Bihar Election: हाथरस मुद्दा बनेगा नीतीश के लिए मुसीबत ! ऐसे घिर सकते हैं सुशासन बाबू
नई दिल्ली। हाथरस (Hathras) में 19 वर्षीय दलित लड़की के साथ दरिंदगी की घटना से पूरा देश गुस्से में है। घटना के विरोध में देश भर में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। दरिंदगी के बाद दलित युवती की मौत से पूरा देश हिला हुआ है। वहीं उत्तर प्रदेश पुलिस ने जिस तरह से केस को हैंडल किया उसे लेकर यूपी की योगी आदित्यनाथ सरकार निशाने पर है। 1 अक्टूबर को कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी जब हाथरस के लिए जाते वक्त पुलिस की धक्का मुक्की में नीचे गिरे तो इस घटना ने पूरे देश में सुर्खियां बटोरी।
इसके एक दिन बाद गांधी जयंती के दिन दिल्ली में कांग्रेस महासचिव दिल्ली के वाल्मीकि मंदिर पहुंची जहां उन्होंने मृतका के लिए आयोजित प्रार्थना सभा में हिस्सा लिया। हाथरस में दरिंदगी का शिकार हुई पीड़िता भी वाल्मीकि समुदाय से थी। 2 अक्टूबर को ही विपक्षी पार्टियों ने जंतर-मंतर पर प्रदर्शन किया जिसमें कई दलों के नेता शामिल हुए।
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दलितों के मुद्दे पर छाईं थी इंदिरा गांधी
राहुल गांधी के विरोध प्रदर्शन ने चार दशक पहले बिहार के बेलची हत्याकांड की याद दिला दी जहां सवर्ण जाति के लोगों ने कई दलितों की हत्या कर दी थी। तब सत्ता से बाहर रही इंदिरा गांधी ने इस घटना का राजनीतिक महत्व समझा था। वह भारी बारिश के बीच पीड़ितों के गांव में पहुंची थी। इस दौरान सफर के लिए श्रीमती गांधी ने ट्रेन, जीप, कार, ट्रैक्टर से सफर किया। बारिश के चलते गांव तक पहुंचने का सारा रास्ता पानी में डूबा दिखा तो उन्होंने हाथी की सवारी भी की। इंदिरा गांधी का ये कदम उस समय न सिर्फ चर्चित हुआ बल्कि सत्ता से बाहर हुई कांग्रेस के लिए काफी मददगार भी साबित हुआ।
हालांकि चार दशक पहले और आज परिस्थितियां एक जैसी नहीं हैं। न ही इस बार की घटना बिहार में हुई है लेकिन एक चीज बहुत साफ है। तब इंदिरा गांधी सत्ता से बाहर थीं और आज भी कांग्रेस सत्ता से बाहर है। बिहार से इस घटना का एक कनेक्शन जो बनता है वह ये कि बिहार में इस समय चुनाव हैं। जहां चुनाव हो वहां राजनीति अपना कनेक्शन ढूढ़ ही लेती है। बिहार में चुनाव का ऐलान हो चुका है। पहले चरण का नामांकन भी शुरू हो चुका है। ऐसे में विपक्ष लंबे समय से नीतीश कुमार की अगुवाई वाली एनडीए सरकार को हटाने के लिए किसी ऐसे मुद्दे की तलाश में है जो राजनीतिक के साथ सामाजिक पहलू भी लिए हो।
निशाने पर भाजपा की योगी सरकार
यूपी में भाजपा की सरकार है और योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री हैं। यही वजह है कि हाथरस की घटना को लेकर भाजपा विपक्ष के निशाने पर है। हो भी क्यो न, हाथरस की घटना में जहां एक तरफ दलित युवती के साथ दरिंदगी तो दहलाने वाली है ही पुलिस का रवैया कम सवालों में नहीं है। पहले तो पुलिस ने केस दर्ज करने में देरी की। वहीं जब गंभीर रूप से घायल पीड़िता की इलाज के दौरान मौत हो गई तो परिवार को अंतिम संस्कार तक अपनी मर्जी से करने का हक नहीं दिया गया। आधी रात में पुलिस प्रशासन की मौजूदगी में पुलिस ने पीड़िता के शव को जला दिया। इस दौरान बार-बार घर वाले शव को सुबह तक रखने और एक बार घर तक ले जाने की गुहार लगाते रहे।
बात यही तक नहीं रुकी, इसके बाद पुलिस ने पोस्टमार्टम और फॉरेंसिक रिपोर्ट के आधार पर ये दावा कर दिया चूंकि पीड़िता के सैंपल्स में सीमेन (वीर्य) नहीं पाया गया है इसलिए ये रेप नहीं है। इस दौरान पुलिस ने रेप की परिभाषा तक का भी ध्यान नहीं रखा जिसमें कहा गया है कि रेप के लिए सीमेन का मिलन जरूरी नहीं है। साथ ही पीड़िता के मृत्यु पूर्व बयान को भी ध्यान में नहीं रखा गया जिसमें पीड़िता ने बताया था कि उसके साथ गैंगरेप और मारपीट की गई। पुलिस ने पीड़िता के गांव को सील कर दिया है और किसी भी नेता के साथ ही मीडिया के भी गांव में घुसने पर रोक है।
हाथरस मुद्दा नीतीश के लिए बन सकता है मुसीबत
इस बीच दलित युवती की कथित गैंगरेप के बाद मौत को लेकर राजनीतिक पार्टियां सड़क पर हैं। ऐसे में जब बिहार में, जहां पर पीड़िता जिस दलित समुदाय से आती है, उसकी आबादी 17 प्रतिशत है, चुनाव के दौरान ये मुद्दा काफी गरम रहने वाला है। इस दौरान बिहार में भी घटना के विरोध में प्रदर्शन शुरू हो गए हैं। हाथरस की घटना न सिर्फ भाजपा के गुड गवर्नेंस के दावे पर सवाल है बल्कि बिहार में भाजपा के साथ सरकार चला रहे नीतीश कुमार की सुशासन वाली छवि के लिए भी दाग है।
बिहार में लंबे समय तक राज करने वाले राष्ट्रीय जनता दल के प्रमुख लालू प्रसाद यादव भाजपा को सांप्रदायिक छवि की पार्टी कहकर निशाने पर लेते रहे हैं लेकिन अब वह बात पुरानी हो चुकी है। बीजेपी ने इस आरोप की काट ढूढ़ ली है। पार्टी ने इसके जवाब में रक्षात्मक रवैया अपनाने की जगह इसके जवाब में हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण की राजनीति तेज कर दी। भाजपा जब हिंदू वोटर को साथ रही होती है तो दलितों पर उसकी नजर जरूर होती है।
बिहार में एनडीए के खिलाफ ये होगी रणनीति
ऐसे में अगर बिहार में विपक्षी दल बीजेपी वाले एनडीए को हराना चाहते हैं तो उन्हें एनडीए के वोटों का बंटवारा करना होगा। यही वजह है कि आरजेडी, कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियों वाले महागठबंधन के नेता बीजेपी के ऊपर इस चुनाव में भाजपा पर दलित विरोधी, महिला विरोधी और सवर्णों की पार्टी होने का आरोप लगा सकते हैं। खास तौर पर जब हाथरस में दलित युवती के साथ हुई घटना को लेकर पूरे देश में माहौल गरम है, विपक्ष के हाथ बैठे बिठाए ऐसा मुद्दा हाथ लग गया है।
यहां ये बात ध्यान में रखी जानी चाहिए कि पिछली बार नीतीश ने शराबबंदी और लड़कियों को स्कूल भेजने के लिए चलाई गई योजनाओं को लेकर महिलाओं का भारी समर्थन प्राप्त किया था। महिलाओं के समर्थन को भी नीतीश कुमार की जीत की वजह माना गया था। ऐसे में महिला सुरक्षा से जुड़े मुद्दे पर कोई आरोप नीतीश की छवि के भी खिलाफ होगा।
बिहार में दलित वोटर में गोलबंदी नहीं
हालांकि यूपी की तरह बिहार में दलित वोटर में गोलबंदी नहीं है। यहां का दलित वोटर राम विलास पासवान की लोजपा और जीतनराम मांझी की HAM (S) जैसी पार्टियों में बंटा है तो कांग्रेस में अशोक चौधरी और आरजेडी में श्याम रजक जैसे चेहरों के साथ इसे साधने की कोशिश जारी है। लेकिन माना जा रहा है कि विपक्ष भाजपा शासित राज्यों में दलित महिलाओं के साथ अत्याचार का मुद्दा बिहार में जोरशोर से उठा सकता है। चूंकि ये मुद्दा गरम है और दलित समुदाय भी इसे देख रहा है। ऐसे में हो सकता है कि पार्टियां अधिक दलित उम्मीदवारों को टिकट भी दे सकती हैं। यहां ये ध्यान रखने की बात है कि बिहार में पिछली बार 38 अनुसूचित जाति के विधायक चुने गए थे। विधानसभा में इतनी ही सुरक्षित सीट हैं यानि कि सुरक्षित सीट से अलग कोई भी SC विधायक नहीं बना था।
एनडीए में चिराग की नाराजगी है परेशानी
उधर एनडीए में भी दलित वोटर को लेकर पूरा जोर है। बड़े दलित नेता के रूप में पहचान बना चुके राम विलास पासवान की पार्टी लोजपा की कमान इस समय बेटे चिराग संभाल रहे हैं जो कि नीतीश कुमार से नाराज चल रहे हैं। अगर बात नहीं बनती है तो लोजपा 143 सीट पर लड़ सकती है ऐसा संकेत चिराग दे चुके हैं। इसी मुद्दे पर एक अक्टूबर को बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा और अमित शाह के साथ उनकी मुलाकात भी हुई है। फिलहाल आज शनिवार को लोजपा की संसदीय दल की मीटिंग है जिसमें गठबंधन को लेकर फैसला हो सकता है। लोजपा की नाराजगी की एक वजह पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी एनडीए में वापसी भी है। एक गठबंधन में दो दलित नेताओं का होना लोजपा के लिए पचा पाना मुश्किल हो रहा है। साथ ही मांझी नीतीश के कहने पर गठबंधन में शामिल हुए हैं इससे भी लोजपा परेशान है।
दलित मुद्दे पर बिहार में बदलाव आसान नहीं
पड़ोसी राज्य से दलित मुद्दे पर उठे आंदोलन से बिहार में जब राजनीतिक बदलाव की बात कर रहे हैं तो हमें ये समझना होगा कि बिहार का दलित यूपी की तरह राजनीतिक रूप से संगठित नहीं है। साक्षरता, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे जरूरी विषयों में वह सबसे निचले पायदान पर है। उनके लिए मुंह-जबानी सारे काम होते हैं लेकिन धरातल पर कुछ नजर नहीं आता। वैसे तो कहने के लिए बीजेपी और कांग्रेस समते सभी दलों का अपना एक दलित मोर्चा है लेकिन दलितों का इस्तेमाल सिर्फ वोट लेने के लिए ही होता है। वे दलित वोटर तो चाहते हैं लेकिन दलित नेता नहीं चाहते।
हाथरस में जो हुआ वह बहुत ही निंदनीय है। अगर भाजपा की यूपी सरकार इसे अच्छे से संभालती तो ये उसके लिए अच्छा होता लेकिन अब मुद्दा विपक्ष के हाथ में है और देखना है कि बिहार के चुनाव में वह इसे कैसे भुनाता है। साथ ही ये भी देखना दिलचस्प होगा कि नीतीश कुमार इस पर विपक्ष के आरोपों का कैसे जवाब देंगे।
बिहार विधानसभा की चुनावी चौसर में बिखरा विपक्ष, पासे में फंस पाएंगे नीतीश कुमार ?