रंजन गोगोई यौन उत्पीड़न मामला: उच्चतम न्यायालय से इंसाफ़ की मेरी उम्मीदें टूटीं-शिकायतकर्ता
ये शिकायतकर्ता के हाथ में है कि वो कौन सा रास्ता चुनती हैं. वो अपने डिस्पोज़ल ऑर्डर को भी चुनौती दे सकती हैं. वो एक क्रिमिनल शिकायत भी कर सकती हैं.
सुप्रीम कोर्ट की आंतरिक समिति ने चीफ़ जस्टिस रंजन गोगोई पर लगे यौन उत्पीड़न के आरोपों को निराधार पाया है.
आंतरिक समिति ने वरिष्ठता क्रम में नंबर दो जज, जस्टिस मिश्रा को अपनी रिपोर्ट 5 मई को ही पेश कर दी थी. इसकी एक कॉपी जस्टिस रंजन गोगोई को सौंपी गई लेकिन शिकायतकर्ता महिला को इसकी प्रति नहीं दी गई.
शिकायतकर्ता महिला ने इसके बाद कहा कि वो ये नहीं बता सकतीं कि उनके आरोपों को किस बुनियाद पर ख़ारिज किया गया है.
जो रिपोर्ट आई है उसे लेकर शंका इसलिए है क्योंकि सबसे पहले तो ये एक्स पार्टी रिपोर्ट है और एक्स पार्टी रिपोर्ट का कोई महत्व होता नहीं है.
दूसरी बात ये कि शिकायतकर्ता महिला को अपने लिए वकील चुनने का मौक़ा नहीं दिया गया और ये किसी व्यक्ति का मौलिक अधिकार होता है.
इसके अलावा जांच समिति में जो तीन जज हैं उन्हें किसने चुना इसके बारे में हमें कुछ पता नहीं है. इसके संबंध में ना तो कई नोटिफिकेशन है न ह कोई रेज़ोल्यूशन है.
और सबसे बड़ी बात ये है कि 20 अप्रैल को चीफ़ जस्टिस ख़ुद बेंच पर बैठे थे. उस दिन के बाद जो कुछ भी हुआ वो ग़ैर-क़ानूनी हुआ है इसलिए इस रिपोर्ट का मुझे कोई महत्व लगता नहीं है.
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के सेक्रेटरी जनरल ने एक बयान जारी कर कहा था कि ये रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की जाएगी. इस बयान में एक केस का हवाला दिया गया है जो साल 2003 में इंदिरा जयसिंह ने लड़ा था. इंदिरा जयसिंह बनाम सुप्रीम कोर्ट 5 एससीसी 494 मामले के अनुसार आंतरिक प्रक्रिया के तहत गठित समिति की रिपोर्ट सार्वजनिक करना अनिवार्य नहीं है.
2003 का वो केस क्या था?
वो भी एक यौन उत्पीड़न का मामला था. कर्नाटक हाईकोर्ट के एक जज के ख़िलाफ़ योन उत्पीड़न का आरोप लगा था.
उस वक़्त एक पब्लिक नोटिफिकेशन जारी किया गया था और एक जांच भी बैठाई गई थी. उस जांच में मैं भी गई थी जानकारी देने के लिए.
जब रिपोर्ट आई तो मैंने सुना कि उस मामले को भी क्लीन चिट दे दी गई थी. इसके बाद मैं सुप्रीम कोर्ट गई थी और कहा था कि रिपोर्ट की प्रति मिलनी चाहिए.
मेरी उस याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला दिया कि हम आपको रिपोर्ट की प्रति नहीं देंगे.
लेकिन आपको ये जानना ज़रूरी है कि उस समय जानकारी का क़ानून (सूचना का अधिकार क़ानून) नहीं था. अब ये क़ानून आ गया है और क़ानून बदला है तो सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला भी बदलना पड़ेगा.
मैं मानती हूं कि वो फ़ैसला इस केस पर लागू नहीं हो सकता है.
फ़िलहाल शिकायतकर्ता को रिपोर्ट की प्रति नहीं मिली है. एक बयान में उन्होंने कहा कि उन्हें रिपोर्ट की प्रति मिलेगी ऐसा नहीं लगता. ऐसे में उनके पास अब क्या विकल्प बचते हैं ये जानना महत्वपूर्ण है.
अब भी शिकायतकर्ता के पास कई रास्ते हैं. सबसे पहले तो इस रिपोर्ट को चुनौती दी जा सकती है.
ये एक प्रशासनिक रिपोर्ट है ओर न्यायिक स्तर पर इसे चुनौती दी जा सकती है.
ये शिकायतकर्ता के हाथ में है कि वो कौन सा रास्ता चुनती हैं. वो अपने डिस्पोज़ल ऑर्डर को भी चुनौती दे सकती हैं. वो एक क्रिमिनल शिकायत भी कर सकती हैं.
रिपोर्ट की प्रति भर न मिलने से ये मान लेना उचित नहीं कि उनके सामने अब सभी रास्ते बंद हो गए हैं.
वो इस रिपोर्ट की प्रति मांगने के लिए कोर्ट में जा सकती हैं. और फ़ैसला जो भी हो उनके सामने अभी और रास्ते भी हैं.
कई हलक़ों में ये कहा जा रहा है कि मुख्य न्यायाधीश के ख़िलाफ़ कार्यवाई करवाने का एक ही रास्ता है कि उनके ख़िलाफ़ महाभियोग लाया जाए.
लेकिन ऐसा है नहीं. ये इकलौता रास्ता नहीं है.
लेकिन मध्यप्रदेश के एक मामले को देखें तो उस मामले में एक महिला ने जज के ऊपर यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए थे जिसके बाद उनके ख़िलाफ़ महाभियोग लाया गया था.
आरोप लगने के बाद राज्यसभा की तरफ से जज के ख़िलाफ़ महाभियोग लाया गया था.
(वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह से बात की बीबीसी संवाददाता दिव्या आर्य ने.)