चार महीने में कितना जादू दिखा सकीं प्रियंका गांधी: नज़रिया
वैसे तो चार महीने का वक़्त किसी के भी प्रदर्शन को आंकने के लिए बहुत कम होता है लेकिन चुनावी सरगर्मियों को देखते हुए प्रियंका के प्रदर्शन का आंकलन करना ज़रूरी हो जाता है.
नए साल की शुरुआत में जनवरी महीने में प्रियंका गांधी का राजनीति में आगमन इस उम्मीद के साथ हुआ कि वो कांग्रेस पार्टी के लिए एक ब्रह्मास्त्र का काम करेंगी जो 2019 लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत की संभावनाओं को समाप्त कर देगा.
उन्हें सभी अधिक लोकसभा सीटों वाले राज्य उत्तर प्रदेश में प्रभाव जमाने की ज़िम्मेदारी दी गई. महासचिव बनते ही प्रियंका के हाथों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कमान सौंपी गई.
इन ज़िम्मेदारियों को निभाते हुए प्रियंका को चार महीने हो गए हैं. सवाल उठता है कि इन चार महीनों में प्रियंका कितनी कामयाब रहीं?
वैसे तो चार महीने का वक़्त किसी के भी प्रदर्शन को आंकने के लिए बहुत कम होता है लेकिन चुनावी सरगर्मियों को देखते हुए प्रियंका के प्रदर्शन का आंकलन करना ज़रूरी हो जाता है.
हाल ही में दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों ने उत्तर प्रदेश के 38 हज़ार मतदाताओं के बीच एक सर्वे किया और पाया कि 44 प्रतिशत लोग सपा-बसपा गठबंधन का समर्थन करते हैं, यानी कि प्रियंका के आने का कांग्रेस को बहुत अधिक फायदा मिलता हुआ नहीं दिखता.
प्रियंका को मीडिया कवरेज
इस प्रियंका का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि जैसे ही वो सक्रिय राजनीति में आईं, उसके कुछ दिन के भीतर ही पुलवामा हमला हो गया.
इस हमले की वजह से उन्हें कम से कम 10 दिन तक शांत रहना पड़ा.
इसके बाद उन्होंने रोड शो, रैलियां और नाव यात्रा शुरू की. इन्हें अच्छी मीडिया कवरेज भी मिली.
प्रियंका गांधी छोटे-छोटे समूह में लोगों से मुलाक़ात कर रही हैं और मीडिया के साथ बिना किसी रोक-टोक के बात कर रही हैं.
राय बरेली में तो उन्होंने बिना किसी डर के एक सपेरे के साथ भी बातचीत की.
प्रियंका का जादू
प्रियंका युवा नेता होने के साथ-साथ करिश्माई व्यक्तित्व की धनी भी हैं. वो मुखर हैं और लोगों के साथ आसानी से जुड़ जाती हैं. उनमें एक स्वाभाविक राजनेता के गुण नज़र आते हैं.
लोग अक्सर प्रियंका गांधी की तुलना उनकी दादी और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से करते हैं, लेकिन अभी प्रियंका को यह साबित करना है कि उनके भीतर इंदिरा गांधी जैसी काबीलियत है या नहीं.
प्रियंका गांधी को राजनीति में उतारने का नुकसान भी हो सकता है लेकिन फिर भी गांधी परिवार ने यह ख़तरा मोल लिया.
दरअसल कांग्रेस को प्रियंका गांधी के जादू पर विश्वास है.
पिछले लोक सभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के रणनीतिकार और इस समय जदयू के उपाध्यक्ष प्रशांत किशोर ने कहा है, ''किसी के पास जादू की छड़ी नहीं होती, मुझे नहीं लगता कि प्रियंका गांधी अब कांग्रेस के लिए बहुत कुछ बदल पाएंगी. लेकिन वो एक बड़ा नाम हैं और आने वाले वक़्त में वो एनडीए के लिए एक चुनौती ज़रूर बनेंगी''
राजनीति में प्रियंका की भूमिका
वैसे देखा जाए तो प्रियंका के लिए राजनीति उतना नया मैदान भी नहीं है. वो पिछले कई सालों से रायबरेली और अमेठी में अपनी मां और भाई के लिए चुनाव प्रचार करती रही हैं.
वो कांग्रेस और गांधी परिवार के अहम फ़ैसलों में शामिल रही हैं. साल 2014 में उन्होंने कांग्रेस के प्रचार अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.
एक सवाल यह भी उठता है कि क्या कांग्रेस प्रियंका गांधी को साल 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए तैयार कर रही हैं और उन्हें मुख्यमंत्री उम्मीदवार के तौर पर पेश करने की सोच रही है.
हाल ही में मीडिया के साथ बात करते हुए प्रियंका ने कहा था, ''मैं 2022 के लिए कांग्रेस को मजबूत करना चाहती हूं ताकि उस समय कांग्रेस अच्छे तरीके से लड़ सके.''
प्रियंका भले ही असम, केरल और गुजरात की दौरा कर चुकी हों लेकिन फिर भी उन्होंने अपना प्रभाव क्षेत्र सीमित ही रखा है.
उन्होंने अपनी नाव यात्रा की इलाहाबाद से वाराणसी तक की. हालांकि अभी कहा नहीं जा सकता कि इस यात्रा के ज़रिए कांग्रेस को कितने वोट मिलेंगे क्योंकि पिछले तीन दशक से कांग्रेस उत्तर प्रदेश की सत्ता में नहीं है.
कोई भी संगठन एक-आधे दिन में नहीं खड़ा होता. खुद कांग्रेस समर्थक भी मानते हैं कि उत्तर प्रदेश में आगे की राह आसान नहीं रहेगी.
मोदी के सामने प्रियंका नहीं
इस बीच प्रियंका ने एक दो ग़लत कदम भी उठाए. पहला तो उन्होंने भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर आज़ाद से मुज़फ़्फरनगर के अस्पताल में की गई मुलाकात है.
इस मुलाकात ने तय कर दिया था कि कांग्रेस मायावती को अपने लिए एक ख़तरे के तौर पर देख रही है. इसके बाद से ही मायावती कांग्रेस के प्रति अधिक आक्रामक हो गईं.
दूसरी बात राहुल गांधी और प्रियंका ने लंबे समय तक इस बात पर संशय कायम रखा कि प्रियंका वाराणसी से प्रधानमंत्री मोदी के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ेंगी या नहीं.
अंतिम समय में कांग्रेस ने अजय राय को मैदान में उतारा जो कि पिछले लोकसभा चुनाव में वाराणसी सीट से ही बुरी तरह हार चुके हैं.
वाराणसी से प्रिंयका की दावेदारी के समर्थन में सपा प्रमुख अखिलेश यादव भी थे लेकिन मायावती ने इसका विरोध किया था.
प्रियंका गांधी से जब पूछा गया कि क्या वो मोदी का सामना करने से घबरा रहीं है, तो उनका जवाब था, ''अगर प्रियंका गांधी को डर लगेगा तो वो घर पर बैठ जाएंगी और राजनीति नहीं करेंगी. मैं राजनीति में अच्छा करने के लिए आई हूं और यहां रहूंगी.''
कहा जा सकता है कि गांधी परिवार प्रियंका को 2019 में मोदी के ख़िलाफ़ उतारकर उनकी खराब शुरुआत नहीं करना चाहती थी, क्योंकि हो सकता था कि वो वाराणसी से हार जातीं.
मायावती अखिलेश की नाराज़गी
प्रियंका गांधी ने टिप्पणी की थी कि उन्होंने कमज़ोर उम्मीदवार इसलिए उतारा है ताकि भाजपा के वोटों में सेंध लगाई जा सके.
उनकी इस टिप्पणी पर मायावती और अखिलेश ने काफी तीखी प्रतिक्रिया दी थी.
बाद अपनी बात को स्पष्ट करते हुए प्रियंका ने कहा, ''मैंन कहा था कि कांग्रेस इस चुनाव में अपने दम पर लड़ रही है. हमारे उम्मीदवार अधिकतर जगहों पर बेहद मजबूत हैं. मुझसे यह सवाल पूछा गया था कि क्या हम बीजेपी को फायदा पहुंचा रहे हैं. इसके जवाब में मैंने कहा था कि बीजेपी को फायदा पहुंचे की जगह मैं मरना पसंद करूंगी.''
लोकसभा चुनाव में अभी तीन चरण बाकी हैं जिसमें उत्तर प्रदेश की 41 सीटें शामिल हैं. सोनिया गांधी अपने खराब स्वास्थ्य की वजह से अभी तक चुनाव अभियान शुरू नहीं कर पाई हैं.
इस वजह से प्रियंका को अमेठी के साथ-साथ रायबरेली को भी देखना पड़ रहा है.
फिलहाल तो प्रियंका गांधी ख़बरों में बनी हुई हैं, लेकिन इतना ही काफी नहीं है. इसमें कोई शक़ नहीं कि प्रियंका की रैलियों में भीड़ जुटती है लेकिन क्या यह भीड़ वोट में भी तब्दील होगी.
जाति का समीकरण, मतदाताओं की उम्मीदें, वोटरों की सहभागिता, पार्टी का प्रदर्शन और गठबंधन के साथ तालमेल, ये तमाम चुनौतियां प्रियंका के सामने खड़ी हैं.
सिर्फ चुनावी नतीजों के दिन ही यह पता चलेगा कि प्रियंका का जादू चलता भी है या नहीं.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)
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