ब्लॉग: 'राहुल गांधी आउट तो नहीं होंगे, पर रन बनाएंगे'
कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी आख़िर कब पार्टी अध्यक्ष और प्रधानमंत्री पद के दावेदार बनेंगे.
दो साल पहले निजी बातचीत में एक कांग्रेसी नेता ने राहुल गांधी के बारे में कहा था, "वे ऐसे बल्लेबाज़ हैं जो न तो आउट हो रहे हैं, न ही रन बना रहे हैं, ओवर निकले जा रहे हैं."
47 साल के राहुल 2004 में सांसद बने थे. वह करीब डेढ़ दशक से राजनीति में हैं लेकिन उन्हें ख़ानदानी विरासत संभालने के लिए तैयार नहीं माना गया या वह ख़ुद ही जोखिम उठाने से हिचकते रहे.
13 वर्षों की अप्रेंटिसशिप के बाद, अब चर्चा चल पड़ी है कि राहुल आख़िरकार पार्टी अध्यक्ष बना दिए जाएंगे. अभी पक्का नहीं है कि ऐसा गुजरात चुनाव के नतीजे आने के बाद होगा या पहले.
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बोहनी नाकामी के साथ तो नहीं होगी
बताया जा रहा है कि कांग्रेस में इस पर दो तरह की राय है--एक तबक़ा चाहता है कि गुजरात के नतीजों के आने से पहले उन्हें अध्यक्ष घोषित करने से कार्यकर्ताओं में उत्साह बढ़ेगा, ऐसी सुगबुहाट है कि शायद इंदिरा जयंती के मौक़े पर 19 नवंबर को उन्हें पार्टी का शीर्ष नेता बनाने का ऐलान हो.
जबकि दूसरा ख़ेमा सोचता है कि अगर गुजरात में जीत होती है तो वह अलग तरह के उत्साह के माहौल में अध्यक्ष बनेंगे, और अगर कामयाबी नहीं मिली तो कम-से-कम अध्यक्ष के तौर पर उनकी बोहनी नाकामी के साथ तो नहीं होगी.
राहुल गांधी पहले भी कई बार उम्मीदें जगाकर पार्टी के समर्थकों को निराश कर चुके हैं. वह कभी अज्ञातवास पर गए, लौटकर आए तो लोगों ने कहा 'छा गए', फिर न जाने कितनी छुट्टियां ले लीं, नानी के घर चले गए, लौटकर आए तो जवाबों का सवाल मांगने लगे.
लेकिन अब एक बार फिर उम्मीदें जगनी शुरू हुई हैं. मगर कांग्रेसी दूध के जले हैं, पंजा छाप अभी 'कीपिंग फिंगर्स क्रॉस्ड' वाली मुद्रा में है, ये आशंका ख़त्म नहीं हुई है कि राहुल का फॉर्म कहीं फिर गड़बड़ा न जाए, फॉर्म ख़राब होने पर भी वे आउट तो नहीं होंगे लेकिन उम्मीदें मुरझा जाएंगी.
कांग्रेस पर नज़र रखने वाली वरिष्ठ पत्रकार अपर्णा द्विवेदी कहती हैं, "राहुल जानते हैं कि अभी नहीं, तो कभी नहीं, अब उनके पास बहुत समय नहीं है, उन्हें जल्दी ही अध्यक्ष पद की ज़िम्मेदारी संभालनी होगी."
राहुल की पीआर मशीनरी चुस्त
राहुल की चमक का घटना-बढ़ना कई बार मोदी के प्रभामंडल से सीधे जु़ड़ा लगता है. राहुल उसी वक़्त चमकना शुरू हुए हैं जब नोटबंदी, बेरोज़गारी और आर्थिक विकास में गिरावट को लेकर मोदी की आभा धूमिल हुई है.
दो महीने पहले अमरीका से लौटकर आने के बाद से राहुल बेहतर फॉर्म में हैं. वह बेहतर भाषण दे रहे हैं, सवालों का जवाब अधिक सधे हुए ढंग से दे रहे हैं, उनकी पीआर और सोशल मीडिया टीम पूरे ज़ोर-शोर से जुटी है. निर्भया की माँ का मीडिया को ये बताना कि राहुल की ही मदद से उनका बेटा पायलट बन सका, पॉज़िटिव पीआर की एक कामयाब कहानी है.
राहुल अब शायद समझने लगे हैं कि इवेंट मैनेजमेंट, नाटकीय भाषण, प्रचार तंत्र और बीजेपी-आरएसएस संगठन के मुक़ाबले मोदी के सामने उनका टिकना कठिन है, वह यह भी जानते हैं कि मोदी मौजूदा चुनौतियों से उबरने में सक्षम हैं. मोदी के 'बाउंस बैक' करने की हालत में वह अपनी जगह बचाए रख पाएं, ये उनकी बड़ी चिंता होगी.
यही वजह है कि धीरे-धीरे मोदी से अलग अपनी एक कहानी गढ़ने में लगे हैं. वह मान चुके दिखते हैं कि मोदी को मोदी के तरीक़े से हराना मुश्किल है. वह मोदी और अमित शाह के आक्रमणों का जवाब संयत ढंग से दे रहे हैं. हाल ही में गुजरात में उन्होंने कहा, "भाजपा भी भारत की जनता का प्रतिनिधित्व करती है, मैं यह नहीं कहूंगा कि उसे ख़त्म हो जाना चाहिए, वह हमारे बारे में ऐसा कहते हैं तो ये उनकी सोच है."
राजकुमार की छवि को धो-पोंछकर मिटाने के लिए राहुल गांधी ने वाक़ई बहुत मेहनत की है. वह आम आदमी दिखने की कोशिश में जुटे रहते हैं, वह जितना संघर्ष करते दिखते हैं युवराज कहकर उन्हें ख़ारिज करना कठिन होता जाता है. यही वजह है कि उन्होंने अपने पिता और दादी का ज़िक्र करना बंद-सा कर दिया है. वह भाजपा की आक्रामकता और चुभते कटाक्षों का जवाब देने के लिए नई भाषा गढ़ते दिख रहे हैं.
कुछ वक़्त पहले तक इस विचार को भी हास्यास्पद माना जाता था कि राहुल गांधी मोदी के लिए चुनौती हो सकते हैं. यह मज़ाक आम था कि अगर राहुल चुनाव प्रचार में उतरें तो बीजेपी की जीत पक्की हो जाएगी.
गुजरात लिटमेस टेस्ट
आज भी वह मोदी के लिए पूरी चुनौती तो नहीं बन पाए हैं लेकिन इसकी संभावना से इनकार करना किसी भी गंभीर व्यक्ति के लिए मुश्किल हो गया है, वह चुनौती बन सकते हैं, यह राहुल की अब तक की सबसे बड़ी कामयाबी है. इस बदले माहौल को वो चुनावी जीत में तब्दील कर पाएंगे या नहीं, कहना मुश्किल है.
आज की तारीख़ में राहुल के पास खोने को बहुत कम है और हासिल करने को बहुत ज़्यादा, नरेंद्र मोदी का मामला इसके ठीक उलट है.
गुजरात इस बात का लिटमेस टेस्ट है कि भाजपा और मोदी को लेकर लोगों में जो निराशा दिखने लगी है उसे राहुल गांधी भुना पाएंगे या नहीं, जैसे मनमोहन सिंह की चुप्पी लोगों को खलने लगी थी तो उन्हें ज़ोरदार वक्ता मोदी में उम्मीद दिखी, अब कुछ लोगों की शिकायत है कि मोदी बोलते बहुत हैं लेकिन करते कुछ नहीं.
ऐसी हालत में हिसाब से बोलने वाले राहुल गांधी लोगों को ठीक लगने लगे हैं लेकिन राहुल गांधी के पास मोदी की तरह कुछ कर दिखाने का ट्रैक रिकॉर्ड नहीं है. वह सांसद रहे हैं लेकिन मंत्री या मुख्यमंत्री नहीं, यही वजह है कि पीएम के तौर पर राहुल गांधी की कल्पना अब भी लोग नहीं कर पाते हैं. हालांकि, यह भी सच है कि विपक्ष के पास राहुल गांधी के अलावा कोई चेहरा अभी तक तो नहीं है.
बहरहाल, राहुल गांधी क्रीज़ पर हैं, दर्शक अब उन्हें हूट करने की जगह कभी-कभी तालियां भी बजाने लगे हैं, लेकिन जो सवाल सालों से पूछा जा रहा है, वह अपनी जगह कायम है--क्या राहुल रन बना पाएंगे?