शवदाह की तैयारी कर ख़ुदकुशी करने वाले किसान की कहानी
परिवार वालों के मुताबिक़ 9 अगस्त की सुबह वो कल्याणदुर्गम ये कहकर निकले थे कि वो कर्ज़ का ब्याज़ चुकाने और टमाटर की फसल के लिए खाद और दूसरे ज़रूरी सामान खरीदने जा रहे हैं. लेकिन वो लौटकर नहीं आए.
अपने पिता के अंतिम दिनों के बारे में बताते हुए माधवय्या ने कहा, "लगता है कि उन्होंने हफ्ते भर पहले से ही ख़ुदकुशी करने की योजना तैयार कर ली थी. लेकिन हममें से किसी को उनकी सोच और व्यवहार के बारे में पता नहीं चल पाया."
"वो घर से निकला था- पास के शहर से घर का कुछ सामान ख़रीदने. लेकिन लौटकर घर नहीं आया. घर आया, तो कुछ सामान - कुछ चूड़ियां, सफेद कपड़े का एक टुकड़ा, हल्दी, सिन्दूर और फूलों का एक हार. घर के लिए उसने यही सामान ख़रीदा था, लेकिन घर को इनमें से किसी सामान की ज़रूरत नहीं थी. दरअसल उसने ये सामान अपनी ही अर्थी को सजाने के लिए खरीदा था."
ये सब बोलते-बोलते माधवय्या की आवाज़ भर्रा गई.
माधवय्या के पिता मल्लप्पा आंध्र प्रदेश के अनंतपुर ज़िले में कम्बदुरुमंडल में पड़ने वाले रामपुरम गांव के किसान थे. अपनी अंतिम यात्रा के लिए ज़रूरी सारे सामान ख़रीदने के बाद उन्होंने ख़ुदकशी कर ली.
मरने के बाद परिवार के लोग उन्हें याद रखें, इसके लिए उन्होंने अपनी एक लैमिनेटेड तस्वीर भी तैयार कर दी थी.
उनके परिजनों ने बताया कि कर्ज़ में डूबे मल्लप्पा ने अगस्त 2018 में अपनी जान दे दी. फसल ख़राब हो गई थी और वो कर्ज़ चुकता करने में असमर्थ थे.
अंतिम संस्कार का भार वो अपने परिवार पर नहीं डालना चाहते थे. यही कारण रहा होगा कि हमेशा के लिए आंखें बंद करने से पहले उन्होंने अपने शवदाह की व्यवस्था भी ख़ुद ही कर ली.
पास के शहर से मल्लप्पा ने शवदाह के लिए ज़रूरत के सारे सामान खरीदे. शव को ढंकने के लिए सफेद कपड़ा, पत्नी के लिए चूड़ियां और अंतिम संस्कार के लिए फूलों का हार.
फिर वो गांव की सड़क के किनारे अपने खेत पर पहुंचे. एक पर्ची के साथ सारा सामान अपने पिता की समाधि पर रखा. पर्ची में विभिन्न कर्ज़दाताओं के नाम और उनसे कर्ज़ ली गई रकम का ब्योरा था. उन्होंने सभी कर्ज़दाताओं का आभार जताया, जिन्होंने उन्हें कर्ज़ दिया था.
मल्लप्पा स्वयं लिखने-पढ़ने में असमर्थ थे. लिहाजा पर्ची तैयार करने के लिए उन्होंने एक गांव वाले से मदद ली और पर्ची को अन्य सामानों के साथ एक बैग में रख दिया.
कीटनाशक पीकर की ख़ुदकुशी
इसके बाद वो आहुत पहुंचे. उनके खेतों के ठीक सामने एक जगह थी, जहां वो खेत में काम करने के बाद आराम किया करते थे. यहीं उन्होंने कीटनाशक पीकर ख़ुदकुशी कर ली.
अगली सुबह मल्लप्पा के बेटे माधवय्या मवेशियों को चराने के लिए खेत में गए तो उनकी नज़र अपने दादा की समाधि पर रखे सामानों पर पड़ी.
समाधि पर फूलों का हार, सफेद कपड़ा और उसके पिताजी की लैमिनेटेड तस्वीर देखकर उसका माथा ठनका. आसपास देखने पर उसे दूर चारपाई पर एक व्यक्ति लेटा हुआ नज़र आया.
आंसूओं से भरी आंखों से माधवय्या ने बीबीसी को बताया, "मुझे कुछ गलत होने का आभास हुआ और मैं झोपड़ी में गया. मैं सदमे में आ गया. वो मेरे पिताजी थे."
सूखे की मार और ख़राब फसल
ये कहानी एक ऐसे किसान की है, जो सूखे की मार और लगातार फसल ख़राब होने के कारण कर्ज़ के बोझ तले दबा हुआ था.
हम मल्लप्पा के खेत में पहुंचे, जहां उन्होंने अपनी जान दी थी और जहां से उसका घर आधे किलोमीटर की दूरी पर है.
गांव जाने के लिए कोई बस सुविधा नहीं है. खेत में मल्लप्पा के बेटे माधवय्या से हमारी मुलाकात हुई.
कम बारिश की वजह से बर्बाद हो चुकी मूंगफली की फसल साफ़ नज़र आ रही थी. इसे अब सिर्फ़ मवेशियों के चारे के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा था.
सफे़द रंग में रंगी मल्लप्पा की समाधि उनके परिवार के अंधेरेपन की याद दिला रही थी. मल्लप्पा के बेटे हमें उस झोपड़ी तक ले गए, जहां उन्होंने आख़िरी सांस ली थी.
माधवय्या ने अनुमान लगाया कि उनके पिता की उम्र 60 वर्ष रही होगी, क्योंकि उनके पास पिता के जन्म का कोई आधिकारिक दस्तावेज़ नहीं है और ये गांव में आम बात है.
मल्लप्पा की तीन बेटियां और दो बेटे हैं. खेती का भार अब बड़े बेटे पर है, और छोटा बेटा नौकरी की तलाश में बेंगलुरु चला गया है. तीनों बेटियों की शादी हो चुकी है और वो पास के गांवों में रहती हैं.
खेती के लिए लिया लाखों का कर्ज़
इस परिवार के पास गांव में 6 एकड़ ज़मीन है. मल्लप्पा के बेटे ने बताया कि मल्लप्पा की पर्ची के मुताबिक उन पर बैंकों का 1.12 लाख और निजी कर्ज़दाताओं का 1.73 लाख कर्ज़ बकाया है, जो उन्होंने खेती के लिए लिए था.
माधवय्या ने बीबीसी को बताया, "हमारे पास 6 एकड़ ज़मीन है. हमने सिंचाई के लिए चार बोरवेल लगाए, जिनमें तीन बोरवेल बिना एक बूंद पानी दिए फेल हो गए. बारिश में कमी के कारण चौथे बोरवेल से भी ज़रूरत के मुताबिक पानी नहीं मिलता. हमने तीन एकड़ खेत में टमाटर और तीन एकड़ खेत में मूंगफली लगाई. सोचा था कि टमाटर से होने वाली आमदनी से कर्ज़ उतर जाएगा इसलिए पानी की धार टमाटर के खेत की ओर मोड़ दी. बारिश और पानी के अभाव में मूंगफली की फसल पूरी तरह बर्बाद हो गई."
माधवय्या ने कहा, "बाज़ार में टमाटर की क़ीमत में गिरावट से पिताजी की रही-सही उम्मीदें भी जाती रहीं. इतनी आमदनी नहीं हुई कि कर्ज़ चुकता किया जा सके."
परिवार वालों के मुताबिक़ 9 अगस्त की सुबह वो कल्याणदुर्गम ये कहकर निकले थे कि वो कर्ज़ का ब्याज़ चुकाने और टमाटर की फसल के लिए खाद और दूसरे ज़रूरी सामान खरीदने जा रहे हैं. लेकिन वो लौटकर नहीं आए.
अपने पिता के अंतिम दिनों के बारे में बताते हुए माधवय्या ने कहा, "लगता है कि उन्होंने हफ्ते भर पहले से ही ख़ुदकुशी करने की योजना तैयार कर ली थी. लेकिन हममें से किसी को उनकी सोच और व्यवहार के बारे में पता नहीं चल पाया."
आमतौर पर मल्लप्पा को हर महीने के पहले हफ्ते में पेंशन मिलती थी. टमाटर की बिक्री से मिले धन में से उन्होंने 1000-1500 रुपये बचाकर रखे थे और घर के लिए ज़रूरी सामान भी ले आए.
माधवय्या ने बताया कि उनके पिता ने परिवार के किसी भी सदस्य को अपने अवसाद की भनक तक न लगने दी.
बेटी के गहने गिरवी रखे
रामपुरम गांव में हम मल्लप्पा के एक कमरे के घर में पहुंचे, जो एससी कॉलोनी की पतली गलियों के किनारे है.
मल्लप्पा की बीमार पत्नी ने हमारा अभिवादन किया. मल्लप्पा की तीन बेटियां हैं.
मल्लप्पा की पत्नी मरेक्का ने बताया, "बैंकों और निजी कर्ज़दाताओं के अलावा खेती के लिए उन्होंने अपनी बेटी के गहने गिरवी रखकर सोने के बदले कर्ज़ लिया था."
दर्द भरी आवाज़ में मरेक्का ने बताया, "खेती के लिए वो लगातार कर्ज़ लिए जा रहे थे, लेकिन बारिश के अभाव में हर बार फसल बर्बाद हो जाती थी. उन्होंने सोचा था कि इस साल फसल की आमदनी से वो कर्ज़ चुकता कर देंगे, लेकिन उनकी उम्मीदों पर पानी फिर गया."
उस दिन क्या हुआ?
माधवय्या के मुताबिक मल्लप्पा पर 1.73 लाख का व्यक्तिगत कर्ज़ था. कुछ निजी कर्ज़दाता मल्लप्पा पर कर्ज़ वापसी के लिए दबाव बनाए हुए थे.
उनकी पत्नी ने बताया, "एक कर्ज़दाता ने उन्हें पैसा लेने के लिए किसी व्यक्ति को भेजने की धमकी दी थी. उन्होंने सोचा कि इससे उनकी इज़्ज़त पर पानी फिर जाएगा. सुसाइड नोट के मुताबिक मल्लप्पा ने उस व्यक्ति से मात्र 10000 रुपये लिए थे."
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'मेरे पास वक्त नहीं'
वापसी में हम कल्याणदुर्गम होते हुए अनंतपुर पहुंचे और उस फोटोग्राफर से मुलाकात की, जिसने मल्लप्पा की तस्वीर लैमिनेट की थी.
जब हमने एक क्षेत्रीय समाचार पोर्टल के लिए फ्रीलांस काम करने वाले फ़ोटोग्राफर गोविन्दु से मल्लप्पा के बारे में जानकारी चाही तो उसने हमें अपने स्टूडियो में बुलाया.
फोटोग्राफर ने दुखभरी आवाज़ में पूरी घटना बताई.
उन्होंने कहा, "मल्लप्पा एक दिन मेरे पास आए और अपनी तस्वीर लैमिनेट करने को कहा. मैंने एडवांस लिया और उन्हें दो दिन बाद आने को कहा. दो दिन बाद वो आए. हालांकि मैं उस दिन तक तस्वीर लैमिनेट नहीं कर पाया था."
" उन्होंने मुझसे फौरन तस्वीर देने को कहा. उन्होंने कहा कि वो अधिक इंतज़ार नहीं कर सकते. मैंने उनसे पुरानी तस्वीर के बजाय नई तस्वीर लैमिनेट कराने को कहा. उन्होंने इनकार करते हुए कहा कि 'मेरे पास वक्त नहीं है, कृपया इसे जल्द कर दें.' मैंने अपना सारा काम छोड़ा और तस्वीर लैमिनेट की. वो करीब 11.30-12 बजे आए और अपनी तस्वीर ले गए."
कराहती आवाज़ में गोविन्दु ने कहा, "मैंने एक स्थानीय अख़बार में किसान की ख़ुदकशी की ख़बर पढ़ी. मुझे याद आया कि ये तो वही व्यक्ति है जिसकी तस्वीर मैंने उस दिन लैमिनेट की थी. मैं उनकी मृत्यु दो दिन और टाल सकता था, अगर उनके दबाव देने पर भी मैं दो दिनों तक उन्हें तस्वीर नहीं देता."
'कर्ज़ माफ़ी उनकी जान बचा सकती थी'
मल्लप्पा पर 40000 रुपये का कर्ज़ राज्य सरकार की कर्ज़ माफ़ी नीति के तहत दो चरणों में माफ़ कर दिया गया था और तीसरे चरण का इंतज़ार था.
माधवय्या ने बताया, "मल्लप्पा राहत की थोड़ी सांस ले सकते थे, अगर तीसरे चरण की माफ़ी भी मिल जाती और उसका भार थोड़ा हल्का हो जाता."
एक स्थानीय रिपोर्टर शफीउल्लाह ने बीबीसी को बताया कि अब उन्हें सिर्फ 10000 रुपये एक निजी कर्ज़दाता को अदा करने थे, जिसने उसे धमकाया था.
टमाटर का बाज़ार
प्रति एकड़ टमाटर उगाने की लागत 30000 रुपये आती है. हर फसल में सात गुना फ़ायदा होता है. एक एकड़ ज़मीन में औसतन 4500 किलो टमाटर उगाया जा सकता है, जिसका मतलब है 15 किलो की 300 टोकरियां बाज़ार भेजी जाती हैं.
प्रति एकड़ फसल काटने के लिए 15 मजदूरों की ज़रूरत होती है. हर मजदूर की मजदूरी 150 रुपये रोज़ाना है.
इस लिहाज़ से प्रतिदिन 2250 रुपये मज़दूरी देनी होती है. इसके अलावा प्रति टोकरी बाज़ार भेजने का खर्च 16 रुपये बैठता है, यानी 300 टोकरियों का खर्च 4800 रुपये आता है.
इसके अतिरिक्त बाज़ार के बिचौलियों को 10 फीसदी कमीशन देना पड़ता है. लेकिन बाज़ार में प्रति टोकरी की कीमत सिर्फ 40 रुपये मिलती है. पूरा जोड़ घटाव करने के बाद प्रति एकड़ 1000 रुपये का नुकसान झेलना पड़ता है.
कम कीमत पर बेचने के बजाय किसान अपनी फसल को सड़कों पर फेंक देने के लिए मज़बूर हैं.
पिछले 54 सालों में ऐसा सूखा नहीं पड़ा
अनंतपुर ज़िले के संयुक्त कृषि निदेशक हबीब ने बताया, "हमने इतना भयानक सूखा पिछले 54 सालों में नहीं देखा. अनंतपुर ज़िले में बिलकुल बारिश नहीं हुई. हमें हान्द्रीनीवा परियोजना से कृष्णा नदी का पानी मिलता है, जो कुछ बेहतर है. हमने इतना लम्बा सूखा और काली मिट्टी होने के बावजूद फसलों का ऐसा नुकसान कभी नहीं देखा."
उन्होंने सहमी हुई आवाज़ में कहा, "मैं किसानों की स्थिति की कल्पना कर वास्तव में भयभीत हूं."
मानवाधिकार कार्यकर्ता एसएम भाषा सवाल करते हैं, "मल्लप्पा की ख़ुदकशी ज़िले में भारी सूखे की वजह से होने वाली मौत का एक उदाहरण है. खेत और खेती किसानों को सुरक्षा देने के बजाय उनकी ज़िंदगी पर ख़तरा बनते जा रहे हैं. किसानों की फसल तैयार होने तक अगर बाज़ार में न्यूनतम समर्थन मूल्य तय न हो तो वे क्या करेंगे?"
वो कहते हैं, "मैं सूखे पर पिछले 30 सालों से शोध कर रहा हूं. लेकिन किसानों की ख़ुदकशी के बारे में सोचने की मेरी हिम्मत नहीं है."
"ग्रामीण इलाकों की हालत और ख़राब हुई है. राज्य के कई हिस्सों में सूखे की समस्या बढ़ती जा रही है. कई गांव खाली हो गए हैं. गांवों में सिर्फ वृद्ध लोग बचे हैं. गांवों में पीने के पानी की भी किल्लत है."
उनका कहना है, "हर ज़िले में विविधता है और सरकार को इलाके की भौगोलिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए योजना बनानी चाहिए, जो नहीं हो रहा है."
उनके मुताबिक, "मध्य प्रदेश और राजस्थान में बीजेपी की हार की वजह कांग्रेस पार्टी नहीं है. इसका कारण सिर्फ़ किसानों और समाज के बेरोज़गार समुदाय में निराशा पैदा होना है. सरकारें बदल जाती हैं, परिस्थितियां नहीं बदलतीं. दीर्घकालीन विकास के लिए राजनीतिक दलों को बदलने के बजाय सकारात्मक बदलाव के लिए जन आंदोलन की ज़रूरत है."
घर चलाने के लिए माधवय्या की उम्मीद अब भी उसी मूंगफली की फसल पर टिकी है. उसे अपनी फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलने की उम्मीद है. लेकिन अगर फसल ख़राब हो गई तो?
इस पर माध्वय्या कहते हैं, "हम नहीं जानते कि हमारी तक़दीर में क्या लिखा है. मुझे कर्ज़ के ब्याज़ के रूप में 40000 रुपए अदा करने हैं. मुझे नहीं मालूम कि मैं इसे कैसे चुका पाऊंगा. मैं टमाटर की फसल की सिंचाई इस उम्मीद से कर रहा हूं कि इससे कुछ पैसे मिलेंगे. अगर बारिश नहीं होती है और फसल ख़राब हो जाती है तो हमें अपनी ज़मीन और मवेशी बेचकर शहर चले जाना होगा."
ये कहते हुए माध्वय्या की आवाज़ में उम्मीद भी थी और ना-उम्मीदी भी.
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'मुआवज़ा दिया जाएगा'
कल्याण दुर्गम में रेवेन्यू विभाग के प्रभारी श्रीनिवासुलु बीबीसी को बताते हैं, "हम मल्लप्पा के परिवार को जल्द से जल्द मुआवज़ा देने का आश्वासन देते हैं. हमने उसकी फ़ाइल ज़िला कलेक्टरेट में भेज दी है."
वो कहते हैं, "मल्लप्पा के परिवार को प्रशासन से अब भी पांच लाख रुपया मुआवज़े का इंतज़ार है और हम बैंक के उस पर डेढ़ लाख के कर्ज़ को एकमुश्त चुकता कर देंगे."
श्रीनिवासुलु ने बीबीसी को बताया, "उसका परिवार निजी कर्ज़ को मुआवज़े की रकम से चुकता कर सकता है. हम मल्लप्पा के बेटे और उसकी पत्नी के नाम एक संयुक्त खाता खोलेंगे और अलग-अलग चरणों में मुआवज़े की रकम जारी करेंगे."
अनंतपुर ज़िला प्रशासन की प्रकाशित की गई एक रिपोर्ट के मुताबिक 1998-2017 के बीच यहां 932 किसानों ने ख़ुदकशी की है. ज़िले में पिछले 17 सालों में लगातार 9 सालों तक भूजल सूखा रहा है.
ये आंकड़ा 2002 से तैयार किया जा रहा है. ज़िला भूजल विभाग की आधिकारिक रिपोर्ट में ये बताया गया. अधिकारियों ने भूजल में 2011-2018 दिसम्बर के बीच 12.9 मीटर से 27.21 मीटर तक गिरावट दर्ज की है.