शरद यादव स्मृति शेष : जब उसूलों के लिए दे दिया था लोकसभा से इस्तीफा
शरद यादव का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के एक किसान परिवार में हुआ था। उनके जीवन पर देहाती दुनिया की गहरी छाप थी।
शरद यादव भारतीय राजनीतिक की अजीम हस्ती थे। वे निरंकुश सत्ता के विरोध के प्रतीक थे। उन्होंने ही पहली बार इस बात का भरोसा दिलाया था कि महाशक्तिमान इंदिरा गांधी को हराया भी जा सकता है। वे लोकनायक जयप्रकाश नारायण के क्रांतिकारी आंदोलन के प्रेरणास्रोत थे। गैरकांग्रेसवाद के सूत्रधार थे। समाजवाद के सच्चे सिपाही थे। लेकिन इतने महत्वपूर्ण योगदान के बाद भी भारतीय राजनीति में उन्हें वह सम्मान नहीं मिला जिसके वे हकदार थे।
जब लोकसभा से दिया था इस्तीफा
शरद यादव का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के एक किसान परिवार में हुआ था। उनके जीवन पर देहाती दुनिया की गहरी छाप थी। इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद भी उन पर अंग्रेजियत हावी नहीं हो पायी थी। वे आजीवन धोती-कुर्ता पहनते रहे। उनकी बोली में आंचलिक भाषा का स्पष्ट प्रभाव था। मिजाज से खांटी समाजवादी थे। कभी नाम-दाम की परवाह नहीं की। 1974 में वे जबलपुर से उप चुनाव जीत कर वे लोकसभा में पहुंचे थे। तब उनकी उम्र सिर्फ 27 साल थी। लोकसभा का चुनाव 1971 में हुआ था और उसका कार्यकाल 1976 तक था। शरद यादव को 1976 तक सांसद रहना था। लेकिन इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के दौरान संसद का कार्यकाल एक साल के लिए और बढ़ा (1977) दिया। तब शरद यादव ने इसका विरोध किया। उन्होंने कहा, मुझे 1976 तक के लिए ही जनादेश मिला है। फिर मैं इससे ज्यादा समय के लिए सांसद क्यों रहूं? तब उन्होंने वरिष्ठ समाजवादी नेता मधु लिमये के साथ लोकसभा सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था।
देशज शैली के नेता का अंत
जबलपुर को मध्य प्रदेश की शैक्षणिक और सांस्कृतिक राजधानी माना जाता है। राज्य के दूर-दराज इलाकों से लोग यहां पढ़ने आते हैं। स्कूल की पढ़ाई पूरा करने के बाद शरद यादव होशंगाबाद से जबलपुर आये। समाजवादी पार्टी ने 1964 में अपनी युवा इकाई के लिए युवजन सभा का गठन किया था। कॉलेज के छात्रों में युवजन सभा का विस्तार हो रहा था। कॉलेज की पढ़ाई के दौरान शरद यादव इस संगठन से जुड़े। तब समाजवादी चिंतक किशन पटनायक छात्रों के बीच बहुत लोकप्रिय थे। छात्र राजनीति में सक्रिय होने के बाद वे जबलपुर विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष बने। 1974 में सांसद बनने के बाद वे भारतीय राजनीति के आकाश पर छा गये। उस समय लालू यादव और नीतीश कुमार संसदीय राजनीति के परिदृश्य में कहीं थे ही नहीं। जबकि शरद यादव परिवर्तन का प्रतीक बन चुके थे। 1979 में जब जनता सरकार का पतन हुआ तो रूतबे के हिसाब से शरद यादव को जेपी के असली उत्तराधिकारी के रूप में स्थापित होना चाहिए था। लेकिन उनके स्वभाव और नियति के कारण ऐसा संभव नहीं हो सका।
समाजवाद की खोज में भटकते रहे
राम मनोहर लोहिया के आदर्शों को अपनी राजनीति का आधार मानने वाले शरद यादव अपने समकालीन समाजवादी नेताओं से बिल्कुल अलग थे। खुद को लोहियावादी कहने वाले मुलायम सिंह यादव, लालू यादव और नीतीश कुमार ने अलग-अलग कारणों से अपना राजनीतिक दल बनाया। ये एक साथ नहीं रह सके। जब कि शरद यादव समाजवाद की खोज में इस दल से उस दल में भटकते रहे। उन्होंने पार्टी तब बनायी जब उनका राजनीति पराभव नजदीक आ गया था। अपनी मूल मिट्टी (मध्य प्रदेश) से कटने के कारण वे समाजवादी दलों में हमेशा आउटसाइडर समझे गये। कुछ नेताओं ने उनका उपयोग किया फिर हाशिये पर छोड़ दिया।
जब मंडल लहर में हार गये चुनाव
1990 में मंडल आरक्षण लागू हुआ था। इसमें शरद यादव की भी महत्वपूर्ण भूमिका थी। वे मंडलवाद के प्रणेता थे। इसके बावजूद वे 1991 में बदायूं से लोकसभा का चुनाव हार गये थे। मंडलवाद की लहर में शरद यादव का हारना एक बड़ी राजनीतिक घटना थी। बाद में उन्होंने अपनी हार के लिए मुलायम सिंह यादव को जिम्मेदार ठहराया था। इसी हार ने उन्हें बिहार आने के लिए बाध्य किया था। तब लालू यादव ने उन्हें 1991 में ही मधेपुरा से लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए बिहार बुलाया था। उस समय मधेपुरा में नियत कार्यक्रम के बाद लोकसभा का चुनाव हुआ था। इसलिए शरद यादव को फिर किस्मत आजमाने का मौका मिल गया। वे जीत तो गये लेकिन इसके बाद उनकी राजनीति 'परजीवी' हो गयी थी।
शानदार शुरुआत के बाद विचलन
उन्होंन कभी मुलायम सिंह यादव और लालू यादव की तरह समाजवादी लबादा ओढ़ कर यादव नेता बनने की कोशिश नहीं की। अपने राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए कभी निजी स्वार्थ को आगे नहीं रखा। यह विडंबना है कि जिन लोगों को शरद यादव ने राजनीति में खड़ा किया बाद में उन्होंने ही उनका अपमान किया। वे अपनी राजनीति के लिए लालू यादव और नीतीश कुमार पर आश्रित हो गये जिसकी वजह से उनका विशाल आभामंडल धीरे-धीरे चमक खोता गया। लालू यादव और नीतीश कुमार ने उनके साथ जो किया वो जगजाहिर है। शरद यादव को नजदीक से जानने वाले लोगों का कहना है कि अगर वे जबलपुर या होशंगाबाद में जमे रहते तो शायद ताउम्र राजनीति के शीर्ष पर स्थापित रहते। उनका उत्तर प्रदेश या बिहार जाना, एक बड़ी भूल थी। शरद यादव 1980 में जबलपुर से लोकसभा का चुनाव हार गये थे। जेपी गुजर चुके थे। जनता पार्टी विखंडित हो गयी थी। ऐसे में उन्होंने राजनीति की जो नयी राह चुनी वह दीर्घकालिक राजनीति के लिए सही साबित नहीं हुई।
राजनीति बदलने वाले शरद खुद बदल गये थे
जिस गैरकांग्रेसवाद की जमीन पर शरद यादव का राजनीति उत्कर्ष हुआ था, बाद में वे उसी कांग्रेस के नजदीक हो गये। इंदिरा गांधी की निरंकुश सत्ता का विरोध करने वाले शरद यादव पर सोनिया गांधी के समर्थक होने का आरोप लगा था। पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल एपीजे कलाम ने अपनी किताब में लिखा था कि शरद यादव 2004 में सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाने के पक्षधर थे। वे चाहते थे कि सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी जाए। जब उस समय विदेशी मूल के मुद्दे पर सोनिया गांधी का पुरजोर विरोध हो रहा था। पूर्व राष्ट्रपति कलाम ने एक किताब लिखी है टर्निंग प्वाइंट्स। इस किताब का प्रकाशन 2012 में हुआ था। इस किताब के खुलासे के बाद शरद यादव . कलाम पर बहुत नाराज हुए थे।
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