नज़रिया: क्या मोदी को रोकने के लिए विपक्ष को चाहिए एक वीपी सिंह?
कामयाबी के लिये गैर-भाजपाई विपक्ष को गठबंधन का चरित्र बदलना होगा. उर्मिलेश का विश्लेषण
यूपी चुनाव के नतीजों के बाद एक बार फिर महागठबंधन की चर्चा शुरू हो गई है. 2014 के लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद भी ऐसी चर्चा चली थी.
लेकिन दिल्ली में किसी गठबंधन के बगैर अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को करारी शिकस्त दी.
कुछ ही महीने पहले अपने नेता नरेंद्र मोदी की अगुवाई में जिस पार्टी ने दिल्ली सहित देश भर में लोकसभा चुनाव में निर्णायक जीत दर्ज की थी, वह 70 सदस्यीय दिल्ली विधानसभा में महज तीन सीटें ही पा सकी.
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केजरीवाल की पार्टी को 54 फ़ीसदी मतों के साथ 67 सीटें मिलीं क्योंकि उन्होंने दिल्ली में तमाम सामाजिक समूहों को अपनी पार्टी की अगुवाई में लामबंद कर लिया. कुछ ही महीने बाद बिहार में विधानसभा चुनाव हुए. यहां भाजपा बड़ी ताकत के रूप में उभर रही थी इसलिये गैर भाजपा खेमे को महागठबंधन की जरूरत महसूस हुई.
लेकिन चुनाव से ऐन पहले मुलायम सिंह यादव पीछे हट गए. नीतीश कुमार के जनता दल (यू) और लालू प्रसाद यादव के राजद ने मिलकर चुनाव लड़ा.
तमाम चुनाव विश्लेषकों, सर्वेक्षकों और निजी चैनलों के आकलनों को ग़लत साबित करते हुए जद(यू)-राजद गठबंधन ने राज्य की 243 सदस्यीय विधानसभा में 178 सीटों पर कामयाबी हासिल की.
मोदी-शाह के अथक प्रयासों के बावजूद भाजपा और उसके सहयोगियों को महज 58 सीटें मिल सकीं. 2017 में मोदी-शाह की जोड़ी ने बाजी फिर अपने पक्ष में कर ली. यूपी में सपा-कांग्रेस गठबंधन नाकाम हो गया. भाजपा के पक्ष में ऐसे प्रचंड बहुमत की उम्मीद तो उसके शीर्ष नेताओं को भी नहीं थी. ये तीन अलग-अलग उदाहरण हैं.
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2014 में देश की सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत बनकर उभरी भाजपा को हराने के लिये दिल्ली में 'आप' को गठबंधन की जरूरत नहीं पड़ी क्योंकि वह स्वयं ही तमाम सामाजिक समूहों का गठबंधन बन गई.
बिहार और यूपी की परिस्थितियां अलग थीं. बिहार में गठबंधन कामयाब हो गया और यूपी में नाकाम! राष्ट्रीय राजनीति के संदर्भ में आज के सबसे बड़े सवाल हैं, क्या राष्ट्रीय राजनीति में गठबंधन या महागठबंधन की जरूरत है और क्या वह बिहार की तरह कामयाब हो सकेगा या यूपी की तरह नाकाम रहेगा?
ऐसे किसी महागठबंधन का नेतृत्व कौन करेगा? महागठबंधन के पक्षधर बहुत सारे लोग आज के राजनीतिक परिदृश्य और समीकरणों की तुलना सन 1984-89 के समीकरणों से करते हैं, जब राजीव गांधी की अगुवाई में कांग्रेस को 1984 के चुनाव में लोकसभा की 404 सीटों पर जीत मिली थी.
विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी एक क्षेत्रीय पार्टी-तेलुगू देशम बनी. जनता पार्टी 10 और भाजपा महज 2 सीट पर सिमट कर रह गयी. लेकिन इतने प्रचंड बहुमत को राजीव गांधी की कांग्रेस संजो कर नहीं रख सकी.
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कुछ ही समय बाद वीपी सिंह कांग्रेस से बाहर आकर सरकार के ख़िलाफ़ अभियान चलाने लगे. भ्रष्टाचार बड़ा मुद्दा बना. विपक्ष को एक नया नेता मिल गया. उनकी अगुवाई में 1989 का चुनाव हुआ तो जनता दल को 143 सीटें मिलीं और कांग्रेस 197 सीटें पाकर भी बहुमत से पीछे रह गयी.
सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद राजीव ने सरकार बनाने की कोशिश नहीं की और वीपी सिंह ने वाम मोर्चे के सहयोग से सरकार का गठन किया. भाजपा ने भी बाहर से समर्थन दिया.
आज का परिदृश्य उससे बिल्कुल अलग है. केंद्र में आज कार्यकर्ता आधारित संगठन-आरएसएस द्वारा समर्थित-संचालित भाजपा का राज है, जिसके पास देश के कोने-कोने में लाखों कार्यकर्ता और स्वयंसेवक हैं.
कांग्रेस कार्यकर्ता-आधारित नहीं बल्कि एक मास पार्टी रही है, जो बीते दो दशकों से लगातार अपना जनाधार खो रही है. दूसरी बात जो 1989 से अलग है, वह ये कि आज सत्ताधारी दल के खिलाफ भ्रष्टाचार जैसा कोई मुद्दा जनमानस में जगह नहीं बना सका है.
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इसके उलट सत्ताधारी दल विपक्षियों के पुराने भ्रष्टाचार को ही लगातार उठाता नजर आ रहा है और उसे मीडिया, खासकर निजी टीवी चैनल प्रमुखता से जगह भी देते हैं. उस दौर में आज की तरह निजी टीवी चैनलों की भरमार नहीं थी.
अपने विशाल तंत्र के जरिए कॉरपोरेट मीडिया सत्ता राजनीति में बहुत बड़ी भूमिका निभा रहा है. वह सिर्फ खबरों को ही नहीं, लोगों के बीच एक खास तरह का 'मानस' भी मैन्युफैक्चर कर रहा है. इस तरह की कई वजहों से आज के राजनीतिक हालात की तुलना 1984-89 या किसी अन्य दौर से नहीं की जा सकती.
पर गठबंधन या महागठबंधन को सिरे से नकारा नहीं जा सकता. भारत जैसे विशाल और विविधता भरे देश की राजनीति और समाज के लिए यह एक महत्वपूर्ण पहलू है. भाजपा ने भी अपनी ताकत बढ़ाने के लिए तरह-तरह के गठबंधनों का सहारा लिया है. सुदूर के दक्षिणी राज्यों में भी वह इसी के सहारे अपना आधार बनाने की जुगत में है.
छोटे से राज्य गोवा में कुछ साल पहले महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी के कंधे पर चढ़कर वह आज बड़ी ताकत बनी है. पंजाब में अकालियों, महाराष्ट्र में शिवसेना और बिहार में जद(यू) का उसने सहारा लिया.
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एक समय नवीन पटनायक की बीजद के साथ भी उसका गठबंधन रहा और वह आज ओडिशा में उभरती हुई ताकत है. यूपी में एक समय सत्ता में हिस्सेदारी के लिये उसने बसपा के साथ गलबहियां की लेकिन रिश्ता लंबा नहीं चला.
2014 के संसदीय चुनाव की तैयारी के दौरान भाजपा ने गठबंधन राजनीति में कुछ नए प्रयोग किए. उसने छोटे-छोटे दलों और जाति-समूहों के साथ गठबंधन करना शुरू किया. लोकसभा चुनाव के बाद यूपी चुनाव की उसकी अभूतपूर्व जीत में गठबंधन की इस नई राजनीति की अहम भूमिका रही.
उसने पिछड़े वर्गों की एकता को बुरी तरह खंडित किया और निषादों, राजभरों, पटेलों और बिंद बिरादरियों के स्थानीय नेताओं के साथ गठबंधन किया. अखिलेश की सपा और राहुल की कांग्रेस का गठबंधन जमीनी स्तर पर भाजपा के कौशलपूर्ण सोशल-एलायंस के आगे चारों खाने चित्त हो गया.
गठबंधन की राजनीति का असल सवाल आज यही है. क्या विपक्ष के पास ऐसा कोई नेता या दल है, जिसके पास न सिर्फ गैर-भाजपा दलों की एकता अपितु अपनी-अपनी राजनीतिक भागीदारी के लिए मचलते विभिन्न सामाजिक समूहों को भी एकजुट करने का राजनीतिक कौशल हो! जो भी यह राजनीतिक कौशल दिखायेगा, गैर-भाजपा खेमे का सबसे बड़ा नेता वही बनकर उभरेगा.
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समाज के असरदार वर्गों और मीडिया के बड़े हिस्से में अभूतपूर्व समर्थन के बावजूद भाजपा-नीत सरकारें (केंद्र और राज्यों में) समावेशी विकास, विभिन्न समुदायों को सत्ता में हिस्सेदारी और देश की प्रगति के वास्तविक सूचकांकों (शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार सृजन और सामाजिक असमानता कम करने आदि) के स्तर पर बहुत कामयाब होती नजर नहीं आ रही हैं.
ले-देकर 'कॉरपोरेट' और 'हिन्दुत्वा' का वर्चस्व दिखाई देता है. ऐसे में राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर वैकल्पिक राजनीति और वैकल्पिक नेता की प्रासंगिकता बरकरार रहेगी.
फिलहाल, परिदृश्य में अंधेरा है और जुगुनुओं की कई टिमटिमाहटें इसे रौशन करने की नाकाम कोशिश कर रही है. कारगर विकल्प सिर्फ जोड़तोड़ से या कुछ दलों के फ़ैसले से अचानक नहीं उभरते, जन-असंतोष और जन-प्रतिरोध के बीच से ही कारगर विकल्प उभरते हैं.
भारत की विपक्षी राजनीति के पास जन-प्रतिरोध के मुद्दों की कमी नहीं है. कमी है तो सिर्फ प्रयासों की. राजनीति में भविष्यवाणी करना जोख़िमपूर्ण है, लेकिन सियासत में संभावनाएं हमेशा बरकरार रहती हैं.
महागठबंधन भारत की राजनीति के लिये अब भी एक संभावना है. पर उसका रूप पहले के सभी गठबंधनों से अलग होना होगा. इसे सिर्फ राजनीतिक दलों का ही नहीं, समाजों-समुदायों का भी प्रतिनिधित्वपूर्ण गठबंधन बनना होगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)