क्या कैप्टन अमरिंदर सिंह से पंगा लेकर पंजाब भी हारना चाहती है कांग्रेस ?
नई दिल्ली, 8 जून: अगले साल की शुरुआत में ही पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। उत्तर प्रदेश के अलावा पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा में चुनाव करवाए जाएंगे। इन पांचों राज्यों में अभी सिर्फ पंजाब में ही कांग्रेस की सरकार बची हुई है। गोवा और मणिपुर में क्या हुआ, उसके विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है। इसलिए कांग्रेस के पास उम्मीद की एक ही किरण है और वह है पंजाब और वहां के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह। लेकिन, चुनाव से कुछ महीने पहले पार्टी आलाकमान की ओर से प्रदेश में अपने सबसे चुनाव जिताऊ नेता को सही संदेश नहीं मिल रहा है। लगता है जैसे दिल्ली से उनके मुकाबले राहुल और प्रियंका गांधी के करीबी नवजोत सिंह सिद्धू को बराबरी में उतारने की कवायद शुरू की गई है।
पांच साल में कितनी बदली पंजाब की राजनीति ?
पंजाब में 2022 को लेकर कांग्रेस में मचे अंदरूनी घमासान पर चर्चा से पहले 2017 के बैकग्राउंड में झांक लेते हैं। वह चुनाव कांग्रेस अमरिंदर सिंह की अगुवाई में तब जीती थी, जब नरेंद्र मोदी की सरकार की ओर से पाकिस्तान के खिलाफ पहला सर्जिकल स्ट्राइक हुआ था, शिरोमणि अकाली दल और भाजपा में गठबंधन था और 2014 के लोकसभा चुनाव में मिली चाशनी से आम आदमी पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं का भी जोश पूरे उफान पर था। अगर साढ़े चार साल पहले के मुकाबले कैप्टन को मिल रही इस समय की राजनीतिक चुनौती को देखें तो बीजेपी-अकाली दल अलग हो चुकी हैं। आम आदमी पार्टी घर के अंदर ही कलह का शिकार हो रही है। किसान आंदोलन पर देर से जागने के चलते अकाली दल का बादल परिवार इस मोर्चे की राजनीति में बुरी तरह से पिछड़ता नजर आ रहा है। यानी पंजाब में कैप्टन के सियासी कद के सामने फिलहाल विपक्ष की राजनीति सिसकती हुई नजर आ रही है।
कांग्रेस का हालिया चुनावी ट्रेंड
पिछले कई चुनावों से कांग्रेस की चुनावी राजनीति का ट्रेंड देखें तो विधानसभा चुनावों में पार्टी वहां अच्छा करती है, जहां उसके पास क्षेत्रीय नेतृत्व मजबूत होता है। अशोक गहलोत (राजस्थान) और भूपेश बघेल (छत्तीसगढ़) का उदाहरण सामने है। मध्य प्रदेश में ज्यादा क्षत्रप हो गए तो आपसी लड़ाई में बनी बनाई सरकार भी गिर गई। 2016 से पहले असम में लगातार तीन बार कांग्रेस की सरकार बनी तो उसके पीछे तरुण गोगोई का नेतृत्व था। कहते हैं कि 2011 के असम विधानसभा चुनाव में एक मजाक खूब प्रचलित हुआ था कि गोगोई चाहते हैं कि 'पार्टी हाई कमान चुनाव से दूर ही रहे ताकि कांग्रेस की जीत सुनिश्चत हो जाए।' आज की तारीख में शायद कैप्टन को अपने पूर्व पार्टी नेता तरुण गोगोई की बहुत याद सता रही होगी। निश्चित तौर पर वो चाहते होंगे कि चुनाव से ठीक पहले हाई कमान उन्हें चुनाव की बिसात बिछाने पर फोकस करने के लिए छोड़ दे। लेकिन, शायद दिल्ली में उनकी राजनीतिक मजबूरी समझने वाला कोई नहीं है।
कांग्रेसी पैनल के सामने क्या कहकर गए अमरिंदर ?
पिछली लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की करारी शिकस्त के बाद नवजोत सिंह सिद्धू की जैसे बोलती ही बंद हो गई थी। वो जितने बोलने के लिए चर्चित थे, उतनी ही वो अपनी चुप्पी के लिए मशहूर हो गए। आगे चलकर पार्टी में अंदरूनी खटपट के चलते वे अमरिंदर सरकार से भी अलग हो गए। लेकिन, चुनाव सिर पर आते ही उनका खेमा एकबार फिर सक्रिय हो चुका है। जानकारी के मुताबिक सिद्धू की नजर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी पर टिक गई है। लेकिन, अमरिंदर के लिए उनकी इस मांग के सामने आसानी से हथियार डाल देना आसान नहीं है। क्योंकि, दोनों ही जाट सिख हैं। बहरहाल जो भी हो पिछले हफ्ते उन्हें अपने काम करने के तरीके पर सफाई देने के लिए दिल्ली तलब कर लिया गया। माना जा रहा है कि इस दौरान अमरिंदर ने पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी की ओर से तय किए गए तीन सदस्यीय पैनल से साफ कह दिया कि चुनाव से पहले प्रदेश में पार्टी की कमान जाट सिख को नहीं दी जानी चाहिए, क्योंकि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर भी जाट सिख ही बैठा हुआ है और इससे पार्टी के लिए अच्छा संदेश नहीं जाएगा।
क्या अमरिंदर का हुआ अपमान ?
अमरिंदर विरोधी खेमे की शिकायतों पर उनका जवाब सुनने के लिए जो पैनल बनाया गया, उसमें मल्लिकार्जुन खड़गे (कर्नाटक), हरीश रावत (उत्तराखंड) और जेपी अग्रवाल (दिल्ली) शामिल हैं। इन तीनों में कोई भी नेता अमरिंदर की राजनीतिक शख्सियत के सामने फिलहाल कुछ भी नहीं है। जानकारी ये भी है कि तीनों वरिष्ठ नेताओं के सामने अमरिंदर की पेशी से पहले उन तीनों की ही वीडियो-कांफ्रेंसिंग के जरिए प्रियंका गांधी और राहुल गांधी के सामने पेशी हो चुकी थी। इसके कई अर्थ निकलते हैं। मसलन, जब पैनल में शामिल नेता वर्चुअल माध्यम से गांधी परिवार से निर्देश ले सकते थे तो फिर अमरिंदर को कोरोना के दौरान पंजाब से दिल्ली बुलाने की क्या आवश्यकता पड़ गई? क्या उनके जैसे कद के नेता का यह एक तरह का अपमान नहीं है? क्योंकि, कैप्टन पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के ही मित्र रहे हैं। सवाल उठता है कि क्या सिद्धू के सिर पर इस समय 'भाई-बहन' का आशीर्वाद इस कदर हावी है कि अमरिंदर को इस तरह से दिल्ली आकर अपनी सफाई देनी पड़ गई ?
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क्या पंजाब भी हारना चाहती है कांग्रेस ?
पश्चिम बंगाल में भाजपा को जो झटका लगा है, उसके बाद उसका मुख्य फोकस यूपी-उत्तराखंड समेत बाकी चारों राज्यों पर ही रहने वाला है। सोनिया बीमार ही रहती हैं। प्रियंका गांधी के राजनीतिक कद का अंदाजा यूपी के उपचुनावों में लग चुका है। सबसे ताजा उदाहरण केरल विधानसभा चुनावों का है, जहां लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को मिली अप्रत्याशित कामयाबी के बावजूद 40 साल का इतिहास पलट गया है। राहुल गांधी वायनाड से सांसद तो बन गए, लेकिन वहां हर पांच साल में सत्ता बदलने का पैटर्न उनके कदम पड़ते ही बदल गया है। यानी कांग्रेस को पंजाब जीतना है तो उसके लिए कैप्टन जरूरी है। पड़ोसी राज्य हरियाणा में 2019 के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने अपने सबसे बड़े नेता भूपिंदर सिंह हुड्डा को नजरअंदाज किया तो सत्ता में वापस लैटने का उसका सपना चकनाचूर हो गया। ऐसे में अगर कांग्रेस पंजाब में अपने सबसे लोकप्रिय नेता को ही चुनाव से पहले हतोत्साहित करने की कोशिश करेगी तो उसके लिए सत्ता की लड़ाई जीतना आसान नहीं होगा।