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गुजरात के चुनावी नतीजे राहुल गांधी को दे रहे ये संदेश

क्या राहुल गांधी की चुनाव में दिलचस्पी ख़त्म हो गई है? दिल्ली और गुजरात में भारी हार के बाद चुनाव में अपनी दिलचस्पी को स्पष्ट करेंगे? क्या है विश्लेषकों की राय.

By BBC News हिन्दी
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राहुल गांधी
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राहुल गांधी

गुजरात विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ते हुए राज्य की कुल 182 सीटों में से 156 सीटों पर जीत हासिल की.

जहाँ एक तरफ़ बीजेपी ने ऐतिहासिक जीत हासिल की वहीं दूसरी तरफ़ प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने अब तक का सबसे ख़राब प्रदर्शन किया.

2017 में कांग्रेस ने 77 सीटें जीती थीं लेकिन 2022 के चुनाव में कांग्रेस महज़ 17 सीटें ही जीत सकी.

हालत यह हो गई है कि नेता प्रतिपक्ष का पद भी कांग्रेस को मिलेगा या नहीं यह अब विधानसभा अध्यक्ष या कहा जाए कि बीजेपी पर निर्भर करेगा क्योंकि नेता प्रतिपक्ष के लिए पार्टी को कम से कम 10 फ़ीसद सीटें जीतनी होती हैं.

कांग्रेस ने हिमाचल प्रदेश में जीत ज़रूर हासिल कर ली है लेकिन उस जीत को ज़्यादा अहमियत नहीं दी जा रही है.

उसका एक कारण तो यह बताया जा रहा है कि यह पिछले कुछ दशकों से राज्य का इतिहास रहा है कि वहाँ हर पाँच साल के बाद सरकार बदलती है.

दूसरी वजह यह है कि ज़्यादातर विश्लेषक इसे कांग्रेस की जीत के बजाए बीजेपी की हार के तौर पर देख रहे हैं.

कांग्रेस ने 68 में से 40 सीटें जीती हैं जबकि बीजेपी 25 सीटें ही जीत सकी है लेकिन दोनों पार्टियों के वोट में केवल एक प्रतिशत का फ़र्क़ है.

इन दो राज्यों के नतीजों से ठीक एक दिन पहले दिल्ली एमसीडी के नतीजे आए थे और यहां भी कांग्रेस का प्रदर्शन निराशाजनक ही रहा.

ऐसे में कुछ लोग यह सवाल उठा रहे हैं कि इन नतीजों ने कांग्रेस के नेता राहुल गांधी के लिए क्या कोई संदेश दिया है.

दिल्ली स्थित थिंक टैंक सेंटर फ़ॉर पॉलिसी रिसर्च के फ़ेलो राहुल वर्मा कहते हैं कि दिल्ली, गुजरात और हिमाचल तीनों जगहों के नतीजों से राहुल गांधी के लिए कुछ ना कुछ संदेश है.

राहुल की रणनीति समझ के बाहर

बीबीसी से बातचीत में राहुल वर्मा कहते हैं, "गुजरात में भले ही कांग्रेस पार्टी पिछले 27 सालों से चुनाव हार रही थी लेकिन उसके पास 35 से 40 फ़ीसद का वोट शेयर रहता था लेकिन इस बार पार्टी ने लगभग वॉकओवर दे दिया और उसके कारण एक नई पार्टी (आम आदमी पार्टी) आ गई जिसने कांग्रेस को सबसे ज़्यादा नुक़सान पहुँचाया."

उनके मुताबिक़ गुजरात में चुनाव कवर करने के लिए गए लगभग हर पत्रकार यही कह रहा था कि कांग्रेस का वर्कर और वोटर नाराज़ है क्योंकि कांग्रेस वहाँ चुनाव लड़ती हुई नज़र ही नहीं आ रही है.

राहुल वर्मा कहते हैं कि गुजरात में कांग्रेस जिस तरह से फिसली है ठीक उसी तरह से पार्टी बिहार और यूपी में फिसली थी और उसकी आज तक वहाँ दोबारा वापसी नहीं हो सकी.

दिल्ली एमसीडी में भी कांग्रेस तीसरे नंबर की पार्टी बन गई और वो भी पहली और दूसरी से उसका फ़ासला बहुत बड़ा है और जो नौ पार्षद कांग्रेस की टिकट पर जीतकर आए हैं वो पार्टी के बजाए निजी छवि के कारण जीते हैं.

राहुल वर्मा के अनुसार हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की जीत है, उसका सेहरा कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व को तो नहीं ही मिलना चाहिए लेकिन पार्टी ऐसा करेगी क्योंकि यही पार्टी का चरित्र है.

वरिष्ठ पत्रकार स्मिता गुप्ता कहती हैं कि लगभग हर चुनाव के बाद एक ही संदेश बार-बार आता है, कांग्रेस पार्टी और ख़ासकर राहुल गांधी के लिए लेकिन दिक़्क़त यह है कि कोई सुनने के लिए तैयार नहीं दिखता.

गुजरात का ज़िक्र करते हुए स्मिता गुप्ता कहती हैं कि 2017 के चुनाव के समय हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवाणी पार्टी के साथ आए और इसका लाभ भी पार्टी को मिला.

लेकिन पार्टी उनमें से दो को बचाकर नहीं रख सकी, जिग्नेश मेवाणी बड़ी मुश्किल से अपनी सीट तो बचाने में सफल हो गए लेकिन पार्टी को उनसे कोई लाभ नहीं हुआ.

विधानसभा चुनाव से पहले हार्दिक पटेल और अल्पेश ठाकोर ने कांग्रेस छोड़कर बीजेपी का दामन थाम लिया था.

राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के बारे में स्मिता गुप्ता कहती हैं कि यह बात समझ में नहीं आ रही है कि आख़िर इस यात्रा में गुजरात को शामिल क्यों नहीं किया गया?

राहुल गांधी केवल एक दिन गुजरात में चुनाव प्रचार के लिए गए थे.

राहुल गांधी
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राहुल गांधी

'चुनाव में दिलचस्पी है या नहीं, स्पष्ट करना होगा'

राहुल गांधी कहते रहे हैं कि उनकी यात्रा का चुनावी राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है.

इस पर स्मिता गुप्ता कहती हैं, "अगर आपको चुनाव नहीं जीतना है, कोशिश भी नहीं करनी है तो फिर आप (कांग्रेस या राहुल गांधी) राजनीतिक दल क्यों चला रहे हैं?"

वो कहती हैं कि चुनाव जीतने के बाद अब बीजेपी चाहे जो कहे लेकिन सच्चाई यह है कि बीजेपी इसलिए जीतती है क्योंकि वहाँ उनका विरोध करने वाला सही अर्थों में कोई विपक्ष है ही नहीं.

कांग्रेस की राजनीति को बहुत नज़दीक से देखने वाले वरिष्ठ पत्रकार रशीद क़िदवाई कहते हैं कि गुजरात में कांग्रेस ने इस चुनाव में अपने स्थानीय नेतृत्व के दम पर खड़े होने की कोशिश की थी. इसीलिए राज्य के नेता ही चुनाव प्रचार का कमान संभाल रहे थे और राष्ट्रीय नेतृत्व ज़्यादा सक्रिय नहीं था.

रशीद क़िदवाई के अनुसार, इसमें परेशानी यह थी कि गुजरात में कांग्रेस के पास इस समय कोई ऐसा नेता नहीं है जिसकी राज्य व्यापी पहचान हो.

राहुल वर्मा की बात को आगे बढ़ाते हुए रशीद क़िदवाई कहते हैं कि कांग्रेस के लिए गुजरात की हार बहुत बुरी ख़बर है क्योंकि जिन राज्यों में भी दो पार्टी सिस्टम था और वहां कोई तीसरी पार्टी आई तो कांग्रेस वहां पिछड़ती चली गई और फिर वापसी नहीं कर सकी.

बिहार, यूपी, ओडिशा, तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र और दिल्ली इसके उदाहरण हैं.

गुजरात में भी इस बार आम आदमी पार्टी ने अच्छा प्रदर्शन किया और पाँच सीटें जीतने के साथ-साथ क़रीब 13 फ़ीसद वोट शेयर भी हासिल किया. कांग्रेस के लिए यह ज़्यादा बड़ी चिंता है.

रशीद क़िदवाई के अनुसार, राहुल गांधी को अपनी स्थिति स्पष्ट करनी होगी कि उन्हें चुनावी राजनीति में कोई दिलचस्पी है या नहीं.

इसका कारण बताते हुए रशीद क़िदवाई कहते हैं कि ना सिर्फ़ एआईसीसी सचिवालय बल्कि कांग्रेस की राज्य ईकाइयों में भी बहुत सारे ऐसे लोग अहम पदों पर बैठे हैं जो 'टीम राहुल' के सदस्य कहे जा सकते हैं.

भारत जोड़ो यात्रा
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भारत जोड़ो यात्रा

भारत जोड़ो यात्रा का क्या है मक़सद?

राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा की भले ही कई राजनीतिक विश्लेषक कड़ी आलोचना कर रहे हैं लेकिन रशीद क़िदवाई इसके राजनीतिक मायने को पूरी तरह ख़ारिज नहीं करते हैं.

उनके अनुसार, राहुल गांधी अगर नागरिक समाज को यह विश्वास दिलाने में कामयाब हो जाते हैं कि संविधान ख़तरे में है, भारतीय समाज का ताना-बाना टूट रहा है या मीडिया को दबाया जा रहा है तो इसका राजनीतिक लाभ तो चुनाव में कांग्रेस पार्टी को ही मिलेगा.

उनके अनुसार, राहुल गांधी इस बात को लेकर आश्वस्त हैं कि फ़िलहाल लोगों की सोच बदलने की ज़रूरत है और इस तरह का संवाद राजनीतिक मंच से संभव नहीं है.

रशीद क़िदवाई के अनुसार, कमोबेश राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ भी इसी तरह ख़ामोशी से समाज के बीच जाकर काम करता है.

राहुल गांधी की मौजूदा यात्रा फ़रवरी में ख़त्म होगी लेकिन रशीद क़िदवई के अनुसार, कुछ दिनों के बाद राहुल गांधी एक और यात्रा पर निकलेंगे और इस बार वो असम से गुजरात जा सकते हैं.

2024 के मार्च-अप्रैल में लोकसभा के चुनाव होंगे लेकिन उससे पहले क़रीब 13 राज्यों में चुनाव होने वाले हैं.

गुजरात के नतीजे पर प्रतिक्रिया देते हुए राहुल गांधी ने ट्वीट किया था, "हम गुजरात के लोगों का जनादेश विनम्रतापूर्वक स्वीकार करते हैं. हम पुनर्गठन कर, कड़ी मेहनत करेंगे और देश के आदर्शों और प्रदेशवासियों के हक़ की लड़ाई जारी रखेंगे."

तो क्या गुजरात और हिमाचल के नतीजों के बाद कांग्रेस और ख़ासकर राहुल गांधी के काम करने के तौर-तरीक़े में किसी तरह का बदलाव देखने को मिल सकता है.

कांग्रेस
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कांग्रेस क्यों है असमंजस में?

लोकसभा की 208 ऐसी सीटें हैं जहाँ बीजेपी और कांग्रेस का सीधा टकराव है और बीजेपी के पास फ़िलहाल इसकी 90 फ़ीसद सीटें हैं.

रशीद क़िदवाई के अनुसार, किसी भी विपक्षी एकजुटता के लिए सबसे पहली शर्त है कि कांग्रेस ख़ुद मज़बूत हो और इन 208 सीटों में बीजेपी के स्ट्राइक रेट को 50 फ़ीसद के आस-पास ले आए.

नीतीश कुमार ने बीजेपी का साथ छोड़ दिया और लालू प्रसाद से हाथ मिला लिया. उसके बाद उन्होंने सार्वजनिक रूप से अपनी राष्ट्रीय महत्वकांक्षा को ज़ाहिर किया और कहा कि वो विपक्ष को एकजुट करने की कोशिश करेंगे.

इसी तरह की कोशिश पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर भी करते हुए नज़र आए हैं.

लेकिन इन सभी नेताओं की एक आम शिकायत रही है कि प्रमुख विपक्षी पार्टी होने के नाते कांग्रेस की यह ज़िम्मेदारी है कि वो विपक्ष को गोलबंद करे लेकिन कांग्रेस आगे आकर ऐसा नहीं कर रही है.

रशीद क़िदवाई कहते हैं कि भारत में गठबंधन की राजनीति का जो इतिहास रहा है उसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि गठबंधन हमेशा उस समय होता है जब उसमें शामिल होने वाली पार्टी ख़ुद मज़बूत स्थिति में होती हैं.

रशीद क़िदवाई कहते हैं, "सारा विपक्ष इस समय बिखरा हुआ है और वो कांग्रेस को शक की नज़र से देखते हैं. कांग्रेस की अपनी राजनीतिक अकड़ अभी भी बरक़रार है जिसके कारण वो विपक्षी पार्टी को कोई जगह देने को तैयार नहीं है."

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राहुल गांधी के लिए दो सबक

स्मिता गुप्ता कहती हैं कि इन नतीजों के दो सबक़ तो कांग्रेस के लिए बिल्कुल साफ़ हैं.

वो कहती हैं, "आप मेहनत भी नहीं करेंगे, कोशिश नहीं करेंगे, नई पीढ़ी को पार्टी में जगह नहीं देंगे. और अगर थोड़ी बहुत मेहनत कर भी रहे हैं तो उसे चुनाव से नहीं जोड़ेंगे तो लोग आपसे बिखर जाएंगे."

स्मिता गुप्ता के अनुसार इन नतीजों ने साफ़ कर दिया है कि अगर बीजेपी और नरेंद्र मोदी को हराना है तो विपक्ष को एक साथ आकर काम करना ही पड़ेगा, इसका कोई विकल्प नहीं है.

स्मिता कहती हैं, "2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के हर उम्मीदवार के ख़िलाफ़ विपक्ष को अपना एक ही उम्मीदवार खड़ा करना चाहिए."

स्मिता गुप्ता के अनुसार कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता भी उनसे अनौपचारिक बातचीत में इस तरह की बात से सहमत नज़र आ रहे हैं.

लेकिन सबसे बड़ी समस्या यह है कि कांग्रेस अभी भी इस बात के लिए तैयार नहीं है कि कोई और नेता विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व करे और राहुल गांधी ख़ुद इसके लिए तैयार नहीं हैं.

स्मिता गुप्ता के अनुसार नीतीश कुमार पुराने समाजवादियों या पूर्व जनता परिवार को एकजुट करने की कोशिश कर रहे हैं.

उनके अनुसार देवेगौड़ा, सपा, आरएलडी, चौटाला और ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक से भी बातचीत हुई है.

स्मिता गुप्ता कहती हैं कि नवीन पटनायक सिर्फ़ इतना चाहते हैं कि ओडिशा उन पर पूरी तरह छोड़ दिया जाए और लालू प्रसाद सिर्फ़ इतना चाहते हैं कि तेजस्वी यादव को बिहार का मुख्यमंत्री बना दिया जाए, ऐसे में नीतीश कुमार इस संभावित गुट के स्वाभाविक नेता हो सकते हैं.

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कांग्रेस में बेचैनी और जोश की कमी

स्मिता गुप्ता के अनुसार, इस समय सारे विपक्ष में एक तरह की बेचैनी और छटपटाहट मौजूद है लेकिन वही बेचैनी और जोश कांग्रेस में क्यों नहीं नज़र आता है?

स्मिता गुप्ता कहती हैं कि इसका जवाब देना बहुत मुश्किल है और राजस्थान इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. कांग्रेस पार्टी अभी तक अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच मतभेद को दूर करने में नाकाम रही है.

स्मिता गुप्ता पूछती हैं कि राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा जिन राज्यों से होकर गुज़री है क्या उनमें पार्टी संगठन में कोई बदलाव दिखा है, क्या वो आने वाले विधानसभा चुनाव या 2024 के आम चुनाव के लिए कमर कसते हुए नज़र आ रहे हैं?

वो कहती हैं कि राहुल गांधी का जो पिछला रिकॉर्ड रहा है उनको देखते हुए उन्हें नहीं लगता कि कांग्रेस या राहुल गांधी गुजरात और हिमाचल के नतीजों से कोई सबक़ लेकर कोई बड़ा बदलाव करेंगे.

राहुल वर्मा के अनुसार कांग्रेस इतनी पुरानी और बड़ी पार्टी है कि इसमें कोई बड़ा बदलाव करना भी आसान नहीं है और इसके लिए राहुल गांधी को अकेले ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है.

वो कहते हैं, "कांग्रेस पिछले आठ सालों से कह रही है कि वो बड़ा बदलाव करेगी. उदयपुर में भी कहा था कि हम बदलाव करेंगे लेकिन बड़े बदलाव का मतलब है कि बहुत लोगों को नाराज़ करना पड़ेगा और उसके लिए कांग्रेस पार्टी या राहुल गांधी तैयार हैं या नहीं मुझे नहीं पता."

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क्या होगी कांग्रेस की रणनीति?

विपक्षी गठबंधन की मुश्किल का ज़िक्र करते हुए राहुल वर्मा कहते हैं कि आम आदमी पार्टी क्यों चाहेगी गठबंधन करना जब वो लगातार बढ़ रही है या फिर कोई भी क्षेत्रीय पार्टी कांग्रेस से क्यों गठबंधन करेगी जब उन्हें पता है कि कांग्रेस को सीट देने से उनका नुक़सान होगा.

तो फिर सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या गुजरात और हिमाचल के नतीजों के बाद 2024 के मद्देनज़र कांग्रेस की रणनीति क्या हो सकती है, इसके जवाब में राहुल वर्मा कहते हैं, "पिछले पाँच सालों में तो ऐसा कभी नहीं लगा कि कांग्रेस पार्टी किसी संरचनात्मक बदलाव के लिए गंभीर है. इतिहास तो इस बात की गवाही नहीं देता है कि भविष्य में भी कोई बदलाव होंगे. पर हो सकता है कि कांग्रेस या राहुल गांधी का मन बदल जाए, लेकिन मुश्किल है."

तो क्या 2024 के चुनाव के बारे में अभी कुछ कहना संभव है, इस पर राहुल वर्मा कहते हैं, "भारत में चुनावों में हमेशा सबके लिए गुंजाइश होती है. बीजेपी अभी काफ़ी आगे है लेकिन कई राज्यों में वो भी कई बार संघर्ष करती है."

राहुल वर्मा के अनुसार अगले 18 महीनों में राजनीति किस करवट लेती है बहुत कुछ इस पर निर्भर करेगा.

वो कहते हैं, "बीजेपी को राष्ट्रीय स्तर पर चुनौती देने के लिए कुछ अलग तरह की राजनीति करने की ज़रूरत है और प्रमुख विपक्षी पार्टी (कांग्रेस) उसके लिए फ़िलहाल तैयार नहीं दिख रही है."

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Gujarat election results a message to Rahul Gandhi
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