर, 1980 में हमारे पटना संवाददाता अरुण सिन्हा को पता चला कि भागलपुर में पुलिस और आमलोग जेल में बंद कैदियों की आंखों में तेज़ाब डालकर उन्हें अंधा कर रहे हैं. जब उन्होंने इसके बारे में पता करना शुरू किया तो पटना में आईजी (जेल) ने इस बारे में कोई जानकारी देने से इनकार कर दिया."
जेल सुपरिटेंडेंट बच्चू लाल दास ने भांडा फोड़ा
अरुण सिन्हा जो बाद में गोवा के अख़बार नवहिंद टाइम्स के संपादक बने बताते हैं, ''जब मैं भागलपुर जेल के सुपरिटेंडेंट बच्चू लाल दास से मिला तो शुरू में उनका रवैया बहुत सावधानी भरा था. वो अंधे किए गए कैदियों के बारे में मेरे सवालों का जवाब देने में हिचक रहे थे. लेकिन जब उन्होंने इस बात की जाँच कर ली कि मैं कौन हूं और मैं वास्तव में इंडियन एक्सप्रेस के लिए काम करता हूं और इससे पहले मैंने किस तरह की ख़बरें की हैं तो वो मुझसे पूरी तरह से खुल गए.''
इस घटना को 40 साल से भी अधिक हो गए हैं लेकिन अरुण सिन्हा बच्चू लाल दास को अभी तक भूले नहीं हैं.
सिन्हा कहते हैं, ''वो बहुत बहादुर अफ़सर थे. मैं हमेशा उन्हें बहुत आदर के साथ याद रखूंगा क्योंकि जिस दिन से उन्होंने मुझे वो सब बातें बताईं मैं देख सकता था कि वो साफ़ अन्त:करण वाले शख्स हैं जो आमतौर से सरकारी अफ़सरों में नहीं मिलता. यही नहीं वो निडर भी थे. इसका सबसे बड़ा उदाहरण तब मिला जब सरकार ने उन्हें निलंबित कर दिया और उन्होंने सरकार की ताकत का बहुत जीवट से मुकाबला किया. बाद में वो बहुत मशक्कत के बाद बहाल हुए. अपने पूरे करियर को दांव पर रख उन्होंने मुझे ऐसे दस्तावेज़ दिखाए, जिनसे ये साफ़ हो गया कि कहीं न कहीं पुलिस इस जघन्य अपराध में शामिल है.''
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'टकवा' से आंखें फोड़कर डाला जाता था तेज़ाब
मैंने अरुण शौरी से पूछा कि इन कैदियों का किस तरह से अंधा किया जाता था? शौरी का जवाब था, ''इन लोगों को पकड़ कर पुलिस स्टेशन ले जाया जाता था जहां पुलिस वाले उन्हें बांध कर ज़मीन पर गिरा देते थे और उनके ऊपर बैठ जाते थे. कुछ पुलिस वाले उनके पैर और बांहों को पकड़ लेते थे. फिर बोरा सिलने वाले नुकीले, लंबे सूजे 'टकवा' को उनकी आंखों में भौंक दिया जाता था. एक तथाकथित 'डॉक्टर साहब' आते थे जो ये सुनिश्चित करने के लिए कि उसे बिल्कुल भी दिखाई न दे फोड़ी गई आंखों में तेज़ाब डाल देता था.''
एक ऐसी भी घटना हुई जब अंधे किए गए सात कैदी एक कमरे में लेटे हुए थे. तभी एक डॉक्टर साहब अंदर पहुंचे. अरुण शौरी बताते हैं, ''उन्होंने बहुत मीठी आवाज़ में उन क़ैदियों से पूछा, क्या तुम्हें कुछ दिखाई दे रहा है? कैदियों को कुछ उम्मीद जगी कि शायद डॉक्टर को अपने किए पर दुख हो रहा है और शायद वो हमारी मदद करने आए हैं. दो कैदियों ने कहा कि वो थोड़ा बहुत देख सकते हैं. ये सुनकर डॉक्टर कमरे से बाहर चला गया. इसके बाद दोनों कैदियों को एक-एक करके कमरे से बाहर एक दूसरे कमरे में ले जाया गया. वहां उनकी आंखों से रुई हटाकर उन्हें एक बार फिर फोड़ कर उसमें तेज़ाब डाल दिया गया. ये सिलसिला जुलाई, 1980 से चल रहा था. तेज़ाब को पुलिस वाले 'गंगाजल' कह कर पुकारते थे.''
उमेश यादव और भोला चौधरी की आपबीती
अंधे हुए लोगों में उमेश यादव अभी भी जीवित हैं. इस समय उनकी उम्र 66 साल है और वो भागलपुर के कूपाघाट गांव में रहते हैं.
यादव ने बीबीसी को बताया, ''हमें पुलिस पकड़ कर कोतवाली ले गई थी. वहाँ उसने हमारी दोनों आंखों में प्योर तेज़ाब डाल कर हमें अंधा कर दिया. बाद में हमें भागलपुर सेंट्रल जेल भेज दिया गया. वहाँ जेल सुपरिटेंडेंट दास साहब ने हमारा स्टेटमेंट तैयार करा कर सुप्रीम कोर्ट के वकील हिंगोरानी साहब के पास भिजवाया था. उनके प्रयासों से ही पहले हमे 500 रुपये महीना पेंशन मिलना शुरू हुई जो बाद में बढ़ कर 750 रुपये हो गई. लेकिन वो कभी दो महीने बाद मिलती है तो कभी चार महीने बाद. कुल 33 लोगों के साथ ये ज़ुल्म किया गया था, जिसमें 18 लोग अभी भी जीवित हैं.''
बराडी के रहने वाले भोला चौधरी बताते हैं, ''पुलिस ने पहले हमारी आँखों को टकवा से छेदा और फिर उसमें तेज़ाब डाल दिया. हमारे साथ नौ लोगों के साथ ऐसा किया गया.''
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पुलिस का मानना था अपराध पर काबू करने का यही सबसे कारगर तरीका
बाद में जब अरुण सिन्हा ने और जाँच की तो पता चला कि जगन्नाथ मिश्रा मंत्रिमंडल के कम से कम एक सदस्य को पिछले चार महीनों से इस मुहिम के बारे में जानकारी थी और उन्होंने इस बारे में पुलिस को आगाह भी किया था. लेकिन भागलपुर के पुलिस अधिकारियों ने उसका ये कह कर जवाब दिया था कि ज़िले में कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए यही सबसे कारगर तरीका है.
जब अरुण सिन्हा भागलपुर के पुलिस अधिकारियों से मिले तो उन्होंने सफ़ाई दी कि ये काम पुलिस नहीं वहां की आम जनता कर रही है और इन तथाकथित हत्यारों, लुटेरों और बलात्कारियों के लिए आंसू बहाने की कोई ज़रूरत नहीं है. अरुण सिन्हा ने पटना लौट कर रिपोर्ट फ़ाइल की. उनकी रिपोर्ट 22 नवंबर, 1980 के इंडियन एक्सप्रेस के अंक में 'आइज़ पंक्चर्ड ट्वाइस टु इनश्योर ब्लाइंडनेस' शीर्षक से मुख्य पृष्ठ पर छपी.
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जनता पुलिस के समर्थन में सड़क पर उतरी
अरुण सिन्हा बताते हैं, ''ये रिपोर्ट छापकर मेरे जीवन के लिए ख़तरा पैदा हो गया था. आम लोग सड़कों पर पुलिस के समर्थन में उतर आए थे. उनका कहना था कि पुलिस ने बिल्कुल सही काम किया है. रिपोर्टिंग के लिए मुझे नकली पहचान बना कर भागलपुर जाना पड़ रहा था. जब पुलिस वाले सस्पेंड हुए तो वो लोग भी सड़क पर आ गए. सिविल एडमिनिस्ट्रेशन के लोग भी उनके साथ थे. उस समय बड़ा अजीब समां बन गया."
वो कहते हैं, ''भागलपुर का सारा संभ्रांत वर्ग उनके साथ था. ऊंचे पद, ऊंची जाति और यहाँ तक कि वकील, छात्र और तथाकथित पत्रकार लोग भी. उन्होंने जिला मजिस्ट्रेट के दफ्तर के सामने प्रदर्शन किया और नारे लगाए कि ये पुलिस वाले निर्दोष हैं. उस समय पूरे भागलपुर में नारे लग रहे थे 'पुलिस जनता भाई-भाई.' हमें जिस वजह से बहुत मदद मिली वो ये थी कि पुलिस में भी दो धड़े बन गए थे. एक धड़ा इस पूरे मामले को रफ़ा-दफ़ा करने की फ़िराक में था तो दूसरा धड़ा जो मानवाधिकारों के प्रति थोड़ा सजग था पुलिस वालों के काले-कारनामों की एक-एक ख़बर हमें दे रहा था. लेकिन ज़्यादातर पुलिस वालों की लाइन यही थी कि ये वहशीपन हमने नहीं जनता ने किया है.''
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पुलिस की थ्योरी सवालों के घेरे में
जब ये बात सार्वजनिक हुई तो मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र और डीआईजी (ईस्टर्न रेंज) ने इसके लिए आम लोगों को ज़िम्मेदार ठहराया. अरुण शौरी पूछते हैं, "अगर आम लोग ही इसके लिए ज़िम्मेदार थे तो सवाल उठता है लोगों को तेज़ाब मिला कहां से? क्या भागलपुर के लोग अपने हाथ में टकवा और तेज़ाब लिए घूम रहे थे? क्या लोगों को पता होता था कि कहां और कब अपराधियों को पकड़ा जाएगा और वो वहां तेज़ाब और टकवा लेकर तैयार रहते थे? लोगों की ओर से पकड़ लिए जाने पर अपराधियों ने अपने हथियार का इस्तेमाल क्यों नहीं किया? अगर आम लोगों ने ही अपराधियों को अंधा किया तो पुलिस ने उनको पकड़ा क्यों नहीं? क्या उन्होंने इसका कोई गवाह ढूंढने की कोशिश की?"
जेल अधीक्षक दास का निलंबन
सरकार ने सिर्फ़ एक काम किया और वो था जेल अधीक्षक दास को निलंबित करने का. उन पर आरोप लगा कि जब वो जेल पहुंचे उन्होंने जेल रजिस्टर में अंधे किए लोगों के बारे में सही प्रविष्टि नहीं की थी, और न ही उन्होंने इन लोगों के इलाज के लिए उचित व्यवस्था करवाई. लेकिन उनका असली अपराध ये था कि उन्होंने अरुण सिन्हा को अंधे किए गए लोगों से मिलवाया.
उनके निलंबन आदेश में लिखा गया, ''उन्होंने इसके बारे में प्रशासन को कोई रिपोर्ट नहीं दी और अख़बारों को अंधा किए जाने के बारे में अपना वर्जन दिया.''
लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि इसके बारे में अख़बार के ज़रिये लोगों को पता चलने से पहले बिहार पुलिस के उच्चाधिकारियों को इसका अंदाज़ा था.
अरुण शौरी बताते हैं, ''जुलाई, 1980 में डीआईजी (ईस्टर्न रेंज) गजेंद्र नारायण ने डीआईजी (सीआईडी) से अनुरोध किया था कि वो एक अनुभवी पुलिस इंस्पेक्टर को इसकी जांच के लिए भागलपुर भेजें. उन इंस्पेक्टर ने गजेंद्र नारायण को रिपोर्ट दी कि पुलिस वाले संदिग्ध अपराधियों को योजना बना कर ज़बरदस्ती अंधा कर रहे है. उस इंस्पेक्टर ने पटना लौटकर डीआईजी(सीआईडी) एमके झा को भी यही रिपोर्ट सौंपी. इस रिपोर्ट पर कार्रवाई करने के बजाए अधिकारियों ने उस इंस्पेक्टर पर अपनी रिपोर्ट बदलने का दबाव बनाना शुरू कर दिया. सूत्रों ने सिन्हा को बताया कि उनको भेजने वाले डीआईजी ने कहा कि उस इंस्पेक्टर को तुरंत मुख्यालय वापस बुला लिया जाए.''
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डॉक्टरों ने किया इलाज करने से इनकार
जुलाई, 1980 में भागलपुर जेल में रह रहे 11 अंधे बनाए गए अंडर ट्रायल कैदियों ने गृह विभाग को आवेदन भेजकर न्याय की गुहार की. इस आवेदन पत्र को जेल के अधीक्षक ने फॉरवर्ड किया. जब ये बातें सार्वजनिक हुईं तो इस पर कार्रवाई करने के बजाय भागलपुर जेल के अधीक्षक दास पर इन कैदियों के आवेदन लिखने में मदद करने का आरोप लगाया गया.
सितंबर 1980 में पुलिस महानिरीक्षक (जेल) ने भागलपुर की बांका सब जेल का निरीक्षण करने और वहां क़ैद तीन अंधे किए गए कैदियों से मिलने के बाद गृह विभाग से जांच बैठाने का अनुरोध किया लेकिन विभाग ने इस पर कोई कार्रवाई नहीं की. जब अंधे किए लोगों को भागलपुर मेडिकल कॉलेज ले जाया गया तो वहां के डॉक्टरों ने इसका इलाज करने से इनकार कर दिया. उन्होंने भागलपुर जेल के वहां के लिए एक नेत्र विशेषज्ञ तैनात किए जाने के अनुरोध को भी स्वीकार नहीं किया.
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केंद्र सरकार ने राज्य सरकार का मामला बताकर पल्ला झाड़ा
जैसे ही ये ख़बर ब्रेक हुई केंद्रीय मंत्री वसंत साठे ने कहा कि 'इंडियन एक्सप्रेस' अख़बार पुलिस का मनोबल गिराने की कोशिश कर रहा है. लेकिन आचार्य कृपलानी ने एक जनसभा कर इस पूरे ऑपरेशन की घोर निंदा की. जब संसद में ये मामला उठा तो शुरू में सरकार ने ये कहकर अपना पल्ला झाड़ने की कोशिश की कि जो कुछ भी हुआ वो दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन चूंकि कानून और व्यवस्था राज्य सरकार के कार्यक्षेत्र में आता है, इसलिए इस पर विचार करने की उचित जगह विधानसभा है न कि संसद.
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इस पूरे प्रकरण पर गहरा दुख प्रकट करते हुए कहा कि वो इस बात पर यकीन नहीं कर पा रही हैं कि आज के युग में ऐसी चीज़ भी हो सकती है. केंद्र सरकार ने बिहार सरकार को निर्देश दिए कि वो पटना हाइकोर्ट से उस ज़िला जज के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने का अनुरोध करे, जिसने इन नेत्रहीन बंदियों को कानूनी सहायता दिलवाने से इनकार कर दिया था. उसने ये भी घोषणा की कि अंधे किए गए 33 लोगों को 15000 रुपए की सहायता दी जाएगी ताकि उससे मिलने वाले ब्याज से वो अपना जीवनयापन कर सकें. गृह मंत्री ज्ञानी ज़ैल सिंह ने पीड़ित लोगों के परिवारों से अपील की कि वो इस मामले को तूल न दें क्योंकि इससे विदेश में भारत की बदनामी होगी.
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सुप्रीम कोर्ट ने लिया संज्ञान
सुप्रीम कोर्ट ने इस पूरे मामले का संज्ञान लेते हुए इन सभी पीड़ितों की दिल्ली के अखिल भारतीय चिकित्सा विज्ञान संस्थान में जांच कराने का आदेश दिया. उसने ये भी कहा कि इन लोगों को जो शारिरिक नुकसान हुआ है उसको वापस लाने के लिए अदालत कुछ नहीं कर सकती लेकिन जिन लोगों ने ऐसा किया है उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई होनी चाहिए ताकि इस तरह की क्रूरता भविष्य में कभी न दोहराई जाए.
अरुण शौरी बताते हैं, ''बिहार सरकार ने ये बताने के लिए कि वो इस पर कुछ कर रहे हैं, इस काम में शामिल पुलिस अधिकारियों की पहचान परेड करवाई और पूरी तरह से अंधे हो गए लोगों से कहा गया कि वो उन पुलिस अधिकारियों की पहचान करें जिन्होंने उनको अंधा किया था.''
इसके बाद उसने 15 पुलिस कर्मियों को निलंबित कर दिया. लेकिन तीन महीनों के अंदर ही हर एक व्यक्ति का निलंबन आदेश वापस ले लिया गया. कुछ वरिष्ठ अधिकारियों का तबादला भर किया गया. उस अफ़सर को जो भागलपुर शहर का एसपी था, रांची का एसपी बना दिया गया. एक और व्यक्ति जो भागलपुर ज़िले का एसपी था उसे मुज़फ़्फ़रपुर का एसपी बना दिया गया.
वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को पहले से भी महत्वपूर्ण जगहों पर भेजा गया. डीआईजी (सीआईडी) को बिहार मिलिट्री पुलिस का प्रमुख बनाया गया और डीआईजी (भागलपुर) को डीआईजी (विजिलेंस) के महत्वपूर्ण पद पर भेज दिया गया.
जब अरुण शौरी की बिहार के मुख्यमंत्री डॉक्टर जगन्नाथ मिश्रा से दिल्ली में मुलाकात हुई तो उन्होंने उनसे पूछा, "मिश्राजी आपकी सरकार कानून और व्यवस्था पर काबू नहीं रख पाई. यहां सबका कहना है कि आपको इस्तीफ़ा दे देना चाहिए." मिश्रा का जवाब था, "शौरी साहब मैं इस्तीफ़ा क्यों दूं? मैंने नैतिक ज़िम्मेदारी तो ले ली है न."
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