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नज़रिया: बिहार में बीजेपी का अंदाज बुलंद की जगह मंद क्यों है?

यानी एक समय नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ बेहद गरम रुख़ अपना कर, कुछ ही समय बाद नरम पड़ जाने वाले नीतीश कुमार अभी भी ग़ैरभाजपाई जमात में शामिल हो पाने जैसी गुंजाइश बचा कर रखना चाहते हैं?

जेडीयू ने दबाव बनाया था कि आगामी लोकसभा चुनाव से पहले नीतीश कुमार को 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए का मुख्यमंत्री-प्रत्याशी घोषित किया जाए. लेकिन बीजेपी राज़ी नहीं हुई.

By BBC News हिन्दी
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आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र बिहार में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) कई जीती हुई सीटों का नुक़सान सह कर भी सहयोगी दलों से चुनावी समझौता कर लेने पर विवश हुई है.

वह जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) के साथ सीटों की उम्मीदवारी में बराबर की हिस्सेदारी क़बूल कर चुकी है.

ज़ाहिर है कि इस कारण बिहार में बीजेपी के हौसले बुलंद नहीं, मंद नज़र आ रहे हैं.

याद रहे कि पिछले लोकसभा चुनाव में जेडीयू मात्र दो सीटों पर जीत पायी थी.

उधर बीजेपी को अन्य दो छोटे सहयोगी दलों - रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) और उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) के लिए भी कम-से-कम उनकी जीती हुई सीटें छोड़नी है.

वरना इनके छिटकने का नुक़सान उठाना पड़ सकता है.

शाह का बिहारी गणित?

इसी संदर्भ में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह से उपेंद्र कुशवाहा की आज मुलाक़ात होने वाली है.

फिर जल्दी ही रामविलास पासवान को भी अमित शाह बातचीत के लिए बुला सकते हैं.

एनडीए के घटक - एलजेपी और रालोसपा को ये अच्छा नहीं लगा कि बीजेपी ने जेडीयू से पहले ही फ़िफ़्टी-फ़िफ़्टी वाला समझौता कर लिया.

लेकिन मुख्य सवाल ये है कि पिछले लोकसभा चुनाव में बिहार की कुल 40 सीटों में से 30 पर चुनाव लड़ कर 22 सीटें जीत लेने वाली बीजेपी इस बार मात्र 16 या 17 पर ही चुनाव लड़ने को मजबूर क्यों हुई?

कारण कई हो सकते हैं. लेकिन जो मुख्य वजह सतह पर दिखती है, वह है बिहार में राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) और कांग्रेस गठबंधन की तरफ़ से संभावित बड़ी चुनौती.



फेल होती रणनीति

लालू यादव से जुड़ी जमात में सेंध लगाने के लिए बीजेपी द्वारा नियुक्त यादव नेताओं का बेअसर हो जाना सबने देखा है.

अक्सर यहाँ चुनावों में जातीय आधार इतना प्रबल हो जाता है कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की संभावना उभर नहीं पाती है. प्रयास ज़रूर होते हैं.

नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार
AFP
नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार

अयोध्या के राम मंदिर मामले में सुप्रीम कोर्ट से त्वरित सुनवाई और लोकसभा चुनाव से पहले फ़ैसले की जो उम्मीद बीजेपी ने की थी, वह अब पूरी होती नही लगती.

ऐसे में अगर जेडीयू, एलजेपी और रालोसपा बीजेपी के साथ न रहे, मतलब राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) यहाँ बिखर जाए, तो परिणाम का सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है.

ख़ासकर तब, जब बीजेपी राष्ट्रीय स्तर पर एक नहीं अनेक कारणों से मुश्किलों में फँसी हुई दिख रही हो.



रफ़ाल का भूत

मसलन कालेधन/नोटबंदी की किरकिरी, डीज़ल-पेट्रोल की मारक मूल्यवृद्धि, बैंकों का महाघपला, रफ़ाल डील पर सवाल और सीबीआई पर थू-थू समेत कई मसलों पर भारी फ़ज़ीहत हो रही है.

साथ ही लोकसभा चुनाव के समय नरेंद्र मोदी से बड़ी-बड़ी उम्मीदें बाँध कर उनके समर्थन में उमड़े जनसामान्य का अब तेज़ी से मोहभंग हो रहा है.

दलितों का समर्थन हासिल करने के प्रयास में सवर्णों की नाराज़गी झेलने जैसी मुश्किल इसी समय आ पड़ी है.

इधर बिहार में कथित डबल इंजन वाली राज्य सरकार की छवि प्रगति की तेज़ रफ़्तार लाने वाली सरकार जैसी नहीं बन पायी है.

यहाँ तो सरकारी संरक्षण में चल रहे बालिका गृह बलात्कार कांड समेत अपराध और भ्रष्टाचार की बढ़ती घटनाओं ने राज्य सरकार की छवि और बिगाड़ दी है.

इतना ही नहीं, ' बिहार में बहार हो, नीतीशे कुमार हो ' वाला पिछला चुनावी नारा अब एक मज़ाक बन कर रह गया है.

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क्योंकि इस जुमले का खोखलापन यहाँ बदस्तूर जारी अपराध और भ्रष्टाचार में साफ़-साफ़ दिखता है.

ज़ीरो टॉलरेंस से हीरो टॉलरेंस

ऐसे नारे और जुमले गढ़ने वाले फ़्रीलांस सियासी रणनीतिकार प्रशांत किशोर अब नीतीश कुमार के दलबद्ध सलाहकार बन गए हैं.

इन्हें पता होगा कि तेरह साल से बिहार में बरक़रार सरकारी मुखिया के शासनकाल में भी विकास इसलिए फ़ेल होता रहा, क्योंकि विकास के नाम पर पल रहे लूटतंत्र पर कभी कारगर चोट नहीं की गयी.

भ्रष्टाचार, ख़ासकर तरह-तरह के घोटाले, रिश्वत/कमीशनखोरी और ट्रांसफ़र-पोस्टिंग से वसूली में तो नीतीश राज को ' ज़ीरो टॉलरेंस ' नहीं, 'हीरो टॉलरेंस' वाले शासन के रूप में याद किया जाएगा.

इसलिए ' फिर से नीतीशे ' की तर्ज पर आगामी लोकसभा चुनाव में ' फिर से मोदी ' का नारा हिट होने के बजाय पिट जाने की आशंका से ग्रस्त दिखने लगा है.

वैसे, अपने दल और अपनी सत्ता की लचर स्थिति को सुधारने में नीतीश कुमार पिछले कुछ समय से अधिक सक्रिय लगने लगे हैं.

बीजेपी पर दबाव बढ़ा कर जेडीयू के हक़ में चुनावी समझौते को मोड़ देना, लगातार सांगठनिक बैठकें आयोजित करना और प्रशांत किशोर को अपने साथ जोड़ कर चुनावी रणनीति बनाने में जुट जाना उसी सक्रियता के कुछ नमूने है.

जेडीयू इस कोशिश में है कि वह बिहार में बीजेपी की जूनियर पार्टनर बन कर उस के पीछे-पीछे चलने जैसी भूमिका में बिलकुल न दिखे.

यानी एक समय नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ बेहद गरम रुख़ अपना कर, कुछ ही समय बाद नरम पड़ जाने वाले नीतीश कुमार अभी भी ग़ैरभाजपाई जमात में शामिल हो पाने जैसी गुंजाइश बचा कर रखना चाहते हैं?

जेडीयू ने दबाव बनाया था कि आगामी लोकसभा चुनाव से पहले नीतीश कुमार को 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए का मुख्यमंत्री-प्रत्याशी घोषित किया जाए. लेकिन बीजेपी राज़ी नहीं हुई.

लगता है जेडीयू की यह चुभन फ़िफ़्टी-फ़िफ़्टी वाले चुनावी समझौते से थोड़ी कम ज़रूर हुई होगी.

जो भी हो, सियासी टीकाकार तो यही मानते हैं कि नीतीश कुमार, रामविलास पासवान और उपेन्द्र कुशवाहा का एनडीए में बने रहना इन तीनों की स्वार्थजनित विवशता है.

अब आगे दोनों दलों में सीटों के आवंटन पर खींचतान, उम्मीदवारों के चयन में उठापटक और टिकट से वंचित प्रत्याशियों के हंगामे क्या-क्या रंग दिखाएँगे, अभी कहना मुश्किल है.

(इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं. इसमें शामिल तथ्य और विचार बीबीसी के नहीं हैं और बीबीसी इसकी कोई ज़िम्मेदारी या जवाबदेही नहीं लेती है)


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English summary
Opinion Why is the BJPs pride in Bihar rather elevated
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