बिहार: लोजपा की चुनौती को अपने 'वोट बैंक' से नाकाम करने की है जदयू की तैयारी
नई दिल्ली- नीतीश कुमार जानते हैं कि चिराग पासवान जिस रास्ते निकल पड़े हैं उसपर वो अगर सफल नहीं भी हुए तो कई सीटों पर जदयू का खेल जरूर बिगाड़ सकते हैं। भाजपा के बागियों पर नकेल कसने के लिए वो प्रदेश नेतृत्व पर जितना दबाव बना सकते थे, बना चुके हैं। अब उन्होंने अपने आधार वोटरों पर फोकस करने की रणनीति अपना ली है। राजनीति में चिराग नीतीश के सामने 'नौसिखिया' हैं। जदयू अध्यक्ष जानते हैं कि अगर उन्होंने अपना 'वोट बैंक' सुरक्षित रख लिया तो लोजपा सांसद कितना भी उछल-कूद कर लें, वह उनके चक्रव्यूह से जरूर निकल सकते हैं।
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बिहार विधानसभा चुनाव के लिए बुधवार को जदयू ने जिन 115 उम्मीदवारों की लिस्ट जारी की है, उसमें कोर जातिगत वोट बैंक का ख्याल तो रखा ही गया है, नफा-नुकसान की भरपाई के लिए मुस्लिम और यादवों की भी अनदेखी नहीं की गई है। पार्टी की ओर से महिला और सवर्ण उम्मीदवारों को भी उनके हिस्से का प्रतिनिधित्व देने की कोशिश की है। लेकिन, इस लिस्ट को देखने से पता चलता है कि जदयू नेतृत्व को अपने कोर वोटरों से बहुत ज्यादा उम्मीद है। खासकर, इसलिए कि लोजपा ने आखिरी वक्त में जो परिस्थितियां पैदा कर दी हैं, उससे बात सियासी सम्मान की आ गई है। लिहाजा 'लव-कुश' बिरादरी पर भरोसा जताया गया है तो अति-पिछड़ों और महादलित उम्मीदवारों के लिए भी दिल खोल दिया गया है।
जदयू की लिस्ट में 21 अति-पिछड़ों को टिकट मिला है तो 16 दलितों को प्रत्याशी बनाया गया है। वहीं बात 'लव-कुश' बिरादरी की हो रही है तो 17 कोयरी या कुशवाहा उम्मीदवारों को मौका दिया गया है तो 7 कुर्मी प्रत्याशी उतारे गए हैं। खुद नीतीश भी इसी बिरादरी से आते हैं। आगे बढ़ने से पहले जरा जदयू के इन कोर वोटरों की ताकत समझ लेना जरूरी है। बिहार में कुर्मियों की जनसंख्या करीब 4 फीसदी बताई जाति है और कोयरी की तादाद करीब 6 फीसदी है। कहने के लिए तो उपेंद्र कुशवाहा भी कोयरी वोट के दावेदार हैं, लेकिन जमीनी हकीकत ये है कि कुशवाहा से ज्यादा उनपर नीतीश का प्रभाव माना जाता है। उपेंद्र कुशवाहा और नीतीश की सियासी रंजिश की वजह भी यही है।
इसी तरह अति-पिछड़ों में करीब 100 छोटी-छोटी जातियां आती ,हैं जिनकी जनसंख्या भी करीब 22 फीसदी है। रही बात दलित और महादलितों की तो उनकी जनसंख्या करीब 16 फीसदी है। इन सब बिरादरियों पर नीतीश कुमार और जदयू का अपना एक खास प्रभाव रहा है। मसलन, 2014 के लोकसभा चुनाव में जदयू ने अकेले चुनाव लड़कर भी दो सीटें जीती थी और उसे 16 फीसदी वोट मिले थे तो उसमें सबसे बड़ा हिस्सा अति-पिछड़ों और दलितों का ही शामिल था। इस बार तो बिहार के दलित नेताओं में जीतन राम मांझी (मुशहर) और अति-पिछड़ों में मुकेश सहनी (मल्लाह) एनडीए के हिस्सा ही बन चुके हैं। अलबत्ता एक और दलित नेता चिराग पासवान जरूर एनडीए से निकल चुके हैं, जिनके साथ दलितों में करीब 5.5 फीसदी पासवान वोट माना जा सकता है। बिहार की कुल 243 सीटों में से 38 सीटें अनुसूचित जाति-जनजातियों के लिए आरक्षित हैं।
इन कोर वोटरों के अलावा नीतीश बिहार की महिला वोटरों के बीच भी काफी लोकप्रिय माने जाते हैं। उनकी लिस्ट में 18 महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया है तो 17 सवर्ण प्रत्याशियों पर भी भरोसा किया गया है। सवर्णों में भी नीतीश ने लिस्ट में सियासी तौर पर सबसे ज्यादा सक्रिय रहने वाले भुमिहार उम्मीदवारों पर भरोसा जताया है और उन्हें 9 सीटें दी हैं तो 6 राजपूत और 2 ब्राह्मणों को टिकट दिए गए हैं। लोजपा की यही कोशिश है कि ज्यादा से ज्यादा बागी सवर्णों (भाजपा और जदयू के ) को टिकट देकर जदयू को नुकसान पहुंचाए।
इसी तरह जदयू ने सारण जिले की परसा विधानसभा सीट से लालू यादव के बागी समधी चंद्रिका राय को टिकट देकर यादवों के एक वर्ग को संदेश देने की कोशी की है। चंद्रिका राय राजद के बड़े नेता भी रहे हैं और प्रभावी यादव परिवार से भी आते हैं। वह बिहार के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री और लालू के बड़े बेटे तेज प्रताप यादव की पूर्व पत्नी ऐश्वर्या के पिता भी हैं।