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कैफ़ी आज़मी: शायर जो मौलवी बनते-बनते कॉमरेड बन गए

कैफ़ी आज़मी मेरे समकालीन थे. उसी तरह जैसे उम्र के फ़र्क के बावजूद वह अपने सीनियर शायर जोश मलीहाबादी, रघुपति सहाय फ़िराक़ और जिगर मुरादाबादी के समकालीन थे.

वह इन बुज़ुर्गों के ज़माने के नौजवान शायर थे. सन् 35-36 में सज्जाद ज़हीर और मुल्कराज आनंद की कोशिशों से भारत में प्रगतिशील अदबी आंदोलन की शुरूआत हुई थी 

 

By BBC News हिन्दी
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मरहूम शायर निदा फ़ाज़ली का कैफ़ी आज़मी पर ये लेख बीबीसी हिंदी के पन्ने पर पहली बार 16 अगस्त 2006 को प्रकाशित हुआ था.

कैफ़ी आज़मी मेरे समकालीन थे. उसी तरह जैसे उम्र के फ़र्क के बावजूद वह अपने सीनियर शायर जोश मलीहाबादी, रघुपति सहाय फ़िराक़ और जिगर मुरादाबादी के समकालीन थे.

वह इन बुज़ुर्गों के ज़माने के नौजवान शायर थे. सन् 35-36 में सज्जाद ज़हीर और मुल्कराज आनंद की कोशिशों से भारत में प्रगतिशील अदबी आंदोलन की शुरूआत हुई थी और इस आंदोलन में शायरों की नई पीढ़ी उभर के सामने आई थी.

कैफ़ी उसकी दूसरी पीढ़ी के शायर थे. सरदार जाफ़री, मजाज़ लखनवी और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ उनसे सीनियर थे और साहिर लुधियानवी और मजरूह सुल्तानपुरी उनके हमसफ़र थे.

कैफ़ी का जन्म आज़मगढ़ के एक गाँव मिजवाँ में हुआ. घर का माहौल धार्मिक था.

लेकिन मिजवाँ से जब धार्मिक तालीम के लिए लखनऊ भेजे गए तो धार्मिकता में आप ही आप सामाजिकता शामिल होती गई और इस तरह वह मौलवी बनते-बनते कॉमरेड बन गए.

इस पहली वैचारिक तब्दीली के बाद उनकी सोच में कोई दूसरी तब्दीली नहीं आई. वह जब से कॉमरेड बने हमेशा इसी रास्ते पर चले और देहांत के वक़्त भी उनके कुर्ते की जेब में सीपीआई का कार्ड था.

उनका जन्म एक शिया घराने में हुआ था. इस घराने में हर साल मोहर्रम के दिनों में कर्बला के 72 शहीदों का मातम किया जाता था.

कैफ़ी भी अपने बचपन और लड़कपन के दिनों में इन मजलिसों में शरीक होते थे और दूसरे अक़ीदतमंदों की तरह हज़रत मोहम्मद के नवासे और उनके साथियों की शहादतों पर रोते थे.

कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ने के बाद भी उनका रोना तो बदस्तूर जारी रहा. फ़र्क सिर्फ़ इतना हुआ कि पहले वह धर्म-अधर्म की लड़ाई में केवल चंद नामों का ग़म उठाते थे, बाद में इन चंद नामों पर लाखों-करोड़ों पीड़ितों का प्रतीक बनाकर सबके लिए आँसू बहाते थे.

शोषित वर्ग के शायर

कैफ़ी की पूरी शायरी अलग-अलग लफ़्ज़ों में इन्हीं आँसुओं की दास्तान है.

दूसरे कम्युनिस्टों की तरह उन्हें नास्तिक कहना मुनासिब नहीं. उनका साम्यवाद भी उनके घर की आस्था का ही एक फैला हुआ रूप था.

दोनों के नाम ज़रूर एक दूसरे से मुख़्तलिफ़ थे, लेकिन आत्मा एक ही थी.

समाज में हर शोषणकर्ता अब उनके लिए यज़ीद था (यज़ीद के सिपाहियों के हुक्म पर ही पैगंबर मौहम्मद के नाती हज़रत हुसैन को क़त्ल किया गया था) और संसार के हर शोषित में उन्हें 'हुसैनियत' नज़र आती थी.

वह समाज के शोषित वर्ग के शायर थे. उसी के पक्ष में क़लम उठाते थे. उसी के लिए मुशायरों के स्टेज से अपनी नज़्में सुनाते थे.

कैफ़ी आज़मी सिर्फ शायर ही नहीं थे. वह शायर के साथ स्टेज के अच्छे 'परफ़ॉर्मर' भी थे.

इस 'परफ़ॉर्मेंस' की ताक़त उनकी आवाज़ और आवाज़ के उतार चढ़ाव के साथ मर्दाना क़दोक़ामत और फ़िल्मी अदाकारों जैसी सूरत भी थी.

शायरी किताबों में भी पढ़ी जाती है और सुनी भी जाती है. लिखने की तरह इसकी अदायगी भी एक कला है.

शायरी और इसकी अदायगी. ये दोनों विशेषताएँ किसी एक शायर में मुश्किल से ही मिलती है. और जब ये मिलती है तो शायर अपने जीवन काल में ही लोकप्रियता के शिखर को छूने लगता है. अदब के आलोचक भले ही कुछ कहें लेकिन यह एक हक़ीकत है.

भारतीय काव्य के साथ मौखिक परंपरा हमेशा से रही है. संत संगतों में अपनी वाणियाँ दोहराते थे और शायर-कवि श्रोताओं को कलाम सुनाते थे.

कैफ़ी आज़मी इसी परंपरा से जुड़े शायर थे. यह परंपरा उन्हें बचपन में मोहर्रम की उन मजलिसों से मिली थी, जिनमें मर्सिए (शोक-गीत) सुनाए जाते थे.

सुनाने वाले आँखों और हाथों के हाव-भाव और आवाज़ के उतार-चढ़ाव से सुनने वालों को जब चाहे हँसाते थे, जब चाहे रुलाते थे और कभी उनसे मातम करवाते थे.

कैफ़ी आज़मी
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कैफ़ी आज़मी

अनोखा अंदाज़

कैफ़ी आज़मी का पढ़ने का अंदाज़ अपने-अपने समकालीनों में सबसे अनोखा था. मैंने हिंदी के सुमन और भवानी भाई को भी सुना है और उर्दू के फ़िराक़ और जोश को भी.

ये सारे अपने अपने अंदाज़ में महफिलों में छा जाते थे लेकिन कैफ़ी आज़मी जब कलाम पढ़ने के लिए बुलाए जाते तो पढ़ने के बाद पूरे मुशायरे को अपने साथ ले जाते थे. स्टेज से उनको सुनना एक अनुभव के समान था.

हैदराबाद में एक मुशायरे में उनकी इसी कलात्मक प्रस्तुति ने कैफ़ी के जवानी के दिनों की एक हसीना को किसी और के साथ अपनी मंगनी तोड़ने पर मजबूर कर दिया था. कैफ़ी अपनी मशहूर नज़्म औरत सुना रहे थे...

उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे

क़द्र अब तक तेरी तारीख़ ने जानी ही नहीं

तुझमें शोले भी हैं बस अश्क फिशानी ही नहीं

तू हक़ीकत भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं

तेरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं

अपनी तारीख़ का उन्वान बदलना है तुझे

उठ मेरी जान...

और वह लड़की अपनी सहेलियों में बैठी कह रही थी, "कैसा बदतमीज़ शायर है. वह 'उठ' कह रहा है. उठिए नहीं कहता और इसे तो अदब-आदाब की अलिफ़-बे ही नहीं आती. इसके साथ कौन उठकर जाने को तैयार होगा?"

मुंह बनाते हुए वह व्यंग्य से पंक्ति दोहराती है, 'उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे..'

मगर जब श्रोताओं की तालियों के शोर के साथ नज़्म ख़त्म होती है तो वह लड़की अपनी ज़िंदगी का सबसे बड़ा फ़ैसला ले चुकी थी.

माँ बाप ने लाख समझाया वह नहीं मानी. सहेलियों ने इस रिश्ते की ऊँच-नीच के बारे में भी बताया. वह शायर है. शादी के लिए सिर्फ़ शायरी काफ़ी नहीं होती. शायरी के अलावा घर की ज़रूरत होती है.

वह खु़द बेघर है. खाने-पीने और कपड़ों की भी ज़रूरत होती है. कम्युनिस्ट पार्टी उसे केवल 40 रुपये महीना देती है.

लेकिन वह लड़की अपने फ़ैसले पर अटल रही. और कुछ ही दिनों में अपने पिता को मजबूर करके बंबई ले आई.

सज्जाद ज़हीर के घर में कहानीकार इस्मत चुग़ताई, फ़िल्म निर्देशक शाहिद लतीफ़, शायर अली सरदार जाफ़री, अंग्रेज़ी के लेखक मुल्कराज आनंद की मौजूदगी में वह रिश्ता जो हैदराबाद में मुशायरे में शुरू हुआ था, पति-पत्नी के रिश्ते में बदल गया.

सरदार जाफ़री ने दुल्हन को कैफ़ी का पहला संग्रह 'आख़िरी शब' तोहफ़े में दिया. इसके पहले पेज पर कैफ़ी के शब्द थे, शीन (उर्दू लिपि का अक्षर) के नाम. मैं तन्हा अपने फ़न को आखिरी शब तक ला चुका हूँ तुम आ जाओ तो सहर हो जाए.

यह 'शीन' अब कैफ़ी आज़मी की विधवा हैं. वह शौकत ख़ान से शौकत आज़मी बनीं थीं. उनके नाम का पहला अक्षर है 'शीन'.

शौकत आज़मी जो जवान कैफ़ी की ख़ूबसूरत प्रेमिका थी, आज भारत की बड़ी अभिनेत्री शबाना आज़मी की माँ हैं.

शुरुआत

कैफ़ी आज़मी ने शायरी 11 साल की उम्र में शुरू की. उन्होंने अपनी पहली ग़ज़ल जब गाँव की एक महफ़िल में सुनाई तो उनकी उम्र को देखते हुए किसी को यक़ीन नहीं आया कि यह उन्हीं की लिखी हुई है.

कैफ़ी को इस बेयक़ीनी पर काफ़ी दुख हुआ. लेकिन इस दुख ने कम उम्र कैफ़ी को तोड़ा नहीं. इसे उन्होंने अपनी ताक़त बनाया और अपनी मेहनत और रियाज़त से वह बन कर दिखाया, जिसे आज लोग कैफ़ी आज़मी के नाम से जानते हैं.

कैफ़ी की उस पहली ग़ज़ल का मतला है-

इतना तो ज़िंदगी में किसी की खलल पड़े

हँसने से हो सुकून न रोने से कल पड़े

11 साल की उम्र में कही हुई यह ग़ज़ल बेगम अख़्तर की आवाज़ में पूरे देश में मशहूर हो चुकी है.

40 रुपए मासिक पगार से शुरू करके पृथ्वी थिएटर के सामने एक आलीशान बंगले तक की यात्रा में मुशायरों के स्टेज के साथ फ़िल्मों में उनकी गीतकारी ने भी बड़ी भूमिका निभाई है.

उनके लिखित गीतों ने फ़िल्मी गीतों में अदबी रंग पैदा किया और साहिर की तरह उन गीतों से उन्होंने यश भी पाया और नाम भी कमाया.

गीतकारी के अलावा उन्होंने फ़िल्मों के लिए पटकथाएँ भी लिखीं. इसमें 'गर्म हवा' ख़ास है.

कैफ़ी भी शुरू में उस युग की परंपरा के अनुसार गाकर कलाम सुनाते थे.

ऐसी ही एक महफ़िल में एक बार सरोजनी नायडू भी मौजूद थीं.

उन्होंने खामोशी से कैफ़ी को अपने टेप में रिकॉर्ड कर लिया था. दूसरे दिन कैफ़ी और सरदार दोनों सरोजनी के बुलावे पर उनके घर में थे.

उन्होंने कैफ़ी से कहा, 'क्या तुम जानते हो तुम्हारा तरन्नुम कैसा है?' और उन्होंने अपना टेप ऑन कर दिया. वह दिन कैफ़ी के तरन्तुम का आख़िरी दिन था. उसके बाद वह तहत में ही कलाम सुनाते रहे और मुशायरों में धूम मचाते रहे...

कर चले हम फ़िदा जानो-तन साथियो

अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो.

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English summary
Kaifi Azmi: Shire who became a cleric became Comrade
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