शंकराचार्य जी क्यों न सभी साईं मंदिरों से भगवान की मूर्तियां हटा दी जायें?
[विवेक शुक्ला/अजय मोहन। वर्धा में ज्योतिष एवं द्वारका पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरुपानंद जी द्वारा आयोजित धर्म संसद में फैसला लिया गया कि साईं भगवान नहीं हैं। इस फैसले के साथ फरमान जारी कर दिया गया कि साईं बाबा की मूर्तियां सभी मंदिरों से हटा दी जायें। धर्म के नाम पर की जा रही इस राजनीति पर तो बस एक ही सवाल जहन में आता है। वो सवाल मैं सिर्फ शंकराचार्य जी से ही पूछना चाहूंगा।
सवाल- माननीय शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती जी क्यों न देश भर के सभी साईं मंदिरों से सारे भगवानों की मूर्तियां हटा दी जायें? फिर चाहे वो हनुमान जी हों या फिर दुर्गा माता और या गणपति! शंकराचार्य जी क्या वह भगवान का अपमान नहीं होगा?
वर्धा में धर्म संसद में देश के तेरह अखाड़ों और चार शंकराचार्यों का प्रतिनिधित्व हुआ। नरेन्द्र गिरी जी महाराज की अध्यक्षता में हुई सभा में सभी इस बात पर एकमत थे कि साईं भगवान नहीं हैं। दो शंकराचार्य स्वामी भारती तीर्थ महाराज (श्रृंगेरी पीठ), स्वामी निश्चलानंद जी महाराज (पुरी पीठ) ने भी अपने-अपने प्रतिनिधियों के जरिए स्पष्ट किया कि साईं में भगवान होने की योग्यता नहीं है।
संसद ने प्रस्ताव पारित करके कहा कि साईं भगवान नहीं है, साईं पूजा शास्त्र सम्मत नहीं है, साईं कोई अवतार भी नहीं हैं और न ही हिंदू सनातन धर्म में उनका कोई उल्लेख है। मंदिरों से साईं की मूर्तियां हटाये संबंधी प्रस्ताव में कहा गया कि अगर साईं भक्त ऐसा नहीं करेंगे तो संत खुद मंदिरों से मूर्तियों को हटा देंगे। इन पंक्तियों में एक टकराव का भाव है। लेकिन चार पीठों के शंकराचार्यों ने एकमत होकर कह दिया है कि साईं भगवान नहीं हैं। धर्म संसद ने एक निर्णय ले लिया है, जिसमें इतने अखाड़े, शंकराचार्यों की सहमति है और काशी विद्वत परिषद की मुहर है।
साईं को भगवान माने या न माने
साईं को भगवान माने या नहीं इस पर मतभेद की गुंजाइश है, पर धर्मक्षेत्र में इसका निर्णय कौन करेगा? सरकार, मीडिया, कानून और संसद तो कर नहीं सकती। अगर धर्म संसद ने निर्णय कर दिया तो उसका खंडन कौन करेगा? कुछ साधु इसके विरोध में भी हैं।
मेरा मानना है कि साईं भक्त तत्काल सनातन धर्म के मंदिरों में उनकी मूर्तियां लगाने से परहेज करें। सनातन धर्म के मंदिरों का जिस तरह हाल के वर्षों में साईंकरण हुआ है वह अभद्र और अशालीन प्रक्रिया है। साईं का साहित्य पढ़ने से यह स्पष्ट होता है कि बहुत गहरा आध्यात्मिक दर्शन का आधार वहां नहीं है। लेकिन मनुष्य की आस्था है, हम उस आस्था को जबरन रोक नहीं सकते हैं। पर धर्म के शीर्ष संत होने के कारण शंकराचार्य एवं अन्य संतों को भी यह अधिकार है कि अगर उन्हें कोई पंथ अपने सनातन धर्म के विरुद्ध लगता है तो वे उसके विरुद्ध आवाज उठाएं और निर्णय दें। यह निर्णय पर किसी पर थोपा नहीं जा सकता।
वरिष्ठ लेखक अवधेश कुमार कहते हैं कि स्वामी स्वरुपानंद से उनके राजनीतिक विचारों को लेकर भारी संख्या में लोगों को एलर्जी है। उनके द्वारा आहूत धर्मसंसद को कुछ लोग केवल इस कारण खारिज कर रहे हैं कि वे कांग्रेस के समर्थक हैं। उनमें अब ऐसे लोग भी शामिल हो गए हैं जो स्वयं साधु वेश धारण कर चुके हैं, आश्रम चलाते हैं और कांग्रेस की ओर से चुनाव भी लड़ चुके हैं।