जानिए, निषाद के यू-टर्न से पूर्वी यूपी की 15 से ज्यादा सीटों पर बीजेपी को कैसे मिली संजीवनी?
नई दिल्ली- पिछले साल गोरखपुर लोकसभा उपचुनाव के नतीजे ने बीजेपी की मिट्टी पलीद कर दी थी। पार्टी वह सीट हारी थी, जिस पर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यानाथ का दो दशकों से कब्जा था। लेकिन, समय का चक्र फिर से 360 डिग्री घूमा है। जो प्रवीण निषाद (Praveen Nishad) ने उपचुनाव में समाजवादी पार्टी के टिकट पर भाजपा के उम्मीदवार को हराया था, वे अब अपने हाथ में कमल थाम चुके हैं। सबसे बड़ी बात ये है कि प्रवीण जिस निषाद समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं, उस समाज के नाम पर बनी पार्टी निर्बल इंडियन शोषित हमारा आम दल (NISHAD PARTY) भी उत्तर प्रदेश में एनडीए में शामिल हो गया है। सवाल उठता है कि अति पिछड़े समाज के निषाद समुदाय से बीजेपी को मिलने वाले समर्थन के सियासी मायने क्या हैं? क्या इससे महागठबंधन की संभावनाओं पर पानी फिर सकता है? कई सर्वे बता चुके हैं कि महागठबंधन के चलते बीजेपी को भारी नुकसान होने की आशंका है। ऐसे में क्या निषाद पार्टी का बदला हुआ नजरिया, बीजेपी के लिए दिल्ली की सत्ता तक पहुंचने में संजीवनी का काम कर सकता है? अगर इसका प्रभाव पड़ा तो भाजपा प्रदेश में कितने सीटों पर फायदे में रह सकती है?
गोरखपुर में क्या असर पड़ेगा?
अगर प्रवीण निषाद बीजेपी में शामिल हुए हैं, तो ये बात लगभग तय लगती है कि इसबार वे गोरखपुर में बीजेपी के प्रत्याशी होंगे। यानी उपचुनाव में वे साइकिल पर वोट मांग कर 26,000 वोटों से जीते थे, तो अबकी बार हाथ में कमल लेकर मुख्यमंत्री और बीजेपी की खोयी हुई प्रतिष्ठा वापस दिलाने का प्रयास करेंगे। आंकड़े बताते हैं कि गोरखपुर में अकेले निषाद समाज के 3.5 लाख वोटर हैं। 2018 के उपचुनाव में प्रवीण निषाद को कुल 4,56,513 वोट मिले थे, जबकि उनके मुकाबले बीजेपी के उपेंद्र दत्त शुक्ल को 4,34,632 वोट मिले थे। जबकि कांग्रेस की उम्मीदवार यहां मात्र 18,858 वोट ही ले पाई थी। ऐसे में 2019 के चुनाव में बीजेपी के उम्मीदवार के तौर पर उनकी दावेदारी और भी मजबूत होने की उम्मीद है।
बाकी यूपी में क्या प्रभाव पड़ेगा?
दरअसल, परंपरागत तौर पर निषाद समाज को बीजेपी का ही समर्थक माना जाता था। लेकिन, उपचुनाव के परिणाम ने प्रदेश में पार्टी की जमीन हिला दी थी। एक आंकड़े के मुताबिक प्रदेश में करीब 14 प्रतिशत निषाद, मल्लाह,केवट,बिंद,बेलदार और बिंद जातियां हैं, जिनपर निषाद पार्टी का खासा प्रभाव माना जाता है। जानकारी के मुताबिक गोरखपुर के अलावा उससे सटे महराजगंज,देवरिया,जौनपुर,बांसगांव और वाराणसी समेत 15 से ज्यादा लोकसभा सीटों पर इस समाज किसी भी उम्मीदवार की हार-जीत पर बड़ा रोल निभा सकते हैं। वैसे खबरों के मुतबाकि निर्बल इंडियन शोषित हमारा आम दल ( NISHAD Party) के संजय निषाद का तो दावा है कि लगभग हर क्षेत्र में उनका वोट है, लेकिन करीब 25 लोकसभा सीटों पर निषाद समुदाय के पास 3 से 4 लाख तक वोट है।
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बीजेपी के लिए संजीवनी होंगे निषाद
गोरखरपुर में निषादों वोट के दबदबे का संकेत पहली बार 1999 में मिला था। उस चुनाव में योगी आदित्यनाथ जीते तो थे, लेकिन उनकी जीत का अंतर महज सात हजार वोट के करीब था। क्योंकि, उस चुनाव में उनके खिलाफ समाजवादी पार्टी के टिकट पर पूर्व मंत्री जमुना निषाद मैदान में थे। 2018 आते-आते यह चुनौती इतनी बड़ी हो गई कि भाजपा के लिए अजेय लगने वाला गोरक्षनाथ पीठ का ये किला ध्वस्त हो गया। बहरहाल, पार्टी ने जातीय समीकरण को फिर से अपने में पक्ष में करने की दमदार चाल चली तो है, लेकिन इसका असर कितना व्यापक होगा, ये देखना दिलचस्प होगा। लेकिन, फिलहाल तो यूपी में बीजेपी को संजीवनी मिल ही चुकी है, क्योंकि भाजपा ने निषाद पार्टी के मुखिया के बेटे को ही कमल थमा दिया है, जिनके पिता अब राज्य में रामराज के साथ-साथ निषाद राज होने की भी बात कर रहे हैं। उनका दावा है कि यूपी में इस गठबंधन का असर मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ तक में पड़ने जा रहा है।
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