विवेचना: जब बीच में रुकवाना पड़ा महात्मा गांधी का भाषण
भारत के वे नेता जिन्होंने अपने भाषणों से बांध दिया समां.
जब स्वामी विवेकानंद 1893 में शिकागो में होने वाली धर्म संसद में भाग लेने भारत से निकले तो इस युवा सन्यासी के बारे में भारत से बाहर कोई नहीं जानता था.
कहा जाता है कि जैसे ही विवेकानंद ने धर्म संसद में बोलना शुरू किया, 'ब्रदर्स एंड सिस्टर्स ऑफ़ अमेरिका...', वहाँ मौजूद सभी लोग खड़े हो गए और उनके सम्मान में पूरे 2 मिनट तक तालियाँ बजती रहीं.
विवेकानंद ने इस अवसर को याद करते हुए लिखा, 'वहाँ बोलने वाले सभी लोग काफ़ी तैयारी करके लिखित भाषण ले कर आए थे. मैंने अपनी ज़िंदगी में कभी भी इतने लोगों के सामने भाषण नहीं दिया था. मेरे पास लिखित में कुछ भी नहीं था. मैंने मां सरस्वती का नाम लिया और मंच पर चढ़ गया.'
बाद में जवाहरलाल नेहरू ने 'डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया' में लिखा, 'विवेकानंद ने दुखी और हतोत्साहित हिंदुओं के दिमाग़ के लिए एक 'टॉनिक' का काम किया और उन्हें विश्वास दिलाया कि उनके भूत की जड़ें मज़बूत हैं जिन पर वो गर्व कर सकते हैं.' आख़िर एक प्रभावशाली भाषण की पहचान या परिभाषा क्या हो सकती है?
भारतीयों द्वारा दिए गए चर्चित भाषणों पर 'द पैंग्विन बुक ऑफ़ इंडियन स्पीचेज़' लिखने वाले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर राकेश बाताबयाल बताते हैं, ''सबसे अच्छे भाषण वही माने जाते हैं जो लोगों को बांधे रखे, साथ ही लोगों को कुछ ऐसा दे कि वो कम से कम अगले आधे घंटे सिर्फ़ उसी के बारे में सोचे. लोगों को बांधने के लिए एक अच्छी वाकशैली के साथ-साथ बेहतरीन शब्दों का इस्तेमाल करना आना भी ज़रूरी है.''
जब महात्मा गांधी को बीच भाषण में रोका गया
महात्मा गांधी ने जो भाषण फ़रवरी 1916 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह पर दिया था, उसने भी बहुत से भारतवासियों का ध्यान खींचा था.
गाँधी तब तक भारतीय राजनीति में रच बस नहीं पाए थे और वैसे भी वो कभी भी बहुत अच्छे वक्ता नहीं रहे. लेकिन उस मंच पर मौजूद लोगों को गाँधी की स्पष्टवादिता नागवार गुज़री और मंच के सभापति ने उन्हें अपना भाषण रोक देने के लिए कहा.
गांधी की जीवनी लिखने वाले प्रमोद कपूर बताते हैं, 'गांधी को जब बोलने का मौका दिया गया तो उन्होंने सबसे पहले काशी विश्वनाथ मंदिर के चारों तरफ़ फैली गंदगी का ज़िक्र किया.
दूसरा, उन्होंने कहा कि सामने जो महाराजा बैठे हैं वो हीरे जवाहरात से लदे हुए हैं. एक ग़रीब देश में उनका इस तरह अपने धन का दिखावा करना शोभा नहीं देता.
उन्होंने तत्कालीन वायसराय लॉर्ड हारडिंज के बारे में कहा कि उनको इतनी ज़बरदस्त सुरक्षा दी गई है कि उनके चारों तरफ़ एक दीवार सी बना दी गई है. अगर उनको भारत के लोगों से इतना डर है, तो उन्हें यहाँ आना ही नहीं चाहिए था.
जब गांधी इसी तरह 15-20 मिनट तक बोलते रहे तो एनी बेसेंट अपनी जगह से उठ कर बोलीं, 'स्टॉप मिस्टर गाँधी... स्टॉप नाऊ.' सबने देखा कि आगे बैठे सभी महाराजा धीरे धीरे उठ कर जाने लगे. मदनमोहन मालवीय उनके पीछे ये कहते हुए दौड़े, 'महाराज वापस आइए. गांधी को चुप करा दिया गया है,' लेकिन तब तक सभा भंग हो चुकी थी.'
'तुम मुझे खून दो'
4 जुलाई, 1944 को जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने पूरे देश से आह्वाहन किया था, 'तुम मुझे ख़ून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा,' तो पूरा भारत जैसे जागृत हो गया था.
राकेश बाताबयाल बताते हैं, ''नेहरू एक स्तर पर 'इंटेलेक्चुअल' हो जाते हैं, लेकिन सुभाष से भारत का जनमानस अपने को जुड़ा हुआ पाता है. नेहरू के पास जाने के लिए हम एक बार सोचते हैं, लेकिन सुभाष के साथ ऐसा नहीं है.
गांधी से विरोध होने के बावजूद जब वो सिंगापुर से अपना पहला भाषण देते हैं तो वो गांधी को 'राष्ट्रपिता' कह कर संबोधित करते हैं और उनसे आशीर्वाद देने के लिए कहते हैं.
सुभाष की आवाज़ सुनने के लिए पूरा भारत रेडियो के सामने बैठा करता था. वो बंगाली थे. हिंदी उतनी अच्छी जानते नहीं थे. लेकिन फिर भी उन्होंने अपनी हिंदी में हिंदुस्तानी पुट लाने की कोशिश की. यही वजह है गैर हिंदी भाषी होते हुए भी लोग उनसे अपने आप को जोड़ कर देखते थे.'
नेहरू का 'ट्रिस्ट विद डेस्टिनी'
14 अगस्त, 1947 की आधी रात भारत की आज़ादी पर जवाहरलाल नेहरू के दिए भाषण को कौन भूल सकता है ? नेहरू के सचिव रहे एम ओ मथाई अपनी किताब 'रेमिनिसेंसेज़ ऑफ़ नेहरू एज' में लिखते हैं, 'नेहरू कई दिनों से अपने भाषण की तैयारी कर रहे थे. जब उनके पीए ने वो भाषण टाइप कर मुझे दिया तो मैंने देखा कि एक जगह नेहरू ने 'डेट विद डेस्टिनी' मुहावरे का इस्तेमाल किया था.'
'मैंने 'रॉजेट' का शब्दकोष देखने के बाद नेहरू से कहा कि 'डेट' शब्द इस मौके के लिए उचित शब्द नहीं है, क्योंकि अमरीका में इसका आशय महिलाओं या लड़कियों को घुमाने ले जाने के लिए किया जाता है.'
'मैंने उन्हें सुझाव दिया कि वो 'डेट' की जगह 'रान्डेवू' या 'ट्रिस्ट' शब्द का इस्तेमाल करें. मैंने उन्हें ये भी बताया कि रूज़वेल्ट ने युद्ध के दौरान दिए गए भाषण में 'रान्डेवू' शब्द का प्रयोग किया है. नेहरू ने एक क्षण के लिए सोचा और फिर अपने हाथ से 'डेट' शब्द काट कर 'ट्रिस्ट' लिखा. नेहरू के भाषण का वो आलेख आज भी नेहरू म्यूज़ियम लाइब्रेरी में सुरक्षित है.'
राकेश बाताबयाल का मानना है कि इस भाषण की ख़ास बात इसमें किसी तरह के मालिन्य का न होना है. वो बताते हैं, ''उसी समय आज़ादी मिली है. देश का विभाजन हुआ है. उन्हें पता है कि उत्तर प्रांत सीमांत में उन पर पत्थर भी बरसाए गए हैं. लेकिन उनके भाषण में एक 'विजन' या दृष्टि है. एक सपना है.''
''उसमें किसी के ख़िलाफ़ कुछ भी नहीं है. इसको शायद दुनिया के इतिहास का सबसे अच्छा भाषण कहा जाएगा जिसमें सभ्यता अपने सबसे बड़े आकार में सामने आ रही है. उनके सपने में हर शख़्स शामिल है. उनके विरोधी भी.''
''उसमें किसी को जाति, धर्म या समुदाय के आधार पर बाहर नहीं रखा गया है. एक ग़रीब, कुचले और अशिक्षित देश का नेता जब ये बोल रहा है कि हमारा सपना एक मानवता का सपना है, वो इस भाषण के दर्जे को बहुत ऊपर ले जाता है. वो जब 'ट्रिस्ट विद डेस्टिनी' कहते है तो उनका आशय किसी धर्म या भाग्य से नहीं है. उसका मतलब कुछ और ही है.''
गांधी की हत्या पर नेहरू का एक्सटेंपोर भाषण
इसके साढ़े पांच महीने बाद नेहरू को बहुत अप्रिय परिस्थितियों में देश को संबोधित करना पड़ा था जब नाथू राम गोडसे ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की गोली मार कर हत्या कर दी थी.
नेहरू ने ये भाषण बिना किसी तैयारी के 'एक्सटेंपोर' दिया था. उनके सचिव एम ओ मथाई ने लिखा था, 'गांधी के पार्थिव शरीर को देख कर नेहरू कांपने लगे. उन्होंने मुझसे कहा कि मैं उनके साथ ही रहूँ. जब वो कार में बैठे तो मैंने उनसे कुछ कहने की कोशिश की.'
'उन्होंने अपना हाथ मेरे हाथ पर रख कर तुरंत मुझे रोक दिया. वो गहन चिंतन में थे. मैं उनके साथ 'ऑल इंडिया रेडियो' के स्टूडियो में अंदर तक गया. जैसे ही माइक के ऊपर हरी बत्ती जली, नेहरू के मुंह से शब्द निकले, 'द लाइट हैज़ गॉन आउट ऑफ़ अवर लाइव्स.'
राकेश बाताबयाल इस भाषण का विश्लेषण करते हुए कहते हैं, ''नेहरू के लिए गांधी एक शख़्स नहीं बल्कि एक 'रोशनी' थे. नेहरू जब ये कहते हैं तो इसका मतलब ये नहीं कि उनका नेता चला गया है या कांग्रेस का नेता चला गया है. उनके लिए ये पूरी सभ्यता का नुकसान है.''
''उनका दुख इस बात का नहीं है कि गाँधी चले गए, बल्कि जिस ढ़ंग से उन्हें मारा गया. नेहरू का क्षोभ इस बात का है कि हम में से एक ने उन्हें मारा है, हम दुनिया को क्या मुंह दिखाएंगे. इस शर्म का एहसास उन्हें है और वो इसे अपने ऊपर ले रहे हैं.''
अंग्रेज़ी में हीरेन मुखर्जी सर्वश्रेष्ठ
वैसे तो भारतीय संसद में नाथ पाई, फ़िरोज़ गांधी, पीलू मोदी और इंद्रजीत गुप्ता जैसे कई वक्ता हुए लेकिन कहा जाता है कि अंग्रेज़ी में हीरेन मुखर्जी से अच्छे भाषण किसी ने नहीं दिए.
राकेश बाताबयाल कहते हैं, ''हीरेन मुखर्जी की अंग्रेज़ी भाषा पर पकड़ ज़बरदस्त है. कुछ मामलों में भारत में जो राजनीतिक भाषण देने की जो परंपरा बनी है, उससे वो थोड़ा सा अलग हैं. वो केशवचंद्र सेन और सुरेंद्रनाथ बैनर्जी स्कूल के वक्ता हैं.''
''वो बहुत बड़ी बड़ी बातें करते थे पूरी दुनिया के संदर्भ में उतना ही उम्दा शब्दों के साथ. लेकिन जनता के बीच वो इतनी सुंदरता से अपनी बात नहीं रख पाते थे, इसलिए हमेशा वो एक उम्दा सांसद ही रहे. जनता से उनका तारतम्य उतना नहीं बन पाया.''
अटलबिहारी वाजपेई की वाकपटुता
लेकिन जहाँ तक हिंदी में भाषणों की बात है, अटलबिहारी वाजपेई को कोई सानी नहीं.. वाकपटुता, शब्दों का चुनाव, सबसे बढ़ कर उनकी डेलिवरी, लंबे लंबे पॉजेज़ और आँख मूंद कर उंगलियों को घुमाने की उनकी अदा, मानों वो गेंद को स्पिन कर रहे हो, लोगों को मंत्रमुग्ध करने के लिए काफ़ी थी.
लेकिन वाजपेई का सर्वश्रेष्ठ भाषण था, जो उन्होंने जवाहरलाल नेहरू के निधन पर दिया था. उसकी रिकार्डिंग उपलब्ध नहीं है, क्योंकि उस ज़माने में संसद की कार्रवाई की रिकार्डिंग नहीं होती थी. लेकिन अपने राजनीतिक विरोधी के सम्मान में दिया गया वो मार्मिक भाषण अपनेआप में एक अनूठा भाषण था.
वाजपेई ने कहा था, ''एक सपना अधूरा रह गया. एक गीत मौन हो गया और एक लौ बुझ गई. यह एक परिवार, पार्टी और समाज का नुकसान भर नहीं है. भारत माता शोक में है.. क्योंकि उसका सबसे प्रिय राजकुमार सो गया.... मानवता शोक में है, क्योंकि उसे पूजने वाला चला गया.''
''दुनिया के मंच का मुख्य कलाकार अपना आख़िरी एक्ट पूरा करके चला गया. उसकी जगह कोई नहीं ले सकता. सूर्यास्त हो गया है, लेकिन तारों की छाया में हम रास्ता ढ़ूढ़ लेंगे. ये हमारे इम्तिहान की घड़ी है, लेकिन उनको असली श्रद्धांजलि भारत को मज़बूत बना कर ही दी जा सकती है.'
आडवाणी को वाजपेई 'कॉम्प्लेक्स'
वाजपेई की भाषण देने की कला न सिर्फ़ दूसरी पार्टी के सदस्यों, बल्कि उनकी अपनी पार्टी के लोगों में भी हीन भावना भर देती थी. लाल कृष्ण आडवाणी स्वीकार करते हैं, ''1952-53 में जब वो पार्टी के एक नेता के तौर पर राजस्थान आते थे और जिस तरह से उनके भाषणों को सुन कर हज़ारों लाखों लोग मंत्रमुग्ध हो जाते थे, उससे मेरे मन में एक 'कॉम्पलेक्स' पैदा हो गया.''
''काम्पलेक्स' ये है कि राजनीति में तुम भी हो और राजनीति में व्याख्यान देना महत्वपूर्ण गुण या पहलू है, लेकिन तुम उसके लायक नहीं हो. इसलिए मुझे याद है जब 1973 में उन्होंने मुझसे कहा कि मैं चार साल तक पार्टी का अध्यक्ष रहा हूँ. अब आप बनो, तो मैंने कहा कि मैं नहीं बन सकता, क्योंकि मुझे बोलना नहीं आता.''
''उन्होंने कहा आप संसद में तो बोलते हो. मैंने कहा संसद में बोलना एक चीज़ है लेकिन 'पब्लिक मीटिंग' में हज़ारों लोगों के सामने बोलना मेरे बस की बात नहीं. एक एक कर कई लोगों ने ये पद लेने से इंकार कर दिया तो बाद में मुझे अध्यक्ष बनना पड़ा, लेकिन मैं ताउम्र हीन भावना से ग्रस्त रहा.''
लालू का मसखरापन
लालू प्रसाद यादव के दिन आजकल भले ही अच्छे न चल रहे हों, लेकिन उनके धुर विरोधी भी उनका भाषण सनने का लोभ संवरण नहीं कर सकते.
'टाइम्स ऑफ़ इंडिया' के पूर्व संपादक अंबिकानंद सहाय कहते हैं, ''लालू यादव लाजवाब हैं. जिस तरह वो अपने 'टारगेट ऑडिएंस' के 'रॉ नर्व्स' को देहाती अंदाज़ में टच करते है, वो बेजोड़ है. दूसरा कोई लालू यादव हो नहीं सकता है. ये उनकी ख़ासियत है कि उन्होंने बड़ी ख़ूबसूरती से अपने आप को बिहार का पर्यायवाची बना लिया.''
''आप किसी भी भारतीय से पूछ लें कि जब बिहार का नाम आता है, तो किसकी छवि सबसे पहले सामने आती है, हर आदमी कहेगा लालू यादव ! वो जेल जाएं, उन्हें सज़ा हो या न हो, उन्हें 'बेल' मिले या न मिले, लेकिन जब लालू यादव मंच पर खड़े हो कर अपने लोगों से बात करते हैं, वो देखने लायक होता है. ये उनके भाषणों का ही कमाल है कि लोग उन्हें सुनने का कोई मौका नहीं चूकते. ये ग़ज़ब बात है,''
शशि थरूर का ऑक्सफ़र्ड यूनियन में दिया गया भाषण
हाल के दिनों में जिस भाषण की सबसे ज़्यादा चर्चा हुई है, वो है शशि थारूर का 'ऑक्सफ़र्ड यूनियन' में दिया गया भाषण जिसमें उन्होंने प्रजातंत्र का जन्मस्थान समझे जाने वाले ब्रिटेन की उसी की ज़मीन पर, जनतंत्र के प्रति उनकी प्रतिबद्धता की धज्जियाँ उड़ा दी थीं.
थरूर बोले थे, ''मैं पूरे सम्मान के साथ कहना चाहता हूँ कि आप 200 सालों तक लोगों को कुचल कर, गुलाम बना कर और तकलीफ़ दे कर अमीर नहीं बन सकते और फिर उस पर तुर्रा ये कि आपका ये भी दावा है कि आपसे बड़ा प्रजातांत्रिक देश इस दुनिया में कोई नहीं है!''
''आपने हमें जनतांत्रिक अधिकारों से वंचित रखा और हमें उन्हें आपसे छीनना पड़ा. 150 सालों तक राज करने के बाद आपने बहुत झिझकते हुए उन्हें हमें दिया.''
मोदी का लोगों से 'कनेक्ट'
वर्तमान राजनीति में नरेंद्र मोदी से ज़्यादा प्रभावशाली भाषण देने वाले लोग कम हैं. उनके भाषणों में बौद्धिकता का पुट भले ही न हो, लोकिन आम लोगों से उनका 'कनेक्ट' ज़बरदस्त है.
अंबिकानंद सहाय कहते हैं, 'देश के बुद्धिजीवी लाख कहते रहें कि वो सपने बेचते हैं. लेकिन उनका संवाद स्थापित करने का गुण इतना ज़बरदस्त है कि बावजूद इसके कि वो सपने बेच रहे हैं, जनता उन पर यकीन करती है. मैं जान रहा हूँ कि ये उनका चुनावी भाषण है, वो बहुत से वादे कर रहे हैं.
''ख़ुदा जाने वो उसे पूरा करें या न करे, लेकिन उनका कहने का अंदाज़ ऐसा है कि लोग उसके कायल हो जाते हैं. इसलिए आज भी उनकी निजी विश्वसनीयता बहुत ऊपर है.''
''अगर आप नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी की विश्वसनीयता को देखेंगे, तो आपको ये दोनों अलग-अलग चीज़ें नज़र आएंगी. शायद भारतीय जनता पार्टी अपने दम पर लड़े तो कई जगह हार भी जाए.''
''मोदी का ज़बरदस्त 'कम्यूनिकेशन स्किल' है, चाहे वो 'मेडिसन स्कवायर' में दिया गया हुआ उनका भाषण हो, या ब्रिटिश संसद में उनका संबोधन हो, लोग उनकी कही बातों पर यक़ीन करते हैं.''