Rani Gaidinliu:अंग्रेजों के नाक में दम करने वाली इस आदिवासी वीरांगना के बारे में जानिए
नई दिल्ली, 22 नवंबर: केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने सोमवार को वर्चुअल माध्यम से मणिपुर में 'रानी गाइदिन्ल्यू ट्राइबल फाइटर्स म्यूजियम' की आधारशिला रखी है। इस मौके पर उन्होंने रानी गिडालू या रानी गाइदिनल्यू को वीरता और साहस का प्रतीक बताया है। भारत सरकार इस म्यूजियम का निर्माण 15 करोड़ रुपये के लागत से करवाएगी, जो जनजातीय कल्याण मंत्रालय ने मंजूर किया है। आइए रानी गाइदिन्ल्यू के बारे में बात करते हैं, जिन्होंने किशारोवस्था से ही ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ मुहिम छेड़ दी थी और जबतक जीवित रहीं,समाज के लिए काम करती रहीं।
कौन थीं रानी गाइदिनल्यू ?
रानी गाइदिन्ल्यू का जन्म 26 जनवरी, 1915 को मणिपुर के मौजूदा तामेंगलॉन्ग जिले में हुआ था और वो 1993 तक जीवित थीं। वह नागा समाज की आध्यात्मिक और राजनीतिक नेता थीं, बावजूद उन्होंने मणिपुर, नागालैंड और असम में अंग्रेजो के खिलाफ सशस्त्र आंदोलन की अगुवाई की थी। वो रॉन्गमेई जनजाति की थीं, जिसे काबुई के नाम से भी जाना जाता है। 1927 में सिर्फ 13 साल की उम्र में ही वो अपने चचेरे भाई हाइपॉन्ग जदोनांग के साथ हेराका आंदोलन में कूद पड़ी थीं, जिसका लक्ष्य नागा जनजातीय धर्म का फिर से उत्थान करना और ब्रिटिश शासन का अंत कर स्वशासित नागा राज स्थापित करना था।
नागा स्वतंत्रता सेनानी को 'रानी' किसने कहा ?
1932 में सिर्फ 16 साल की उम्र में ही अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और ब्रिटिश हुकूमत ने आजीवन कारावास की सजा सुना दी। 1932 से लेकर 1947 तक यह नागा स्वतंत्रता सेनानी उत्तर पूर्व के कई जेलों में रखी गईं। 1947 में देश की आजादी के बाद जब उन्हें रिहाई मिली तो भी उन्होंने समाज के बेहतरी के लिए अपनी सेवाएं देते रहने का काम किया। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें 'पहाड़ों की बेटी' बताया और उनके साहस के लिए उन्होंने ही उन्हें 'रानी' की उपाधि दी। उन्हें पद्म भूषण सम्मान से भी सम्मानित किया जा चुका है।
अपने ही समाज के अलगाववादियों का भी किया सामना
असम सरकार ने सिल्चर में इस नागा स्वतंत्रता सेनानी के सम्मान में एक पार्क विकसित किया है, जिसमें उनकी एक प्रतिमा भी लगाई गई है। 1996 में भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया था और 2015 में एक स्मारक सिक्का भी जारी किया गया था। रानी गिडालू जब तक जीवित रहीं, उन्होंने अपने क्षेत्र के लोगों को हक दिलाने के लिए संघर्ष किया। उनका मानना था कि अपनी संस्कृति, भाषा और अपनी मिट्टी को नजरअंदाज करने का मतलब होगा, अपनी पहचान को गंवा देना। हेराका संस्कृति को बचाए रखने के लिए वह सिर्फ अंग्रेजों से ही नहीं लड़ी थीं, उन्होंने अपने ही समाज के अलगाववादियों का भी सामना किया।
रानी गाइदिनल्यू को क्यों कहते हैं 'नागलैंड की लक्ष्मीबाई' ?
उन्होंने अपने जीवन के शुरुआती दिनों से जिस तरह की वीरता और अदम्य साहस का परिचय दिया था, उसके चलते वह 'नागलैंड की लक्ष्मीबाई' के तौर पर भी जानी जाने लगीं। वह गुरिल्ला युद्ध में माहिर थीं और जबतक आजाद रहीं, अंग्रेजों के नाक में दम करके रख दिया। ऊपर से उनकी बढ़ती लोकप्रियता ने ब्रिटिश हुकूमत को परेशान कर दिया था। वह जबतक बाहर रहीं तीर-कमान और भालों से ही अंग्रेजी बंदूकों का मुकाबला किया। 24 अगस्त, 2015 में उनकी जन्म शताब्दी समारोह का आगाज करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें 'रानी-मां' कहकर बुलाया था। इनके नाम पर एक स्त्री शक्ति पुरस्कार भी शुरू किया गया और भारतीय तटरक्षक दल के एक जहाज का नाम भी उनके नाम पर रखा गया है। (रानी गाइदिन्ल्यू की तस्वीरें-गृहमंत्री के ट्विटर हैंडल और आजादी का अमृत महोत्सव की वेबसाइट से साभार)