कांग्रेस के लिए ‘हा..तात..हा..तात’ करने वालों से मुक्ति जरूरी
नई दिल्ली। लोकतंत्र के लिए विपक्ष का होना जरूरी है और स्वस्थ लोकतंत्र की जरूरी शर्त है मजबूत विपक्ष। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में विपक्ष तो है लेकिन लोकसभा चुनाव के बाद से ही बिखरा बिखरा है। कांग्रेस सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है लेकिन कांग्रेस के भीतर लोकतंत्र नहीं “एकतंत्र” है। पिछले एक महीने से कांग्रेस के भीतर जो हो रहा है उसे देखने से ऐसा ही लगता है। राहुल गाँधी ने पराजय की जिम्मेदारी स्वीकार करते हुए इस्तीफे की पेशकश की है लेकिन कांग्रेस के दरबारी नेता 'हा..तात..हा..तात’ करते हुए इसे स्वीकारने को तैयार नहीं हैं। राहुल के इस्तीफे को लेकर पार्टी में गजब की कश्मकश है।
पहले ‘चापलूस तंत्र' को तोड़ना जरूरी
इसमें न तो राहुल गांधी का दोष है न ही हल्ला मचाने वाले नेताओं का। सारा दोष कांग्रेस की उस ‘संस्कृति' का है जो पिछले चार दशक में धीरे धीरे पनपी। कांग्रेस की सारी राजनीती गांधी परिवार के इर्दगिर्द घूमती रही। इसमें गाँधी परिवार भी खुश था और अपनी अपनी रियासतों में राज कर रहे उनके छत्रप भी। हालांकि गांधी परिवार ने इस दौरान अपनों को खोकर इसकी कीमत भी चुकाई। लेकिन सत्ता ऐसा सुख है जो बड़े से बड़े दुःख को जल्द ही भुला देती है। आत्ममुग्ध कांग्रेस को पहला झटका 2014 में लगा। कांग्रेस ने इससे सबक नहीं लिया और उसे 2019 में और बड़ा झटका लगा। ऐसा लगता है कि अब कांग्रेस की तन्द्रा टूटी है पर कांग्रेस को अपने आन्तरिक लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए पहले उस ‘चापलूस तंत्र' को तोडना होगा जिसने पार्टी को जकड रखा है। इसी ‘तंत्र' की वजह से प्रणब मुखर्जी जैसे काबिल और सक्षम नेता किनारे कर दिए गए। इसी ‘चापलूस तंत्र और पुत्रमोह' में जकड़ी कांग्रेस को लेकर अब राहुल गाँधी की पीड़ा खुलकर सामने आ रही है।
हाल ही में राहुल गांधी ने पार्टी की युवा इकाई के कुछ वरिष्ठ पदाधिकारियों से मुलाकात के दौरान कहा कि उन्हें इस बात का दुख है कि उनके पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफे की पेशकश के बाद भी कुछ मुख्यमंत्रियों और वरिष्ठ नेताओं को अपनी जवाबदेही का अहसास नहीं हुआ। राहुल गांधी ने इस्तीफे देने के निर्णय पर कायम रहने का अपना रुख दोहराया। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि वह पार्टी प्रमुख नहीं रहते हुए भी सक्रिय भूमिका निभाते रहेंगे। यानी पार्टी अध्यक्ष न रहते हुए भी रिमोट कंट्रोल उनके पास होगा।
ढीठ नेताओं पर असर नहीं
इसके पहले भी राहुल गाँधी राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ पर उनके पुत्रमोह को लेकर तल्ख़ टिप्पणी कर चुके हैं। लेकिन इन नेताओं पर कोई असर नहीं है। राहुल युवा नेताओं को जिम्मेदारी देना चाहते हैं लेकिन बुजुर्ग नेता हिलने को तैयार नहीं। कांग्रेस की इस ‘राग दरबारी' में नेताओं में आपस में अनबन है। अशोक गहलोत और सचिन पायलट में नहीं बनती, कमलनाथ और ज्योतिरादित्य में छत्तीस का आंकड़ा है। नवजोतसिंह सिद्धू ने कैप्टन अमरिंदर की नाक में दम कर रखा है। लोकसभा में अधीर रंजन चौधरी कांग्रेस संसदीय दल के नेता बना दिए गए लेकिन राहुल उन्हें पसंद नहीं करते। कहा जा रहा है कि वह सोनिया गाँधी की पसंद हैं। लेकिन आते ही उन्होंने अपनी फजीहत करा दी और बाद में उन्हें माफ़ी मांगनी पड़ी। इसे तो कांग्रेस का कल्याण होने से रहा। इस स्थिति के लिए क्या कांग्रेस की चारण संस्कृति जिम्मेदार नहीं?
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कांग्रेस कमान सम्भालने में कौन सक्षम
लोकसभा चुनाव के पहले तक हवाई किले बनाने वाली कांग्रेस औंधे मुंह जमीन पर है। लोकसभा चुनाव को लेकर कांग्रेस का आकलन गलत निकला। प्रियंका गांधी वाड्रा भी कोई चमत्कार नहीं दिखा सकीं। पराजय की जिम्मेदारी लेते हुए पार्टी अध्यक्ष राहुल गाँधी ने इस्तीफे की पेशकश कर दी लेकिन इस्तीफ़ा दिया नहीं। महीने भर से कांग्रेस में कोहराम मचा हुआ है। देश में कांग्रेस की कमान कौन संभालेगा यह तय नहीं हो पा रहा। राहुल इस्तीफ़ा देने पर तुले हुए हैं। लेकिन गाँधी परिवार भक्त नेता एक सुर से इस्तीफे का विरोध कर रहे। प्रत्यक्ष तौर पर लगता है कि राहुल गाँधी का अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा सही कदम है। राहुल गाँधी पार्टी आधार को मजबूत करने के लिए काम करना चाहते हैं।
सवाल उठता है की गाँधी परिवार के बाहर कौन सा ऐसा नेता है जो कांग्रेस को फिर से खड़ा करने में सक्षम होगा। अशोक गहलोत, कैप्टन अमरिंदर सिंह, गुलाम नबी आज़ाद, अहमद पटेल, मल्लिकार्जुन खड्गे, दिग्विजय सिंह,रणदीप सुरजेवाला जैसे कई दूसरी पंक्ति के नेता हैं लेकिन इनमे से किसी में कांग्रेस की कमान सम्भालने की क्षमता नहीं। सबसे बड़ी समस्या है कि गाँधी परिवार नहीं चाहता कि पार्टी में किसी भी नेता का कद उनके परिवार के समकक्ष हो। दूसरी समस्या ऐसा कद्दावर नेता खोजने की है जो प्रणव मुखर्जी और नरसिम्हा राव जैसे कैलिबर वाला हो।
कांग्रेस में नेता अधिक हैं और कार्यकर्ता कम
पिछले करीब चार दशक से कांग्रेस पर गाँधी परिवार दबदबा रहा है। पहले इंदिरा गाँधी, फिर राजीव गांधी उसके बाद सोनिया गाँधी और अब राहुल गाँधी के पास है पार्टी की कमान। चार दशकों में सिर्फ सीताराम केसरी और नरसिम्हा राव ही ऐसे कांग्रेस अध्यक्ष थे जो गांधी परिवार के सदस्य नहीं थे। कांग्रेस पार्टी पर गांधी परिवार का कब्ज़ा है। राहुल गांधी अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद भी चाहेंगे की पार्टी पर उनकी पकड़ मजबूत रहे। आने वाले सभी चुनावों में कांग्रेस को अत्यंत संगठित बीजेपी से लोहा लेना पड़ेगा। कांग्रेस में अभी चिंतन ही हो रहा और बीजेपी अपने संगठन को और मजबूत बनाने में जुट गई है। दरअसल कांग्रेस में नेता अधिक हैं और कार्यकर्त्ता कम। जो नेता हैं भी उनमें नेतृत्व की क्षमता कम चापलूसी की क्षमता अधिक है। इसी कल्चर ने कांग्रेस का डीएनए ख़राब कर दिया है। पार्टी नेताओं से नहीं कार्यकर्ताओं की सक्रियता से आगे बढ़ती है।
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बीजेपी से लोहा लेने के लिए बीजेपी की तर्ज पर काम करना जरूरी
कहावत है की लोहा लोहे को काटता है। कांग्रेस अगर बीजेपी से लोहा लेना चाहती है तो ‘हा..तात..हा..तात' करने वाले नेताओं को किनारे कर बीजेपी की तर्ज पर कार्यकर्ताओं को तैयार करना होगा। फिलहाल कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी संगठन के कामकाज में रुचि लेने लगे हैं। चुनाव नतीजों के करीब एक माह बाद राहुल गांधी ने छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल से मुलाक़ात की। मुलाकात के बाद शुक्रवार को छत्तीसगढ़ में मोहन मरकाम को प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त किया गया है। बृहस्पतिवार 27 जून को उन्होंने हरियाणा और महाराष्ट्र के नेताओं को बैठक की। वहीं महाराष्ट्र और दिल्ली के कांग्रेस के नेताओं चर्चा कर राहुल गांधी लोकसभा में हार के कारणों का पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं। सत्ता में हों या न हों, लेकिन देश के लोकतंत्र लिए एक मजबूत विपक्ष जरूरी है। इसी सोच के साथ राहुल को काम करना होगा।