NDA और MODI से दूरी बनाने के पीछे ये है सहयोगी दलों की असल वजह
नई दिल्ली। महाराष्ट्र में शिवसेना, आंध्र प्रदेश में टीडीपी, पंजाब में शिरोमणि अकाली दल और बिहार में राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (आरएलएसपी), ये सभी दल एनडीए का हिस्सा हैं। एनडीए का हिस्सा होने के अलावा इन सभी दलों में एक बात कॉमन है- ये सभी पार्टियां एनडीए का नेतृत्व करने वाली बीजेपी के खिलाफ बगावत पर उतारू हैं। शिवसेना ने तो 2019 का लोकसभा चुनाव अकेले लड़ने तक का ऐलान कर दिया है। हालांकि, शिवसेना महाराष्ट्र सरकार में सत्ता की मलाई अब खा रही है। लेकिन बीजेपी पर वार करने का कोई मौका भी नहीं छोड़ रही है। चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी को बीजेपी से रिश्ता रास नहीं आ रहा है, लेकिन तीन तलाक का उसका अभी तक इरादा नहीं है।
शिरोमणि अकाली दल ने एनडीए के सहयोगी दलों के लिए सम्मान की डिमांड की है तो वहीं, बिहार में उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी ने भी बगावत का झंडा बुलंद कर दिया है। अब सवाल यह है कि क्या बीजेपी नेतृत्व एनडीए के कुनबे को 2019 तक इकट्ठा रख पाएगा या चुनाव में कोई रिश्तेदारी नहीं चलेगी? सब एक-दूसरे को कोसेंगे और चुनाव बाद सोचेंगे कि एनडीए के रास्ते जाना या यूपीए से हाथ मिलाना है? एनडीए में जो हो रहा है वो अवसरवाद की राजनीति है या बीजेपी वाकई इन दलों का अपमान कर रही है। आखिर एनडीए में बगावत के पीछे क्या असली वजह? आइए तलाश करते हैं, इस सवाल का जवाब।
शिवसेना की हालत देख घबरा रहे हैं एनडीए के सहयोगी
राज्य और केंद्र की राजनीति में वर्षों तक गठबंधन का फार्मूला सत्ता पाने के लिए बड़ा ही सुपरहिट रहा। लालू की आरजेडी, नीतीश कुमार की जेडीयू, चंद्रबाबू की टीडीपी, तमिलनाडु की डीएमके और अन्नाडीएमके, अकाली दल, ममता की पार्टी टीएमसी और न जाने कितने ही दल भारतीय राजनीति के पटल पर कुछ ऐसे उभर कर आए, मानो जियो का 19 रुपये वाला रिचार्ज कूपन। एक बार रिचार्ज कराइए और एक दिन का काम चलाइए, अगले दिन दोबारा रिचार्ज कराना ही पड़ेगा। जब एक वोट से अटल बिहारी वाजपेयी ने सत्ता गंवाई, उस दौर में हर छोटे 'रिचार्ज कूपन' बड़े ही काम की चीज थे।
ममता बैनर्जी हों या नीतीश कुमार, उद्धव ठाकरे हों या चंद्रबाबू नायडू, लालू यादव हों या नवीन पटनायक, जयललिता से लेकर करुणानिधि तक नंबर्स गेम की बिसात पर इनमें से हर शख्स ने दिल्ली के तख्त पर बैठे शख्स को अपनी धुन पर खूब नचाया। कुल मिलाकर केंद्रीय से लेकर राज्य तक क्षेत्रीय दल सत्ता उगलने वाली सोने का अंडा देने वाली मुर्गी समान थे। लेकिन 2014 में आई मोदी सुनामी में क्षेत्रीय दलों का पूरा कारोबार उजड़ गया। कम से कम केंद्र में इनकी कोई भूमिका नहीं बची। बीजेपी अपने दम पर बहुमत के साथ रिकॉर्ड सीटें लेकर सत्ता तक पहुंची और मोल-तोल, इतनी सीटों के बदले उतने कैबिनेट मंत्री वाला कारोबार बंद सा हो गया।
मोदी लहर का राज्यों में दिखा और जहां बीजेपी गठबंधन में थी वहां भी उसका सितारा बुलंद नजर आया। परिणामस्वरूप हरियाणा में इनेलो जैसे दलों की कोई अहमियत नहीं बची। यहां बीजेपी अपने दम पर सत्ता में आ गई। महाराष्ट्र में शिवसेना की बड़े भाई की भूमिका भी खत्म हो गई और बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनी। इसके बाद झारखंड में भी शिबू सोरेन जैसे नेताओं की दुकान बंद हुई और वहां बीजेपी सबसे बड़ी बनकर उभरी। मतलब छोटे दलों का स्पेस बीजेपी भरती चली गई और उनकी सत्ता कब खिसक गई, उन्हें पता ही नहीं चला।
ये है एनडीए के सहयोगी दलों की बगावत के पीछे की मुख्य वजह
यह बात सच है कि राजस्थान उपचुनाव ने बीजेपी के लिए खतरे की घंटी बजाई है। लेकिन मोदी-शाह अब भी चुनावी राजनीति के सबसे बड़े बाजीगर हैं। ऐसे में एनडीए के घटक दलों को डर है कि बीजेपी के साथ लड़कर कहीं वे अपनी जमीन अपने ही सहयोगी को गंवा न बैठें। वैसे भी 2019 के बाद अगर कांग्रेस केंद्र की सत्ता में लौट आई, तो इन क्षेत्रीय दलों के हाथ सत्ता का पकौड़ा छिन जाएगा। ऐसे में एनडीए के सारे घटक दल 2019 में अलग चुनाव लड़ने का ऐलान कर भी देते हैं तो भी किसी को हैरान नहीं होना चाहिए।
ये हैं वोट ट्रांसफर का एक नमूना जिससे घबरा रहे हैं एनडीए के सहयोगी
पिछले बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार ने लालू यादव और कांग्रेस के साथ गठबंधन कर चुनाव मैदान में ताल ठोकी और बंपर सीटों के साथ महागठबंधन सत्ता की सीढ़ी चढ़ा। लेकिन इस चुनावी जीत में सबसे बड़े गेम चेंजर साबित हुए लालू यादव। उनकी पार्टी को सबसे ज्यादा सीटें मिलीं। चेहरा नीतीश कुमार का, काम नीतीश कुमार, तो सीटें लालू को सबसे ज्यादा क्यों? ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि नीतीश के कोर वोटर ने अपने नेता के फैसले का सम्मान किया। इसका परिणाम यह हुआ कि जेडीयू का वोट आरजेडी को ज्यादा ट्रांसफर हुआ, जबकि आरजेडी का वोट जेडीयू के लिए उतना ट्रांसफर नहीं हुआ। कुछ ऐसा ही महाराष्ट्र में शिवसेना और बीजेपी के बीच हो गया। यही कारण है कि एनडीए के घटक दल, बीजेपी के साथ चुनाव मैदान में उतरने से घबरा रहे हैं।