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छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव: कभी था कांग्रेसी गढ़, अलग राज्य बनते ही हुआ छत्तीस का आंकड़ा

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नई दिल्ली। छत्तीसगढ़ में चुनावी बिगुल बज चुका है। यहां दो चरणों में 12 और 20 नवंबर को मतदान होना है। मुख्य मुकाबला इस बार भी बीजेपी और कांग्रेस के बीच ही है लेकिन बीएसपी और अजीत जोगी की छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस का गठजोड़ कुछ समीकरण बिगाड़ सकता है। पिछले 15 साल से छत्तीसगढ़ में बीजेपी की सरकार है और कांग्रेस इस बार वापसी की उम्मीद लगाए बैठी है। लेकिन कांग्रेस के लिए यहां हमेशा ऐसे हालात नहीं थे। सन 2000 से पहले जब छत्तीसगढ़ अविभाजित मध्यप्रदेश का हिस्सा था तो ये कांग्रेस का गढ़ था और मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनाने में छत्तीसगढ़ अहम भूमिका निभाता था। जैसे ही मध्यप्रदेश से छत्तीसगढ़ अलग हुआ, कांग्रेस पार्टी ऐसे कमजोर पड़ी की वो राज्य में 15 साल बाद भी सत्ता के लिए संघर्षरत ही दिखाई दे रही है। लगातार तीन चुनावों में कांग्रेस की हार हुई, अंतर ज्यादा नहीं रहा लेकिन पार्टी सत्ता में वापसी नहीं कर पाई।

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छत्तीसगढ़ था कांग्रेस के साथ
अविभाजित मध्यप्रदेश में आपातकाल के बाद हुए चुनावों में कांग्रेस को छह में से चार बार जीत मिली। इन चारों चुनाव में छत्तीसगढ़ की जनता ने कांग्रेस को मध्यप्रदेश में बढ़त दिलाने में मदद की थी। 1980 से ही छत्तीसगढ़ में 90 सीटों पर चुनाव होने लगा था। 1980 में 77, 1985 में 74, 1993 में 54 और 1998 के चुनाव में यहां से कांग्रेस को 48 सीटें मिली थीं जिन्होंने मध्यप्रदेश में सरकार बनान में कांग्रेस की मदद की। लेकिन 2003 के बाद से स्थिति पलट गई और छत्तीसगढ़ में भगवा लहराने लगा।
विरासत में मिली सत्ता

विरासत में मिली सत्ता

एक नवंबर 2000 को मध्यप्रदेश से अलग होकर छत्तीसगढ़ नए राज्य के तौर पर अस्तित्व में आया। क्योंकि 1998 के चुनाव में छत्तीसगढ़ के इलाके में कांग्रेस को 48 सीटें मिली हुईं थी इसलिए अलग राज्य बनने पर उसे 2000 में यहां की सत्ता विरासत में मिली और अजीत जोगी प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री बने। इसके बाद 2003 में राज्य का पहला विधानसभा चुनाव हुआ और बीजेपी ने कांग्रेस को पटखनी दे डाली। इसके बाद अब तक कांग्रेस वापसी नहीं कर पाई। हार का अंतर एक से 0.75 फीसद ही रहा है लेकिन कांग्रेस कभी इस दूरी को पाट नहीं पाई।
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अपनो ने डुबोई कांग्रेस की नैया

अपनो ने डुबोई कांग्रेस की नैया

कांग्रेस नेताओं की गुटबाजी चुनाव में पार्टी की लुटिया डुबोने का काम करती रही। एक वक्त में कांग्रेस के पास छत्तीसगढ़ में बड़े नाम थे लेकिन वो हमेशा हाशिए पर रहे। छत्तीसगढ़ की राजनीति को समझने वाले विश्लेषकों की मानें तो अजीत जोगी ने छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की पहली पंक्ति के नेताओं को कभी उभरने नहीं दिया। पं. श्यामाचरण शुक्ल, पं. विद्याचरण शुक्ल, आदिवासी नेता अरविंद नेताम और महेंद्र कर्मा जैसे स्थानीय क्षत्रप साइडलाइन कर दिए गए। यही कांग्रेस के छत्तीसगढ़ में कमजोर होने का सबसे बड़ा कारण बना। नाराज होकर विद्याचरण शुक्ल ने कांग्रेस छोड़ दी हालांकि बाद में उन्होंने वापसी की लेकिन तब तक कांग्रेस के लिए काफी देर हो चुकी थी। भाजपा और संघ ने प्रदेश में अपनी जमीन मजबूत कर ली थी।

वोट बैंक में लगी सेंध

वोट बैंक में लगी सेंध

छत्तीसगढ़ में आदिवासियों और दलितों के बीच कांग्रेस की पकड़ हुआ करती थी लेकिन उसकी पकड़ कमजोर होती गई और संघ ने आदिवासी इलाकों को फोकस किया। वनवासी आश्रम चलाकर आदिवासी वोटों को साधने का काम किया। दूसरी ओर 2003 में सत्ता में आने के बाद भाजपा सरकार ने गरीबों के लिए चावल और स्मार्ट कार्ड योजना जैसी कई योजनाएं शुरु की। इससे कांग्रेस के इस परंपरागत वोट बैंक में भाजपा ने सेंध लगा दी। इसी तरह अनुसूचित जाति वर्ग में बीएसपी ने अपने पैर पसारे और कांग्रेस के वोट काटे। 2013 के विधानसभा चुनाव में बीएसपी को सीट सिर्फ एक मिली लेकिन उसका वोट प्रतिशत 4.4 फीसदी रहा। इसी तरह 2008 में बीएसपी ने दो सीटें जीती लेकिन उस मत 6.1 फीसदी मिले और 2003 में भी 2 सीटें थी और मत प्रतिशत 4.4 था।


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English summary
Chhattisgarh used to be the strong hold of Congress, but due to infighting party failed to hold it together
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