जम्मू कश्मीर में पुलिस के नए आदेश से युवाओं को फ़ायदा या नुकसान?
कश्मीर में पुलिस ने एक सर्कुलर जारी कर बताया है कि ऐसे किसी भी व्यक्ति को पासपोर्ट या सरकारी नौकरी के लिए स्वीकृति नहीं मिलेगी जो पत्थरबाज़ी या देश विरोधी गतिविधियों में शामिल रहा है.
"पुलिस की तरफ़ से जारी फ़रमान के बाद मेरे भविष्य के सभी सपने फ़िलहाल चकनाचूर हो गए हैं. मैंने सोचा था कि आगे की पढ़ाई के लिए विदेश जाऊंगा, जो अब संभव नहीं है. बीते पांच वर्षों से अदालत में मेरा केस चल रहा है. घर में भी सब लोग पुलिस के इस नए आदेश से परेशान हो गए हैं. न अब मुझे फ़िलहाल सरकारी नौकरी मिल सकती है और न ही विदेश पढ़ाई के लिए जा सकता हूँ."
ऐसा कहना है श्रीनागर के चौबीस वर्ष के शाबिर अहमद का (बदला हुआ नाम) जिनके ख़िलाफ़ कश्मीर की एक अदालत में पत्थरबाज़ी और तोड़फोड़ का मामला चल रहा है.
शाबिर के ख़िलाफ़ साल 2015 में पुलिस ने कई मामले दर्ज किए थे, जिसके बाद उन्हें एक महीने के लिए गिरफ़्तार भी किया गया था और बाद में वे ज़मानत पर छूटे थे.
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शाबिर ने गिरफ़्तारी से पहले अपना पासपोर्ट इश्यू कराया था जो 2022 तक मान्य है.
लेकिन इस साल जनवरी में उन्होंने अपने पासपोर्ट को फिर से रिन्यू कराने का आवेदन दिया तो उसे स्वीकार नहीं किया गया. शाबिर ने बताया कि पासपोर्ट दफ़्तर से उन्हें अदालत से केस ख़ारिज होने का सर्टिफ़िकेट माँगा गया था, जो उनके पास नहीं है.
शाबिर का कहना था कि एक तरफ़ सरकार कहती है कि नौजवानों को रोज़गार दिया जाएगा और दूसरी और उनको बेरोज़गार किया जा रहा है.
शाबिर के ख़िलाफ़ इंडियन पीनल कोड की धारा 147, 148, 149, 325, 326 ,336 और 425 के तहत मामले दर्ज किए गए थे.
पुलिस के आदेश में क्या बताया गया?
कश्मीर में पुलिस ने बीते शनिवार को देर रात एक सर्कुलर जारी कर बताया कि ऐसे किसी भी व्यक्ति को पासपोर्ट या सरकारी नौकरी के लिए स्वीकृति नहीं मिलेगी जो पत्थरबाज़ी या देश विरोधी गतिविधियों में शामिल रहा होगा.
इस सर्कुलर के तहत वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (एसएसपी), सीआईडी, विशेष शाखा (एसबी) कश्मीर ने सभी फ़ील्ड यूनिट को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया है कि क़ानून और व्यवस्था तोड़ने, पथराव करने के मामलों में व्यक्ति की संलिप्तता और राष्ट्र की सुरक्षा के लिए हानिकारक अन्य अपराधों में संलिप्तता को विशेष रूप से पासपोर्ट, नौकरी और सरकारी योजनाओं से संबंधित किसी भी अन्य सत्यापन के दौरान देखा जा सकता है.
https://twitter.com/ANI/status/1421756651976073217
एसएसपी ने यह भी कहा कि सीसीटीवी फुटेज़, फ़ोटो, वीडियो, ऑडियो क्लिप और पुलिस, सुरक्षा बलों और सुरक्षा एजेंसियों के रिकॉर्ड में उपलब्ध क्वाडकॉप्टर इमेज जैसे डिज़िटल सबूतों को भी सत्यापन के दौरान संदर्भित किया जाना चाहिए.
इस सर्कुलर को जम्मू कश्मीर पुलिस की क्रिमिनल इन्वेस्टीगेशन डिपार्टमेंट (सीएडी ) के एसएसपी ने जारी किया है.
जम्मू-कश्मीर में पहले से ही पुलिस वेरीफ़िकेशन के लिए नियम मौजूद थे, लेकिन नए आदेश से उनको और भी सख़्त किया गया है.
ये सर्कुलर एक ऐसे समय में सामने आ गया है जब केंद्र शासित प्रदेश जम्मू कश्मीर ने प्रदेश की सुरक्षा के ख़िलाफ़ काम करनेवाले सरकारी कर्मचारियों की पहचान, जाँच और उसके बाद कार्रवाई को लेकर एक विशेष टास्क फ़ोर्स (एसटीएफ़) का गठन किया है.
संविधान के अनुछेद 311 (2) (सी) के तहत पास किए गए इस ऑर्डर के ज़रिए सरकार को ये अधिकार है कि किसी भी कर्मचारी को बिना जाँच कमेटी का गठन किए नौकरी से बर्ख़ास्त किया जा सकता है.
अब तक इस नए क़ानून के तहत क़रीब 18 सरकारी कर्मचारियों को नौकरियों से निकला गया है.
पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती और उनकी माँ को भी सीआईडी की रिपोर्ट के बाद श्रीनगर के पासपोर्ट दफ़्तर ने पासपोर्ट देने से इंकार किया. मुफ़्ती ने अदालत में उनको पासपोर्ट न देने को चुनौती दी थी, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला.
जम्मू -कश्मीर के राजनीतिक दलों ने क्या कहा?
पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) का कहना है कि भारत सरकार ने 05 अगस्त 2019 को जो 'असंवैधानिक फ़ैसला' लिया है, ये उसी फ़ैसले की कड़ियाँ हैं और कश्मीर के लोगों को उनके अधिकारों से दूर रखने की कोशिश है.
पार्टी के प्रवक्ता ताहिर सईद कहते हैं, "05 अगस्त 2019 से कश्मीरियों को शक्तिहीन करने की जो कोशिशें हो रही हैं, ये उसकी एक कड़ी है. होना तो ये चाहिए था कि नौजवानों को मुख्यधारा में लाया जाता. लेकिन सरकार की ओर से जो क़दम उठाए जा रहे हैं उससे ऐसा महसूस होता है कि नौजवानों को ज़्यादा से ज्यादा दूर करने की कोशिश की जा रही है. दूसरी अहम बात यह है कि कौन तय करेगा कि अपराध किसने किया है और किसने नहीं किया है?"
"जिस तरह से आदेश के बाद आदेश जारी किए जा रहे हैं, उनसे तो ऐसा ही लगता है कि अदालत फ़ैसला नहीं करेगी, बल्कि अधिकारी फ़ैसला करेंगे. जिस नए कश्मीर का नारा दिया जा रहा है या दिल जीतने की बातें हो रही हैं, ये सब उसको तो दर्शाता नहीं है जो किया जा रहा है. जम्मू -कश्मीर के लोगों को बंदूक की नोक और ज़ोर ज़बर्दस्ती कर हांका जा रहा है. ये पहला आदेश नहीं है बल्कि इससे पहले भी सरकारी कर्मचारयों को नौकरियों से निकाला जा रहा है, उन्हें अपनी बात कहने का मौका नहीं दिया जा रहा है."
पीडीपी की अध्यक्ष महबूबा मुफ़्ती ने भी एक ट्वीट किया है, "निर्दोष साबित होने तक कश्मीरियों को दोषी माना जाता है. चाहे सरकारी नौकरी के लिए हो या पासपोर्ट के लिए, उन्हें सबसे ख़राब तरह की जांच के अधीन किया जाता है. लेकिन जब एक पुलिसकर्मी के बारे में पता चलता है कि उसने आतंकवादियों की मदद की है तो उसे छोड़ दिया जाता है. दोहरा मापदंड और गंदा खेल स्पष्ट है."
https://twitter.com/MehboobaMufti/status/1422076149232934913
नेशनल कॉन्फ़्रेंस का कहना है कि जब चुनी हुई सरकार ही नहीं है तो इन फ़ैसलों का क्या तुक बनता है.
पार्टी के प्रवक्ता इमरान नबी डार बताते हैं, "ऐसे फ़ैसले तो लोकतांत्रिक सरकारों को ही लेने चाहिए और जो फ़ैसले लिए जा रहे हैं, उनमें आम लोगों की स्वीकृति नहीं है. जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र स्थगित है और जो फ़ैसले लिए जा रहे हैं वो अलोकतांत्रिक हैं. अगर हम ख़ुद को सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश कहते हैं तो उसके लिए ज़रूरी है कि यहां लोकतंत्र को बहाल किया जाए."
यह पूछने पर कि क्या जम्मू- कश्मीर में प्रशासन अपने फ़ैसले आम जनता पर थोप रहा है, इस सवाल के जवाब में डार ने कहा, "इस तरह के फ़रमान दिल्ली से जारी किए जा रहे हैं. हमारी हालत ये है कि हम इनसे सवाल भी नहीं पूछ सकते हैं."
पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्लाह ने भी इस मामले पर ट्वीट किया है, "इन लोगों ने कइयों के साथ ऐसा किया है. कइयों के ख़िलाफ़ पुलिस रिपोर्ट अदालत में टिक नहीं सकी. एक कार्यकारी आदेश अदालत में क़ानून की जगह नहीं ले सकता. अपराध या बेगुनाही को अदालत में साबित किया जाना चाहिए और यह अस्पष्ट अप्रमाणित पुलिस रिपोर्टों के आधार पर नहीं होना चाहिए. "
एक दूसरे ट्वीट में उमर अब्दुल्लाह ने लिखा है, " एक 'प्रतिकूल पुलिस रिपोर्ट' क़ानून की अदालत में दोषी पाए जाने का विकल्प नहीं हो सकती है. डेढ़ साल पहले जम्मू-कश्मीर पुलिस सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम के तहत मेरी नज़रबंदी को सही ठहराने के लिए एक 'प्रतिकूल पुलिस रिपोर्ट' बनाने में सक्षम थी, जो कभी भी क़ानूनी चुनौती के सामने नहीं टिकेगी."
https://twitter.com/OmarAbdullah/status/1421873158160740358
हालाँकि जम्मू-कश्मीर बीजेपी ने इस सर्कुलर का स्वागत किया है और बताया है अब पासपोर्ट और नौकरी, पत्थरबाजों और देशद्रोहियों को नहीं बल्कि उन लोगों को मिलेगी जो साफ़ सुथरी पृष्ठभूमि के होंगे.
पार्टी के प्रवक्ता अल्ताफ़ ठाकुर कहते हैं, "बीते तीस वर्षों में यहाँ उन लोगों को भी नौकरी मिली जो देश के ख़िलाफ़ पत्थर या हथियार उठाते थे और दबाव बनाकर नौकरी हासिल करते थे. अब ऐसा नहीं होगा. अब सिर्फ़ उनको नौकरी मिलेगी जिन्होंने मेहनत करके पढ़ाई की है और किसी देश विरोधी गतिविधि में शामिल नहीं रहे हैं. यही वजह है कि हम इस क़दम का स्वागत करते हैं."
ये पूछने पर पर कि सिर्फ़ पुलिस रिपोर्ट पर किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता और ऐसा होने पर अदालतों का क्या काम है? तो अल्ताफ़ ठाकुर बोले, "जो एजेंसियां जाँच करती हैं वो भरोसेमंद संस्थाएं हैं और उनकी जाँच सबके सामने है. हर चीज़ को अदालत पर नहीं छोड़ा जा सकता है."
विशेषज्ञ क्या कहते हैं ?
क़ानून के विशेषज्ञ कहते हैं कि कश्मीर में सरकार आम लोगों पर एक मानसिक दबाव डालना चाहती है.
सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ़ कश्मीर में लॉ विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रोफ़ेसर शौक़त शेख़ कहते हैं, "असल बात ये है कि कश्मीर में पासपोर्ट मिलना हमेशा ही मुश्किल रहा है. उसका कारण ये है कि यहाँ सीआईडी, पुलिस और दूसरी एजेंसियों की जाँच का एक लंबा सिलसिला होता था. बीते कुछ वर्षों से इसमें कुछ थोड़ी सी नरमी आ गई थी."
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"अब लगता है कि सरकार पासपोर्ट न देने का बहाना तलाश रही है. कोई पत्थरबाज़ी में शामिल रहा है या किसी देश विरोधी काम में, यह तय होना चाहिए. महज़ एक इल्ज़ाम पर किसी का बुनियादी अधिकार नहीं छीना नहीं जा सकता है. सरकार का जो एलान है क़ानून उसका समर्थन नहीं करता है. लेकिन सरकार इस समय लोगों पर मानसिक दबाव डालना चाहती है. मैं नहीं मानता कि भारत की सुप्रीम कोर्ट जो पासपोर्ट को बुनियादी अधिकार मान चुकी है ऐसे किसी फ़ैसले को मानने के लिए तैयार हो."
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