चुनावी हार के सदमे से अब तक उबरा नहीं है विपक्ष
नई दिल्ली। लोकसभा चुनावों के परिणाम घोषित हुए करीब एक महीने होने जा रहे हैं। सरकार उसी दिन से सक्रिय हो चुकी है। सत्ताधारी पार्टी भाजपा न केवल सांगठनिक स्तर अपने सारे जरूरी फैसले कर रही है बल्कि निकट भविष्य में होने वाले विधानसभा चुनावों और आगामी लोकसभा चुनाव को मद्देनजर भी तैयारियों में जुट गई है। इसके विपरीत कांग्रेस समेत समूचे विपक्ष को जैसे सांप सूघ गया है। चुनावी हार से पूरा विपक्ष करीब एक महीने बाद भी उबर नहीं पाया है। इस पूरे अंतराल में विपक्ष की निष्क्रियता और एक खास तरह की चुप्पी से ऐसा लगता है जैसे या तो उनके पास करने को कुछ बचा नहीं है अथवा वे खुद इस हालत में नहीं बचे हैं कि कुछ कर सकें। चुनावों में हार कोई पहली बार नहीं हुई है। इससे पहले भी किसी न किसी की हार होती रही है। उसमें भी विपक्ष की बहुत सारी पार्टियां हुआ करती थीं। लेकिन इस तरह के हालात कभी सामने नहीं आए जैसे फिलहाल नजर आ रहे हैं। कुछ नेताओं के कुछ बयानों, पार्टियों की कोई समीक्षा बैठक और उसके बाद कुछ कार्रवाइयों को छोड़ दिया जाए, जो सब कुछ एकदम शांत-शांत सा है। ऐसा आभास हो रहा है जैसे देश में कोई समस्या नहीं है और संगठन के स्तर पर भी कुछ करने की कोई खास जरूरत नहीं रह गई है।
चुनाव बाद कांग्रेस समेत समूचे विपक्ष को जैसे सांप सूघ गया है
सभी विपक्षी पार्टियों ने शायद यह मान लिया है कि अब जब फिर चुनाव आएंगे, तो फिर कुछ गठबंधन कर लेंगे, कुछ रैलियां और रोड शो कर लेंगे। लोगों की समस्याओं से उनका वैसे भी कोई सरोकार नहीं बचा है। ऐसे में विपक्ष जैसे सबको सरकार और सत्ताधारी पार्टी के हवाले करके अपने राजनीतिक कर्तव्यों की इतिश्री मान बैठा है। अगर यह भी मान लिया जाए कि अभी नई सरकार ने कार्यभार ही संभाला है। ऐसे में विपक्ष को सरकार को काम करने देना चाहिए। यहां तक तो बात समझ में आती है। लेकिन कुछ भिन्न अर्थों में यह एकदम से नई सरकार नहीं है। पिछली सरकार को ही नया जनादेश मिला है। इस लिहाज से किसी नई सरकार जैसी स्थितियां नहीं हैं। अगर इसे छोड़ भी दिया जाए, तो भी अपनी राय रखने और कोई संयुक्त विपक्षी राय तो व्यक्त ही की जा सकती है। लेकिन इसका भी अभाव साफ परिलक्षित हो रहा है। अभी बजट सत्र शुरू हो चुका है जिसकी घोषणा बहुत पहले की जा चुकी थी। लोगों को उम्मीद थी विपक्ष कम से कम इस मुद्दे पर संयुक्त रूप से बैठक कर कोई रणनीति तय करेगा और उसके मुताबिक बजट सत्र में जाएगा, लेकिन उसका एक तरह से अभाव ही नजर आया। बजट को लेकर कोई औपचारिक बैठक तक नहीं की गई, संयुक्त रणनीति बनाने की बात तो बहुत दूर की रही। आम बजट को किसी सरकार की दिशा और दिशा का परिचायक के रूप में लिया जाता है। इससे पता चलता है कि सरकार कम से कम एक साल में किस तरह के आर्थिक फैसले करने वाली है। वैसे भी वर्तमान समय तमाम तरह के आर्थिक संकटों वाला माना जा रहा है। ऐसे में विपक्ष अगर बिना तैयारी के जा रहा है, तो आसानी से समझा जा सकता है कि वह किसी मूड में है।
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राहुल गांधी ने कर दी इस्तीफे की पेशकश
बीते चुनावों में कम से कम ऊपरी तौर पर ही सही कई लोगों को यह उम्मीद लग रही थी कि देश की सबसे बड़ी, पुरानी और मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस कुछ बेहतर प्रदर्शन करेगी। बीता लोकसभा चुनाव बतौर पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व में लड़ा गया था। इससे पहले तीन राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को जीत भी मिली थी और उसकी सरकार भी बनी थी। लेकिन लोकसभा चुनाव में उसे इसके विपरीत भारी नुकसान उठाना पड़ा। इतना ही नहीं, पूरे देश में कांग्रेस को आम मदतादा का समर्थन हासिल नहीं हो पाया और एक तरह से एक बार फिर उसका सफाया हो गया। इसका सदमा कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को इतना गहरे लगा कि उन्होंने इस्तीफे की पेशकश कर दी और कई बड़े पार्टी नेताओं पर अपने बेटे के लिए ही काम करने की बात कह कर आड़े हाथ लिया। इतना ही नहीं, लंबे समय तक खामोशी में रहे, हर किसी से मिलने से इनकार करते रहे, इस्तीफे पर अड़े रहे। यहां तक कि संसद सत्र शुरू होने से पहले छुट्टी पर भी चले गए। हालांकि इस बीच वह अपने चुनाव क्षेत्र गए, वहां रोड शो किया और केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार को निशाने पर भी लिया। लेकिन इस सबसे कहीं से यह नहीं लगा कि एक विपक्षी पार्टी और उसका नेता पूरे देश की खासकर उस जनता की जिसने उसे वोट दिया अथवा जो उस पर निगाह लगाए हुए है उसके बारे में वह कुछ करने की स्थिति में है। कांग्रेस आपसी खींचतान से ही नहीं उबर पा रही है और उसके नेतागण आपसी सिरफुटौवल में व्यस्त है। कर्नाटक में इन्हीं वजहों से सांगठनिक कार्रवाई की गई है। लोकतंत्र में विश्वास करने वाले लोग वोट भले ही किसी को दें, विपक्ष के प्रति हमेशा सजग रहते हैं कि उसकी राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में क्या भूमिका रहती है। इसमें कम से कम करीब इस एक महीने में कांग्रेस ने ऐसे लोगों को निराश ही किया है। लोगों को कम से कम यह उम्मीद थी कि बिहार में बच्चों की मौत और उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था पर कांग्रेस की ओर से कुछ हस्तक्षेप किया जाएगा अथवा खुद राहुल गांधी कम से कम बिहार का दौरा ही करेंगे। लेकिन ऐसा कुछ भी देखने को नहीं मिला।
बिहार में आरजेडी को मिली करारी हार
जिन क्षेत्रीय पार्टियों को बहुत मजबूत स्थिति में बताया जा रहा है और जिन्हें करारी हार का सामना करना पड़ा था उनमें बिहार की आरजेडी भी रही है। आरजेडी कम से कम बिहार में एक बड़ी ताकत मानी जा रही थी खासकर पिछले बिहार विधानसभा चुनाव के बाद जब वह सत्ता में भी आ गई थी। लेकिन लोकसभा चुनावों में उसे इतनी करारी हार का सामना करना पड़ा कि उसका एक भी सदस्य चुनाव नहीं जीत सका। यह किसी भी पार्टी के लिए निश्चित रूप से बड़ा सदमा हो सकता है लेकिन किसी भी राजनीतिक नेतृत्व को लेकर यह कल्पना नहीं की जा सकती है कि वह हार के सदमे से वियावान में समा जाएगा। बिहार में इनसेफेलाइटिस से हालात बहुत खराब हैं। सरकारी और गैरसरकारी आंकड़े बता रहे हैं कि वहां इस बीमारी से सवा सौ से ज्यादा बच्चों की मौत हो चुकी है और अभी भी हालात काफी गंभीर बने हुए हैं। पूरे देश में चिंता जताई जा रही है। लेकिन आरजेडी के लिए जैसे यह कोई मुद्दा ही नहीं है। आरजेडी नेता तेजस्वी यादव का कहीं कुछ अतापता नहीं चल रहा है। कम से कम वह औऱ उनकी पार्टी सरकार पर इस बात के लिए दबाव बना सकती थी कि वह बच्चों के बेहतर इलाज के लिए कुछ करे ताकि बच्चों की जान बचाई जा सके। इसके अलावा वह बीमारी और मौत के शिकार हो रहे बच्चों के परिजनों की सहानुभूति हासिल कर सकते थे। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने देर से ही सही, अस्पतालों का दौरा किया। लेकिन तेजस्वी तो बच्चों को देखने और उनके परिजनों से मिलने तक नहीं गए। इससे साफ पता चलता है कि वह शायद हार के सदमे से उबर नहीं पाए हैं।
सपा-बसपा का भी हाल ज्यादा अलग नहीं
कुछ इसी तरह का हाल उत्तर प्रदेश की दो सबसे बड़ी मानी जाने वाली विपक्षी पार्टियों सपा और बसपा का भी नजर आ रहा है जहां की कानून व्यवस्था को लेकर चौतरफा आलोचनाएं की जा रही हैं। लोकसभा चुनाव मे यह दोनों पार्टियां गठबंधन कर मैदान में उतरी थीं लेकिन परिणाम आए तो पता चला कि जनता ने इन्हें नकार दिया। इसके बाद न केवल गठबंधन टूट गया बल्कि दोनों ही पार्टियां और उनके नेता एक तरह से राजनीतिक परिदृश्य से गायब ही हो गए। मायावती की ओर से जरूर कुछ प्रेस बयान जारी किए जा रहे हैं। अखिलेश यादव तो राजनीतिक शून्यता के शिकार हो गए लगते हैं। विधानसभा चुनावों के बाद वह इस सदमे में थे कि लोगों ने उनके विकास कार्यों का भी मुल्य नहीं समझा और उन्हें वोट नहीं दिया। इस चुनाव में वह मानकर चल रहे थे कि गठबंधन उन्हें व उनकी पार्टी को एक बार फिर मजबूत कर देगा। वह भी नहीं हुआ। इस सबसे एक तरह से उनकी नेतृत्व क्षमता भी सवालों के घेरे में आ चुकी है। लेकिन उनके मतदाताओं को यह लगना स्वाभाविक है कि चुनावी हार-जीत होती रहती है। इससे जनता की समस्याओं के लिए आवाज उठाने की जिम्मेदारी से कोई पार्टी नहीं बच सकती। सपा और उसके नेतृत्व से भी यह अपेक्षा की जा रही थी कि वह कम से कम प्रदेश की कानून व्यवस्था को लेकर कुछ मुखर होगी लेकिन उसका नितांत अभाव ही सामने आ रहा है।
पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को सताने लगा है कुर्सी जाने का डर
इसी तरह आंध्रप्रदेश में चंद्रबाबू नायडू और उनकी टीडीपी का हो गया है। नायडू चुनावों से पहले और चुनावों के दौरान विपक्ष की सरकार बनाने के लिए प्रयासरत थे। चुनावी हार के बाद वह भी एकदम से गायब से हो गए हैं। दिल्ली में आम आदमी पार्टी का भी कुछ इसी तरह का हाल है। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी का भी हाल कुछ इसी तरह का है। लोकसभा चुनावों में तो हार हुई ही है अब विधानसभा में भी कुर्सी जाने का डर सताने लगा है। भाजपा वहां उनके लिए कुछ भी नहीं छोड़ रही है। ऐसे में वह अपने में ही उलझी हैं। इसके बावजूद कहा जा सकता है कि कम से कम वह कुछ तो कर ही रही हैं जिससे अन्य विपक्षी पार्टियां कुछ सीख सकती हैं। कारण भले ही कुछ हों, लेकिन जनता में यही संदेश जा रहा है कि विपक्ष किसी काम का नहीं नजर आ रहा है। लगता है वह इतना निराश हो चुका है कि शायद ही इससे उबर पाए। कई राजनीतिक पंडित बहुत सारे सुझाव भी दे रहे हैं, लेकिन लगता नहीं उन पर विपक्ष का कोई ध्यान जा रहा है। यह हालत किसी लोकतांत्रिक देश के लिए अच्छे संकेत नहीं माने जा सकते।
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