मायावती का ये आखिरी दांव तय करेगा उनके राजनीतिक जीवन की आखिरी पारी
मायावती का राज्यसभा का कार्यकाल 2 अप्रैल 2018 को खत्म हो रहा है अगर वो इस्तीफा नहीं भी देती तो उनके पास राज्यसभा में बने रहने के लिए 1 साल से कम का वक्त बचा है
नई दिल्ली। बसपा सुप्रीमो मायावती राजनीति की माहिर खिलाड़ी हैं कब कौन सा दांव खेलना है उनको बखूबी आता है। राज्यसभा से मायावती का इस्तीफा देना उनका एक मास्टरस्ट्रोक है। अगर ये फिट बैठा तो बसपा सुप्रीमो का लॉटरी फिर से लग जाएगी अगर फेल हुआ तो उनका आगे का पॉलिटिकल करियर फ्लॉप होता दिख रहा है। एक तरीके से मायावती का अपने राजनीतिक जीवन के लिए आखिरी दांव है।
खुद इस्तीफा नहीं देती तो बाहर हो जाती
मायावती का राज्यसभा का कार्यकाल 2 अप्रैल 2018 को खत्म हो रहा है अगर वो इस्तीफा नहीं भी देती तो उनके पास राज्यसभा में बने रहने के लिए 1 साल से कम का वक्त बचा है। मायावती को ये पता है कि अभी उनके पास दोबारा राज्यसभा पहुंचने के लिए संख्या बल नहीं है और ना ही 2019 से पहले आने की उम्मीद है। ऐसे समय पर मायावती ने दलितों के मामले को मुद्दा बनाकर इस्तीफा दिया है जिसका सीधा फायदा मायावती को चुनावों में मिल सकता है। दरअसल मायावती अपने एक साल से कम के राज्यसभा के कार्यकाल की बलि देकर लंबी राजनीतिक पारी खेलने का प्लान कर रही हैं।
दलित वोट पर कब्जा करने के लिए मास्टर स्ट्रोक
मायावती और बहुजन समाज पार्टी दोनों की हालत फिलहाल अच्छी नहीं है। बसपा के पास यूपी विधानसभा में मात्र 19 सीटें हैं लोकसभा में मायावती की पार्टी से एक भी सांसद नहीं है। ऐसे में राजनीति में बने रहना है और फिर से सीएम की कुर्सी पानी है तो मायावती को संगठन को मजबूत करना पड़ेगा क्योंकि मायावती की पार्टी के ज्यादतर कद्दावर नेता पार्टी छोड़ कर जा चुके हैं। ऐसे में मायावती चाहतीं हैं कि संगठन मजबूत हो। संगठन मजबूत होने के लिए जरुरी है कि मायावती दलितों की मसीहा के तौर पर बनी रहें।यही वजह है कि सहारनपुर की घटना और दलित उत्पीड़न के नाम पर इस्तीफा देकर मायावती दलित राजनीति के केंद्र में अपने-आप को लाना चाहती हैं। मायावती ने दलितों की समस्याओं के आधार पर इस्तीफा दिया है जिससे दलित समाज में मायावती के प्रति अच्छा संदेश जाने की उम्मीद है।
मायावती को ऐसे कदम की जरुरत थी
साल 2017 में हुए यूपी विधानसभा चुनाव में दलितों के करीब 41 फीसदी वोट बीजेपी के खाते में गए। कई परंपरागत सीट पर भी बीजेपी से उन्हें मात खानी पड़ी थी। ऐसे में अपने वोटर्स को दोबारा पाने और जनाधार बनाए रखने के लिए मायावती को बड़े कदम की जरूरत है। राष्ट्रपति के लिए एक दलित चेहरा उतारकर बीजेपी ने खुद को दलितों के और करीब लाकर खड़ा कर दिया है। ऐसे में मायावती को बीजेपी से सीधे दो-दो हाथ करने और दलितों की मसीहा बने रहने के लिए दलितों के मुद्दे पर ही इस्तीफा देना फायदेमंद साबित हो सकता है। इससे दलितों के बीच उनके छवि बनेगी।
19 और 22 पर नजर
मायावती 61 साल की हो चुकी हैं अब राजनीति में कमाल करने के लिए उनके पास दो मौके है एक 2019 में होने वाला लोकसभा चुनाव दूसरा 2022 का यूपी विधानसभा चुनाव। मायावती को पता है कि लड़ाई आसान नहीं है अब तो करो या मरो की लड़ाई है। इन दो चुनावों में मायावती ने कमाल नहीं किया तो आगे कुछ करना नामुमकीन जैसा लगता है। इसिलिए मायावती अभी से मैदान में उतकर संगठन को मजबूत करना चाहती हैं। जिसका फायदा उनको चुनावों में मिल सके। सबको पता है राजनीति में जनता-जनार्दन के आशीर्वाद के बिना कुछ नहीं हो सकता।
मिलेगा सियासी फायदा
राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन की बात चल रही है अगर ऐसा कुछ होता है तो बसपा सुप्रीमो की स्थिति मजबूत हो सकती है। मायावती दलित नेता के नाम पर सबको स्वीकार्य नेता बन सकती है। अभी तक बिहार के सीएम नीतीश कुमार के रेस में होने की बात कही जा रही है। हालांकि आरेजडी सुप्रीमो लालू यादव कई बार मायावती और अखिलेश यादव के साथ आने की बात कह चुके हैं।