#MeToo: 'मैं भी महिला पत्रकार हूं, लेकिन ख़ुद को शिकार नहीं बनने दिया'
मैं पूरी तरह समझती हूं कि ऐसी घटनाओं से जुड़ना भी अपने आप में अवसाद से भरा अनुभव होता है और ये एक वजह हो सकती है. हालांकि, मेरे कई युवा मित्र भी हैं.
लेकिन मैं ये मानना चाहूंगी कि मैंने कहीं न कहीं उन्हें निराश किया है, क्योंकि मैं उनके अंदर ये भरोसा नहीं जता सकी कि मैं उनके लिए लड़ाई करूंगी और वह मुझे आकर अपना दर्द नहीं बता सकीं.
जिस तरह से भारत के तमाम बड़े मीडिया घरानों के न्यूज़रूम से महिलाओं के साथ हुए उत्पीड़न से जुड़ी ख़बरों का गंदा पानी बाढ़ की शक़्ल ले रहा है, मैं प्रार्थना कर रही हूं कि इस बाढ़ में वो सभी संपादक डूब मरें, जिन्होंने महिलाओं को अपनी ताक़त के नीचे दबाया और उनका उत्पीड़न किया.
जब पहली बार एक महिला पत्रकार ने एक पूर्व संपादक और मौजूदा राजनेता के ख़िलाफ़ अपना मुंह खोला तब से मेरे दिमाग़ में यह सवाल घूम रहा है कि "आख़िर किसी अख़बार के दफ़्तर में ऐसा कैसे हो सकता है?"
इस सवाल का जवाब मुझे मेरी महिला दोस्तों ने ही दिया. वो जवाब से ज़्यादा शायद मेरे लिए एक चेतावनी और सीख थी. उन्होंने कहा कि इस भोलेपन को छोड़ो और सच्चाई को समझो.
उन्होंने मुझ पर एक ऐसी छाप छोड़ी जिसका मतलब था कि इन मामलों पर मेरी हैरानी एक तरह से दिखावा है या फिर मैं आरोप लगाने वाली इन युवा महिलाओं पर विश्वास नहीं कर रही हूं. हालांकि मैं इन दोनों ही बातों से इत्तेफाक नहीं रखती.
दरअसल, मेरी इस हैरानी की अपनी कुछ वजहें हैं. मैं आख़िर इस बात पर इतनी आसानी से विश्वास क्यों नहीं कर पा रही हूं कि कोई संपादक अपने पद और ताक़त के दम पर किसी महिला का उत्पीड़न कर सकता है.
इसकी वजह यह है कि हम सभी के अपने अलग-अलग अनुभव होते हैं. हम अपने आसपास बदले काम के वातावरण को शायद अच्छे से महसूस नहीं कर पाए.
न्यूज़रूम में मेरी लड़ाई
इस बात ने मुझे यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि कैसे न्यूज़रूम के भीतर चर्चाओं के साथ सिगरेट के कश शामिल हो गए.
इसी न्यूज़रूम को हम किसी मंदिर की तरह मानते थे जहां लैंगिक समानता, खुली बहसें और आपसी मेल-मिलाप का माहौल था और जहां हर कोई अपने-अपने स्तर पर कहानियां तलाशने की कोशिश किया करते थे.
आख़िर इतना ख़ूबसूरत न्यूज़रूम किसी शिकार के मैदान में कैसे तब्दील हो गया?
इस सवाल का जवाब तलाशते हुए मैं दो अक्टूबर 1971 की यादों में खो गई. जब मैंने पहली बार एक न्यूज़रूम में क़दम रखा था. या यूं कहूं कि आदमियों की दुनिया में गई थी. ये हिंदुस्तान टाइम्स का दफ़्तर था और मैं एक ट्रेनी थी. मुझे लग रहा था कि जैसे मैने पूरा संसार जीत लिया है.
इसके बाद मेरे न्यूज़ एडिटर की वो कड़क आवाज़ मेरे लिए पहला सबक था. मुझे याद है उन्होंने कहा था, "तुम, कल से साड़ी पहन कर आओगी. मैं नहीं चाहता कि मेरे लड़कों का ध्यान तुम्हें देखकर भटके."
कमज़ोर शिकार ना बनें
मेरी लड़ाई यहां से शुरू हो चुकी थी. हालांकि मुझे लगा कि यह इतना बुरा भी नहीं है, क्योंकि दुश्मन तो बहुत ही कमज़ोर है. इनके लड़के तो मेरे चूड़ीदार कुर्ते से ही घायल हो रहे हैं.
मैने बस सहमति में सिर हिलाया और अपनी सीट पर बैठ गई. उसके बाद एक दोस्ताना हाथ ने मेरी ओर चाय का कप बढ़ा दिया.
कई दिन गुज़रने के साथ ही वो सख़्त दिखने वाले न्यूज़ एडिटर मेरे सबसे अच्छे गुरु बन गए. उनके वो लड़के हमेशा मेरी मदद के लिए तैयार रहते.
जिस दिन मेरी पहली बड़ी बाइलाइन ख़बर लगी उस दिन उन्ही न्यूज़ एडिटर ने ख़ुद लेमन-टी का ऑर्डर दिया. उन दिनों में लेमन-टी दूध वाली चाय के मुक़ाबले ज़्यादा महंगी होती थी.
कुछ-कुछ यही हाल तब भी रहा जब मैं रिपोर्टिंग के लिए गई. वहां भी जो लड़ाई थी वह किसी के व्यवहार से नहीं थी. बल्की कई बार तो मुझे इस बात के लिए लड़ना पड़ जाता था कि मेरे साथी मेरी इतनी ज़्यादा चिंता क्यों करते हैं.
मुझे ख़ुद को साबित करने के लिए लड़ना पड़ता था, मुझे बताना पड़ता था कि मैं बिना किसी की मदद लिए बाहर से होने वाले कामों को भी बेहतरीन तरीक़े से कर सकती हूं.
प्रस्तावों को ख़ारिज करने का साहस
मुझे कई बार लड़कों ने डेट पर चलने के ऑफर भी दिए, जिन्हें मैंने मना कर दिया. यह एक तरीक़ा था, यह बताने का कि मैं भी उनकी तरह रिपोर्टिंग में अच्छी हूं और जब मुझे मेरे काम की तारीफ़ें मिलतीं तो उन लड़कों को भी जवाब मिल जाता.
MeToo सामने आने के बाद जिस चीज़ ने मुझे सबसे ज़्यादा धक्का पहुंचाया वो ये है कि ये उस विश्वास का हनन है जो कि महिला पत्रकारों ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों और पुरुष पत्रकारों के प्रति रखा था.
मुझे अपने साथ काम करने वाले पुरुष पत्रकारों पर पूरा भरोसा होता थाऔर उन्होंने भी कभी मेरे भरोसे को नहीं तोड़ा. हम साथ में यात्राएं करते, रिपोर्टिंग के दौरान तीन-तीन लोग एक कमरे में ही रहते और गंभीर बहसों में उलझ जाते थे. कभी-कभी ऐसा लगता था कि कहीं मार-पीट न हो जाए.
एक बार तो मेरी नोट बुक डस्टबिन में छिपा दी गई. इसका बदला लेते हुए मैंने ये करने वाले साथी पत्रकार की डेस्क में मरा हुआ चूहा रख दिया. हम लोग ख़ास मौक़ों पर रिपोर्टिंग के लिए झगड़ते भी थे, लेकिन कभी भी ग़लत व्यवहार और यौन इशारे करने की जगह ही नहीं थी.
उस दौर में एक मज़ाक चला करता था कि अगर मैं चप्पलें बदलकर चली जाऊं तो मेरे सुपर बॉस मुझे पहचान भी नहीं पाएं क्योंकि महिला पत्रकारों से बात करते हुए वह हमेशा नीचे देखा करते थे.
न्यूज़रूम में ताक़त का खेल
शायद उस दौर तक न्यूज़रूम में ताक़त का खेल शुरू नहीं हुआ था, क्योंकि उस दौरान संपादक और जूनियर्स के बीच बातचीत बेहद कम हुआ करती थी.
ये कहा जाता था कि अगर तुम्हारी संपादक से मुलाक़ात हो रही है तो या तो तुमको नौकरी दी जा रही है या नौकरी से निकाला जा रहा है.
आपके काम की तारीफ़ करने के लिए भी आपके काम को देखने वाले व्यक्ति के मार्फत की जाती थी. नौकरी के लिए लिखित परीक्षा होती थी और पैनल इंटरव्यू होता था.
जब भी संपादक न्यूज़रूम में आता था तो सभी लोगों के साथ मीटिंग होती थी. उस दौर में कभी दरवाज़ों के पीछे संपादक के साथ मीटिंग नहीं होती थी.
लेकिन 80 के दशक से चीज़ें बदलनी शुरू हुईं. संपादक और वरिष्ठ पत्रकार एक शख्सियत के साथ आने लगे.
लेकिन उनकी शरारतें उनके साथ काम करने वाले व्यक्तियों के साथ नहीं बीती थीं.
शिकारी हमेशा एक आसान शिकार की तलाश में रहता है
उस दौर के बाद से जितनी महिला पत्रकार सामने आई हैं, उनके व्यक्तिगत पहलुओं से हमारा कोई सरोकार नहीं है.
मैंने तीन ऐसे संपादकों के साथ काम किया है जो हमेशा महिलाओं के बीच होने वाली मसालेदार बातचीतों का विषय हुआ करते थे. लेकिन तीनों में से किसी ने मेरे साथ कभी कुछ ग़लत नहीं किया.
मेरे पास इसकी वजह है. शिकारी हमेशा एक आसान शिकार की तलाश में रहता है. उस दौर तक मेरी पीढ़ी की पत्रकारों ने अपने काम के जरिए एक ख़ास जगह बना ली थी और वरिष्ठता के क्रम में ऊपर पहुंच गई थीं.
ऐसे में हमारे साथ किसी तरह की कोशिश उनके लिए ख़तरनाक साबित हो सकती थी.
हम पलटवार करने में सक्षम थे और हम उन पदों पर मौजूद थे जिससे हमारी आवाज़ सुनी जाती.
हम अपने परिवार से दूर रहने वाली सेलिब्रिटी पत्रकारों के आभामंडल में क़ैद रहने वाली युवा इंटर्न की तरह आसान शिकार नहीं हुआ करते थे.
ऐसे में शिकारी पुरुषों ने युवा इंटर्नों की इस कमज़ोरी का फ़ायदा उठाया जो कि हमारी पीढ़ी की पत्रकारों में मौजूद नहीं थी.
लेकिन मेरे दिमाग़ में अभी भी एक सवाल है कि ऐसे प्रगतिशील बुद्धिजीवी भेड़ियों की गिरफ़्त में आने के बाद ये युवा महिलाएं हमारी जैसी वरिष्ठ महिला साथी पत्रकारों के पास क्यों नहीं आईं.
मैं पूरी तरह समझती हूं कि ऐसी घटनाओं से जुड़ना भी अपने आप में अवसाद से भरा अनुभव होता है और ये एक वजह हो सकती है. हालांकि, मेरे कई युवा मित्र भी हैं.
लेकिन मैं ये मानना चाहूंगी कि मैंने कहीं न कहीं उन्हें निराश किया है, क्योंकि मैं उनके अंदर ये भरोसा नहीं जता सकी कि मैं उनके लिए लड़ाई करूंगी और वह मुझे आकर अपना दर्द नहीं बता सकीं.
लेकिन मैं अब मीडिया में यौन शोषण करने वाले पुरुषों के नाम लेने वाली बहादुर लड़कियों को खुला समर्थन देकर अपनी इस ग़लती को सुधारने की उम्मीद करती हूं.