मायावती के तीखे हमले के बाद भी चुप रहने को मजबूर क्यों है कांग्रेस?
नई दिल्ली। सहारनपुर के देवबंद में महागठबंधन की रैली बहुत कुछ कह गयी। भीड़ के मामले में इस रैली को याद रखा जाएगा। वहीं, इसने 25 साल पहले 1993 में एसपी-बीएसपी गठबंधन की याद दिला दी है। 90 के दशक में बीजेपी के राम लहर का मुकाबला करने में यह गठबंधन कामयाब रहा था। देवबंद की रैली भी बता रही है कि यूपी का चुनावी दंगल कांटे का रहने वाला है।
1993
में
SP-BSP
गठबंधन
के
बाद
यूपी
में
त्रिशंकु
नतीजे
1993
में
जब
एसपी-बीएसपी
ने
मिलकर
विधानसभा
का
चुनाव
लड़ा
था
तो
दोनों
ने
मिलकर
176
विधानसभा
की
सीटें
जीती
थीं।
तब
बीजेपी
अपने
दम
पर
177
सीटें
जीतने
में
कामयाब
रही
थी।
कांग्रेस
को
28
और
जनता
दल
को
27
सीटें
मिली
थीं।
एक
त्रिशंकु
विधानसभा
बनी
थी।
अगर
प्रतिशत
रूप
में
वोटों
का
बंटवारा
देखें
तो
बीजेपी
को
33.3
फीसदी,
एसपी-बीएसपी
गठबंधन
को
28.9
फीसदी,
कांग्रेस
को
15.11
फीसदी
और
जनता
दल
को
13.76
फीसदी
वोट
मिले
थे।
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2014 लोकसभा चुनाव में शून्य हो गयी बीएसपी
2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी गठबंधन ने 80 में 73 सीटें जीतकर विपक्षी खेमे में सन्नाटा पैदा कर दिया था। बीएसपी शून्य हो गयी। इस पृष्ठभूमि में एसपी-बीएसपी का एक साथ आना और देवबंद में साझा रैली से इतिहास दोहराने के मतलब साफ हैं। कांग्रेस पहले से और कमजोर हुई है। इस वजह से स्पष्ट रूप से तीन हिस्सा बनता नज़र नहीं आ रहा है। सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या महागठबंधन सीटों और वोटों के नजरिए से बीजेपी को पीछे कर पाएगा?
कांग्रेस
से
डरने
लगी
हैं
मायावती
देवबंद
की
रैली
में
मायावती
ने
कांग्रेस
को
कोसा
है,
मुसलमानों
को
समझाने
की
कोशिश
की
है
कि
कांग्रेस
वोट
काटने
के
लिए
चुनाव
मैदान
में
है
और
बीजेपी
के
मुकाबले
महागठबंधन
को
ही
वोट
करें।
यह
अपील
साबित
करती
है
कि
महागठबंधन
को
कांग्रेस
से
ख़तरा
नजर
आ
रहा
है।
ऐसा भी नहीं है कि केवल मुसलमान वोटों के मद्देनजर महागठबंधन यह ख़तरा महसूस कर रहा है। जब मायावती कहती हैं कि इंदिरा गांधी ने भी ‘गरीबी हटाओ के नाम पर नाटकबाजी की थी' तो उन्हें राहुल गांधी के ‘गरीबी पर वार 72 हज़ार' नारे से भी डर लगता साफ दिख रहा है। एक तरह से कांग्रेस ने चुनाव मैदान में अकेले सामने आने की हिम्मत दिखाकर उत्तर प्रदेश की राजनीति को प्रभावित कर दिखाने की अपनी क्षमता दिखला दी है।
11 अप्रैल को हो रहे चुनाव में सभी 8 सीटें हैं बीजेपी के पास
पहले चरण की जिन 8 सीटों पर यूपी में 11 अप्रैल को चुनाव हो रहे हैं उनमें सहारनपुर, कैराना, मेरठ, मुजफ्फरनगर, बागपत, बिजनौर, गाज़ियाबाद और गौतमबुद्धनगर लोकसभा सीट शामिल हैं। ये सभी सीटें बीजेपी के पास हैं। कांग्रेस की मौजूदगी हर लोकसभा सीट पर है। कम से कम चार सीट सहारनपुर, बिजनौर, गाज़ियाबाद और गौतमबुद्धनगर ऐसी हैं जहां से अगर महागठबंधन उम्मीदवार की हार होती है तो उसकी वजह कांग्रेस ही होगी। बाकी सीटों पर भी प्रभावी मौजूदगी कांग्रेस की है।
कांग्रेस को कोसने का एक और है मकसद
मगर, महागठबंधन को लगता है कि कांग्रेस के मजबूती से खड़े होने पर उसे फायदा भी हो सकता है। महागठबंधन से कांग्रेस को दूर रखने के पीछे यही सोच काम कर रही थी। उदाहरण के लिए गाज़ियाबाद में कांग्रेस के ब्राह्मण महिला उम्मीदवार की मौजूदगी से बीजेपी को नुकसान होता देख रही है। मगर, बिजनौर, सहारनपुर जैसी सीटों पर मजबूत मुस्लिम उम्मीदवार उनकी उम्मीदों पर पानी भी फेरते दिख रहे हैं।
महागठबंधन के मंच से बीजेपी को कोसा जाना स्वाभाविक है मगर समान रूप से कांग्रेस पर हमला करने का एक और मतलब है। महागठबंधन यह संदेश देना चाहता है कि कांग्रेस से उसकी नजदीकी नहीं है। अब तक नजदीकी की ख़बरों ने चुनावी समीकरण के दो ध्रुवीय होने का ख़तरा पैदा कर दिया था। दो ध्रुवीय मुकाबले में फायदा बीजेपी को होना तय है। यह सबसे बड़ी वजह है कांग्रेस को निशाना बनाने की।
बर्दाश्त
करना
ही
कांग्रेस
की
नियति
ताज्जुब
की
बात
ये
है
कि
कांग्रेस
ने
अब
तक
यूपी
के
चुनाव
में
एसपी-बीएसपी
गठबंधन
को
निशाना
नहीं
बनाया
है।
वास्तव
में
ऐसा
करने
से
कांग्रेस
को
नुकसान
हो
सकता
है।
दोस्ताना
संघर्ष
दिखाते
रहने
से
कांग्रेस
को
उम्मीद
रहेगी
कि
जिन
इलाकों
में
महागठबंधन
उम्मीदवार
कमजोर
पड़ेंगे,
वहां
उनके
मतदाताओँ
का
रुझान
कांग्रेस
की
ओर
हो
सकता
है।
यही
कारण
है
कि
आगे
भी
यह
नज़ारा
देखने
को
मिलने
वाला
है
कि
महागठबंध
कांग्रेस
पर
हमला
करेगा
और
कांग्रेस
चुपचाप
उसे
बर्दाश्त
करेगी।
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