क्विक अलर्ट के लिए
नोटिफिकेशन ऑन करें  
For Daily Alerts
Oneindia App Download

नरेंद्र मोदी ने वाजपेयी-आडवाणी की बीजेपी को कैसे बदला - विवेचना

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी में कई बदलाव हुए हैं. मोदी ने बदलाव का आधार कैसे तैयार किया और इससे पार्टी पर कितना असर पड़ा, पढ़िए रेहान फ़ज़ल की विवेचना

By BBC News हिन्दी
Google Oneindia News
नरेंद्र मोदी
Getty Images
नरेंद्र मोदी

एक विधायक ने मशहूर चुनाव विश्लेषक प्रणय रॉय को बताया था, "भारत में चुनाव एक परीक्षा की तरह हो गए हैं. इसमें कई विषय होते हैं जिन्हें आपको पास करना होता है. ज़रूरी नहीं कि हर विषय में आपके नंबर अच्छे ही आएँ. लेकिन चुने जाने के लिए आपके औसत नंबर 75 फ़ीसदी के आसपास होने चाहिए. वोटरों को सिर्फ़ पासिंग नंबर स्वीकार नहीं हैं. पासिंग नंबर लाने का मतलब है आपका सत्ता से बाहर होना."

बहुत से राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि पिछले दस सालों में इस तरह के कई इम्तहानों में बीजेपी ने दूसरी पार्टियों के मुक़ाबले बेहतर स्कोर किया है.

1980 में जब भारतीय जनता पार्टी ने जन्म लिया था तो टाइम्स ऑफ़ इंडिया में छपे एक लेख की बहुत दिलचस्प हेडलाइन थी, 'वेजिटेरियन बट टेस्टी पार्टी'.

तब की बीजेपी और आज की बीजेपी में काफ़ी फ़र्क आया है. एक ज़माने में 'ब्राह्मण-बनियों की पार्टी' कही जाने वाली बीजेपी ने अपने संगठनात्मक ढाँचे में जिस तरह का बदलाव किया है उसको नज़रअंदाज़ करना मुश्किल है.

हाल ही में प्रकाशित पुस्तक 'द आर्किटेक्ट ऑफ़ न्यू बीजेपी, हाउ नरेंद्र मोदी ट्रासफॉर्म्ड द पार्टी' के लेखक अजय सिंह इस बदलाव का श्रेय नरेंद्र मोदी को देते हैं.

मोदी की पहली परीक्षा थी मोरवी बाँध दुर्घटना

एक संगठन कार्यकर्ता के रूप में मोदी को सबसे पहले पहचान मिली 11 अगस्त 1979 को जब सौराष्ट्र के एक कस्बे मोरवी में मच्छू नदी का बाँध टूट गया और कुछ मिनटों में ही पूरे इलाके में पानी भर गया. ये सब कुछ इतना अचानक हुआ था कि लोगों को बच निकलने का बिल्कुल मौका नहीं मिला और 25 हज़ार लोग बह गए थे.

अजय सिंह बताते हैं, "उस समय बीजेपी के नेता केशूभाई पटेल, बाबू लाल पटेल मंत्रिमंडल में सिंचाई मंत्री थे. जब बाँध टूटा तो नरेंद्र मोदी नानाजी देशमुख के साथ चेन्नई में थे. इस बर्बादी की ख़बर सुनते ही मोदी गुजरात लौटे और उन्होंने बड़े पैमाने पर चल रहे राहत कार्य में हिस्सा लिया.

नरेंद्र मोदी
Getty Images
नरेंद्र मोदी

आडवाणी की रथ यात्रा में मोदी की भूमिका

वर्ष 1984 में जब गुजरात के किसानों ने आंदोलन छेड़ा तो आरएसएस प्रचारक दत्तोपंत ठेंगड़ी के नेतृत्व में भारतीय किसान संघ ने इसका ज़ोर-शोर से समर्थन किया. नरेंद्र मोदी ने पर्दे के पीछे रहकर इस आंदोलन के स्वरूप को अंतिम रूप दिया.

वर्ष 1991 में जब लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक अपनी रथयात्रा शुरू की तो मोदी को यात्रा के गुजरात चरण की तैयारी करने की ज़िम्मेदारी दी गई.

अजय सिंह बताते हैं, "जब आडवाणी और प्रमोद महाजन सोमनाथ मंदिर के पास वेरावल पहुँचे तो उन्हें वहाँ न तो पार्टी के पोस्टर दिखाई दिए और न ही झंडे. पार्टी हल्कों में इस बात पर चिंता भी प्रकट की गई कि शायद यात्रा के लिए ढंग से तैयारी नहीं की गई है. लेकिन जब अगले दिन यात्रा शुरू हुई तो हज़ारों लोगों की भीड़ सड़कों पर थी. समाज के हर तबके के लोग इसमें शामिल हुए. पहली बार बीजेपी ने उन लोगों तक अपनी पहुँच बनाई जिनसे जुड़ने का प्रयास संघ परिवार ने अभी तक नहीं किया था."

रथयात्रा में आडवाणी के साथ नरेंद्र मोदी
Getty Images
रथयात्रा में आडवाणी के साथ नरेंद्र मोदी

हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में कामयाब रहे दांव

1996 में गुजरात में केशुभाई पटेल और शंकर सिंह वाघेला के बीच अंतर्कलह के कारण नरेंद्र मोदी को गुजरात से बाहर दिल्ली भेज दिया गया जहाँ पार्टी सचिव के रूप में उन्हें पहले हरियाणा और हिमाचल प्रदेश की ज़िम्मेदारी दी गई. यहाँ पर संगठन के विस्तार के लिए नरेंद्र मोदी ने परंपराओं की जगह व्यवहारिकता को अधिक तरजीह दी.

हरियाणा में उन्होंने इमरजेंसी के दौर में ख़ासे बदनाम हुए बंसीलाल की पार्टी 'हरियाणा विकास पार्टी' से समझौता किया और पहली बार बीजेपी हरियाणा में सत्ता में आई. बाद में जब बंसीलाल से पार्टी ने दूरी बनाई तो नरेंद्र मोदी बीजेपी को ओमप्रकाश चौटाला की पार्टी के नज़दीक ले गए जिन पर भ्रष्टाचार के अनेक आरोप थे.

पार्टी में आम राय के ख़िलाफ़ उन्होंने लोकसभा चुनाव में कारगिल में शहीद हुए सैनिक की पत्नी सुधा यादव को पार्टी का टिकट देने का फ़ैसला लिया.

अजय सिंह बताते हैं, "हिमाचल प्रदेश में उन्होंने शांता कुमार के विकल्प के तौर पर प्रेम कुमार धूमल को खड़ा किया और उनकी सरकार को मज़बूती देने के लिए एक ऐसे नेता का साथ लिया जो भ्रष्टाचार के लिए काफ़ी बदनाम हो चुके थे, नरेंद्र मोदी ने सुखराम का सहयोग लेने में भी कोई झिझक नहीं दिखाई. सुखराम तब तक कांग्रेस छोड़ चुके थे और उन्होंने अपनी पार्टी 'हिमाचल विकास कांग्रेस' बना ली थी. तब तक सुखराम हर किसी के लिए अस्वीकार्य बन गए थे, केवल नरेंद्र मोदी को छोड़कर."

हिमाचर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार के साथ नरेंद्र मोदी
Getty Images
हिमाचर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार के साथ नरेंद्र मोदी

गुजरात दंगों पर हुई आलोचना को गुजरात की अस्मिता से जोड़ा

वर्ष 2002 में जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री बने तो उन्हें शासन चलाने का कोई अनुभव नहीं था. मुख्यमंत्री बनते समय वो राज्य में विधायक भी नहीं थे. जब गुजरात में दंगे हुए तो शासन में उनकी अनुभवहीनता साफ़ दिखाई दी, लेकिन नरेंद्र मोदी ने चारों ओर हो रही अपनी आलोचना को गुजरात की पहचान से काउंटर किया.

अजय सिंह बताते हैं, "विपक्ष, मीडिया और धर्मनिरपेक्ष ताकतों की तरफ़ से हो रही आलोचना को मोदी ने गुजराती लोगों की आलोचना से जोड़ दिया. उन्होंने अगले चुनाव में गुजराती अस्मिता के नाम पर वोट माँगे. इस शब्द को सबसे पहले संविधान सभा के सदस्य रहे लेखक केएम मुंशी ने लोकप्रिय बनाया था. उस समय बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व ने 'गुजराती गौरव' को भुनाने के मोदी के प्रयास को पसंद नहीं किया था. उनका मानना था कि गौरव को नाम पर मतदाताओं से की गई अपील शायद सत्ता में होने के नुकसान की भरपाई न कर पाए. लेकिन नरेंद्र मोदी को पूरा विश्वास था कि वो लोगों के मूड को सही ढंग से पढ़ पा रहे हैं. "

नरेंद्र मोदी
Getty Images
नरेंद्र मोदी

गुजरात में आर्थिक निवेश पर बल

गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर मोदी ने सबसे अधिक तवज्जो राज्य में आर्थिक निवेश पर दी. उन्होंने गुजरात को निवेश के लिए सबसे बेहतरीन जगह के तौर पर पूरी दुनिया में पेश किया. मोदी ने गुजरात में 'ज्योति ग्राम योजना' शुरू की जिसके तहत हर घर को 24 घंटे एक फ़ेस बिजली आपूर्ति की गारंटी दी गई. निवेश के लिए नरेंद्र मोदी ने जो माहौल बनाया, रतन टाटा ने उस पर टिप्पणी की थी, "अगर आप गुजरात में निवेश नहीं कर रहे हैं तो आप बेवकूफ़ हैं."

राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रेस में मोदी पर 'सांप्रदायिक पूर्वाग्रह' का आरोप लगने के बावजूद गुजरात में उनकी छवि एक ऐसे मुख्यमंत्री के तौर पर बनी जिसने विकास को सबसे अधिक तरजीह दी.

सवालों का सामना करना पसंद नहीं

मैंने अजय सिंह से पूछा कि क्या नरेंद्र मोदी ने अपने पूरे कार्यकाल में सिर्फ़ इसलिए कोई संवाददाता सम्मेलन नहीं किया, क्योंकि वो कठिन सवालों से बचते हैं?

इसके जवाब में वे कहते हैं, "आप क्यों मान लेते हैं कि संवाददाता सम्मेलन करने से ही आम लोगों से संवाद स्थापित किया जाता है? उन्होंने चुनाव से पहले कई पत्रकारों से बात की है. हर महीने वो 'मन की बात' कार्यक्रम के ज़रिए देश को संबोधित करते हैं और सोशल मीडिया, ट्विटर और फ़ेसबुक का जितना इस्तेमाल नरेंद्र मोदी ने किया है उतना शायद किसी भी भारतीय राजनेता ने नहीं. दूसरे, आप ये क्यों भूल जाते हैं कि मोदी से पहले यूपीए की प्रमुख रहीं सोनिया गांधी ने कितने संवाददाता सम्मेलन किए हैं और कितने पत्रकारों को इंटरव्यू दिए हैं? "

सरदार पटेल की मूर्ति बनाने की राजनीतिक चतुराई

अजय सिंह नरेंद्र मोदी के लिए 'राजनीतिक रूप से चतुर' शब्द का इस्तेमाल करते हैं. इसके लिए वो नर्मदा बांध के पास सरदार पटेल की 'स्टैचू ऑफ़ लिबर्टी' से ऊँची मूर्ति बनाने का उदाहरण देते हैं.

अजय सिंह की नज़रों में वो एक मज़बूत 'पॉलिटिकल स्टेटमेंट' था. जिस तरह से उन्होंने इसके लिए किसानों से अपने कृषि उपकरण दान देने का अनुरोध किया ताकि उन्हें पिघला कर उस लोहे से 182 मीटर ऊँची मूर्ति बनाई जा सके, उसके पीछे भी एक चतुर राजनीतिक सोच थी.

इसे मोदी का चातुर्य कहा जाएगा कि उन्होंने कांग्रेस के महान नेता को 'उपेक्षित गुजराती महानायक' के तौर पर अपनाते हुए आम लोगों के सामने पेश किया. उन्होंने ये भी घोषणा की कि इस मूर्ति को बनाने में पाँच लाख ग्रामीणों के प्रयास को एक टाइम कैप्सूल में रखा जाएगा ताकि आने वाली पीढ़ियाँ इससे प्रेरणा ले सकें.

सरदार पटेल की मूर्ति
Getty Images
सरदार पटेल की मूर्ति

मोदी का वैचारिक लचीलापन

अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए सरकार को कई वैचारिक मुद्दों पर संघ परिवार के घटकों की कड़ी आलोचना का शिकार होना पड़ा था. भारतीय मज़दूर संघ और स्वदेशी जागरण मंच की ओर से वाजपेयी सरकार की तीखी आलोचना आम बात थी.

उसके विपरीत नरेंद्र मोदी का संघ परिवार से सामंजस्य बेहतरीन है. इसकी वजह पूछे जाने पर अजय सिंह बताते हैं, "वाजपेयी का स्वभाव मोदी से बिल्कुल अलग था और दूसरे उनकी अपनी पार्टी का बहुमत नहीं था. मोदी ने क्लासिकल संगठनवादी के रोल में अपने-आप को पूरी तरह से ढाल लिया है जिसके उठाए गए रणनीतिक कदम आगे जाकर विचारधारा को ही फ़ायदा पहुंचाते हैं."

अजय सिंह कहते हैं, "मोदी को इस बात का अंदाज़ा है कि राजनीतिक समझबूझ की परतें समय के साथ बदलती रहती हैं. दक्षिण के मुख्यद्वार और तकनीक के केंद्र रहे हैदराबाद में जब उन्होंने एक चुनावी रैली को संबोधित किया तो उन्होंने बराक ओबामा के अंग्रेज़ी जुमले 'यस वी कैन' का इस्तेमाल किया. उसके कुछ दिनों बाद जब उन्होंने दिल्ली में श्रीराम कालेज ऑफ़ कॉमर्स में छात्रों को संबोधित किया तो उन्होंने उनके सामने प्रबंधन और वाणिज्य की भाषा बोली."

नरेंद्र मोदी
Getty Images
नरेंद्र मोदी

'मुसलमानों का भरोसा जीतने में नाकाम मोदी'

जॉन हॉपकिंस विश्वविद्यालय में साउथ एशिया स्टडीज़ के प्रमुख वॉल्टर एंडरसन का मानना है, "मोदी ने संघ के संकीर्ण संगठन के दायरे से बाहर आकर मतदाताओं का समर्थन लेने की कोशिश की है. अपने मुख्यमंत्री रहने के दौरान उन्होंने हर गाँव और शहर में प्रभावशाली लोगों को महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया है चाहे उनका पुराना इतिहास जैसा भी रहा हो. लेकिन इसके बावजूद उन्होंने इसका भी ध्यान रखा है कि उनके दल के हिंदू विचारधारा के प्रति झुकाव को कमज़ोर न किया जाए. उन्होने ऊँची जातियों के समर्थन बेस को बरकरार रखते हुए हर सामाजिक वर्ग को अपनी पार्टी के साथ जोड़ने की कोशिश की है चाहे वो यादव रहित पिछड़ी जातियों के लोग हों या जाटव रहित अनुसूचित जाति के लोग."

लेकिन उनकी इस योजना में मुसलमान अभी तक नहीं आ पाए हैं. इस समय स्थिति ये है कि न तो उनके मंत्रिमंडल में एक भी मुसलमान है और न ही उनकी पार्टी के संसदीय दल में. अजय सिंह कहते हैं कि शायद इसकी वजह ये है कि मुसलमानों में न सिर्फ़ बीजेपी का समर्थन करने के प्रति झिझक है, बल्कि पार्टी के प्रति उनका रवैया सक्रिय विरोध का रहा है.

हाल के दिनों में बीजेपी ने पिछड़े मुसलमानों से संपर्क साधने का अभियान शुरू किया है.

नोटबंदी के बावजूद चुनावी जीत

आठ नवंबर, 2016 को जिस तरह नरेंद्र मोदी ने अचानक 500 और 1000 के नोट बंद करने की घोषणा की थी और इसकी वजह से आम लोगों को बहुत अधिक परेशानी झेलनी पड़ी थी, उम्मीद लगाई जा रही थी कि उसके बाद हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को बहुत अधिक मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा.

नोटबंदी की दिक्कतों और उसके उम्मीद के मुताबिक परिणाम न मिलने के बावजूद, चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की जीत हुई. शायद इसकी वजह ये थी कि कहीं न कहीं मोदी आम लोगों को ये विश्वास दिलाने में सफल हो गए कि उनकी इस कार्रवाई के अपेक्षित परिणाम न निकलें हों, लेकिन उनकी नीयत में कोई खोट नहीं था.

नरेंद्र मोदी
Getty Images
नरेंद्र मोदी

बूथ प्रबंधन की कला में महारत

नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने मिलकर बूथ प्रबंधन की कला पर पूरी महारत हासिल कर ली है.

वॉल्टर एंडरसन लिखते हैं, "इसका सबसे बड़ा उदाहरण पिछले दिनों संपन्न हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव हैं जहाँ भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी दलों ने एंटी इनकंबेंसी के बावजूद 402 में से 273 सीटें जीतने में सफलता हासिल की है. उत्तर प्रदेश की योगी सरकार के ख़िलाफ़ कोविड के प्रसार, किसान आंदोलन और बेरोज़गारी जैसे कई मुद्दे काम कर रहे थे. विपक्ष के तीखे प्रचार के बावजूद पार्टी का दोबारा सत्ता में आना बताता है कि मोदी और शाह का जोड़ा चुनाव के माइक्रो प्रबंधन में पारंगत हो चुका है. जहाँ सारा ज़ोर इस बात पर है कि उनके अधिक से अधिक मतदाता चुनाव बूथ तक पहुंचें."

जॉन हॉपकिंस विश्वविद्यालय में साउथ एशिया स्टडीज़ के प्रमुख वॉल्टर एंडरसन
BBC
जॉन हॉपकिंस विश्वविद्यालय में साउथ एशिया स्टडीज़ के प्रमुख वॉल्टर एंडरसन

मोदी ने इसके महत्व पर रोशनी डालते हुए कहा था, 'मेरे लिए सबसे अधिक ज़रूरी है बूथ जीतना.. अगर हम ऐसा कर पाते हैं तो दुनिया की कोई ताकत हमें चुनाव जीतने से नहीं रोक सकती.'

कर्नाटक बीजेपी के महासचिव एन रवि कुमार ने एक इंटरव्यू में कहा था, "दस साल पहले किसी को बूथ स्थर के कार्यकर्ता की फ़िक्र नहीं थी. पार्टी में सिर्फ़ विधायक, सांसद या ज़िला पंचायत अध्यक्ष की ही पूछ हुआ करती थी. कर्नाटक में इस समय 58 हज़ार बूथ हैं. इस तरह हमारे पास 58 हज़ार बूथ अध्यक्ष हैं. हमारे पास हर बूथ पर दो सचिव हैं. इस तरह पूरे प्रदेश में सचिवों की संख्या एक लाख 16 हज़ार हो गई. हर बूथ पर 13 सदस्यों की समिति अलग से बनाई गई है. इसका अर्थ हुआ कि पूरे प्रदेश में सात लाख 54 हज़ार लोग बूथ स्तर पर पार्टी के लिए काम कर रहे हैं."

अटल बिहारी वाजपेयी के साथ नरेंद्र मोदी
Getty Images
अटल बिहारी वाजपेयी के साथ नरेंद्र मोदी

मीडिया को दबाने की शिकायतें

इस सबके वावजूद मोदी सरकार को अक्सर इसलिए कटघरे में खड़ा किया जाता है कि उनकी सरकार ने चारों तरफ़ भय का माहौल बना रखा है और सरकार की विभिन्न एजेंसियों को राजनीतिक मक़सद से इस्तेमाल किया जा रहा है.

मीडिया को भी दबाने की कई शिकायतें मिली हैं लेकिन मशहूर पत्रकार वीर सांघवी का मानना है कि "ऐसी चीज़े भारत में पहली बार नहीं हुई हैं. इससे पहले भी सरकारों ने राजनीतिक कारणों से एजेंसियों को अपने राजनीतिक विरोधियों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया है. राजीव गाँधी के समय में इंडियन एक्सप्रेस के ख़िलाफ़ मामले खोले गए और अटल बिहारी वाजपेयी के समय में उनके खिलाफ़ लिखने वाली पत्रिका 'आउटलुक' के मालिकों के दफ़्तर पर रेड की गई थी."

गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्रियों कुशाभाई पटेल और चिमनभाई पटेल के साथ नरेंद्र मोदी
Getty Images
गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्रियों कुशाभाई पटेल और चिमनभाई पटेल के साथ नरेंद्र मोदी

दुनिया के कई नेताओं से मोदी के संबंध बहुत अच्छे हैं लेकिन अंतरराष्ट्रीय प्रेस और संचार माध्यमों में मोदी अपनी आदर्श छवि पेश करने में कामयाब नहीं रहे हैं. चाहे टाइम पत्रिका का दिया गया 'इंडियाज़ डिवाइडर इन चीफ़' का तमग़ा हो या न्यूयॉर्क टाइम्स, गार्डियन, इकॉनॉमिस्ट और ग्लोबल टाइम्स की कई हेडलाइनें. हाल ही में जर्मन विदेश मंत्री ने भारत में प्रजातांत्रिक मूल्यों के हनन के मामलों की आलोचना की.

(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)

BBC Hindi
देश-दुनिया की ताज़ा ख़बरों से अपडेट रहने के लिए Oneindia Hindi के फेसबुक पेज को लाइक करें
English summary
Narendra Modi and Atal Bihari Vajpayee Lal Krishna Advani in BJP
तुरंत पाएं न्यूज अपडेट
Enable
x
Notification Settings X
Time Settings
Done
Clear Notification X
Do you want to clear all the notifications from your inbox?
Settings X
X