अयोध्या, राम मंदिर और कांग्रेस: ना माया मिली, ना राम
अयोध्या में राम मंदिर को लेकर कांग्रेस की दुविधा वर्षों से रही है. समय समय पर पार्टी के अंदर भी इस मामले पर अलग-अलग सुर सुनाई देते हैं.
पिछले कुछ दिनों में जबसे अयोध्या में राम मंदिर के लिए भूमि पूजन के समय और दिन को निर्धारित किया गया, तब से कांग्रेस पार्टी की तरफ़ से इसको लेकर कोई आधिकारिक बयान जारी नहीं किया गया था. अलबत्ता पार्टी के कुछ नेता अपने स्तर पर बयान देते हुए सुनाई दिए.
कुछ नेताओं ने सोशल मीडिया पर अपने विचार रखे, लेकिन अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की तरफ़ से मामले में चुप्पी ही दिखी.
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राम मंदिर की आधारशीला रखे जाने से एक दिन पहले, यानी मंगलवार को पार्टी की महासचिव और उत्तर प्रदेश की प्रभारी प्रियंका गांधी का बयान आया जिसमें उन्होंने कहा कि 5 अगस्त को रामलला के मंदिर के भूमि पूजन का कार्यक्रम राम के "संदेश को प्रसारित करने वाला राष्ट्रीय एकता, बंधुत्व और सांस्कृतिक समागम का कार्यक्रम बने."
राम मंदिर पर कांग्रेसी नेताओं की बयानबाज़ी
मंगलवार को ही मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री और वरिष्ठ कांग्रेस के नेता कमलनाथ ने अपने घर पर हनुमान चालीसा का पाठ करवाया और कहा कि मध्य प्रदेश कांग्रेस कमेटी की तरफ़ से चांदी की 11 शीलाएं राम मंदिर के निर्माण के लिए भेजी जा रहीं हैं.
उन्होंने भारतीय जनता पार्टी पर इस मौक़े से राजनीतिक लाभ उठाने का भी आरोप लगाया.
लेकिन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने मंगलवार को ही एक प्रेस वार्ता में कांग्रेस पर "राम मंदिर के निर्माण में बाधा" डालने का आरोप लगाया और कहा कि कांग्रेस को अपने अतीत पर नज़र डालनी चाहिए कि किस तरह उसने राम मंदिर के शिलान्यास में बाधाएँ पहुँचाईं.
उन्होंने कांग्रेस के नेताओं का नाम तो नहीं लिया, लेकिन कहा कि इन नेताओं ने लोगों को धर्म और जाति के नाम पर आपस में विभाजित रखा और उसका राजनीतिक लाभ उठाया.
इस बीच कांग्रेस के एक दूसरे क़द्दावर नेता दिग्विजय सिंह ने तो यहाँ तक दावा कर दिया कि राम मंदिर का शिलान्यास पूर्व प्रधानमंत्री राजिव गाँधी ने पहले ही कर दिया था. उनकी बात को आगे बढ़ाते हुए मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने भी कहा कि राजीव गांधी भी राम मंदिर के निर्माण के पक्षधर थे.
इससे पहले छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने दंडकारण्य के क्षेत्र को विकसित करने की बात कही यानी वो इलाक़े, जिनके बारे में कहा जाता है कि यहीं श्री राम ने अपने 14 वर्ष के वनवास का समय बिताया था, जिसका बड़ा हिस्सा छत्तीसगढ़ के जंगलों से होकर निकलता है.
लेकिन जानकार कहते हैं कि ये सब राम मंदिर की आधारशिला का दिन और समय निर्धारित होने के बाद से शुरू हुआ.
पीवी नरसिम्हा राव पर सवाल
जब 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में विवादित स्थल के पास बाबरी मस्जिद को गिराया गया था, उस वक़्त देश के प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव थे. कांग्रेस पर नज़र रखने वाले जानकारों का कहना है कि उनके ख़िलाफ़ अंदर ही अंदर विरोध शुरू हो गया था.
कांग्रेस के तत्कालीन नेताओं को लगता था कि नरसिम्हा राव उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाकर इस स्थिति से निपट सकते थे. लेकिन उन्होंने कुछ नहीं किया.
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बाबरी मस्जिद के गिरने के बाद नरसिम्हा राव ने अंतर्विरोध के चलते जल्दबाज़ी में ये घोषणा कर दी कि सरकार टूटे हुए ढाँचे की मरम्मत कर देगी.
विश्लेषक कहते हैं कि इस घोषणा ने राम मंदिर आंदोलन से जुड़े लोगों को आहत तो किया ही, आम हिंदुओं ने भी कांग्रेस से दूरी बनानी शुरू कर दी, जिसका सीधा लाभ समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी को उत्तर प्रदेश की राजनीति में मिला और लालू प्रसाद यादव को बिहार में मिला.
इन दोनों ही राज्यों में कांग्रेस का ढांचा चरमरा गया.
विनय सेनापति ने पीवी नरसिम्हा राव की जीवनी 'हाफ़ लायन' में लिखा है कि इसके कोई सबूत नहीं मिले हैं कि बाबरी मस्जिद को गिराए जाने में नरसिम्हा राव का भी हाथ था.
लेकिन उन्होंने ये ज़रूर लिखा कि नरसिम्हा राव ने अपने व्यक्तिगत राजनीतिक फ़ायदे को ध्यान में रखा, साथ ही उन्होंने समय पर फ़ैसला लेने में चूक कर दी. उन्होंने पहले राष्ट्रपति शासन लागाने की बजाय दक्षिणपंथी समूहों से बातचीत का रास्ता चुना था.
कांग्रेस की ग़लतियाँ
कांग्रेस पर नज़र रखने वाले राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि राम मंदिर के सवाल पर कांग्रेस पार्टी शुरू से ही ग़लतियाँ करती चली गईं. जिसकी वजह से इस मुद्दे पर पार्टी की स्थिति लोगों को कभी स्पष्ट रूप से नहीं दिख पाई.
रशीद किदवई ने बतौर पत्रकार कांग्रेस पर कई सालों तक रिपोर्टिंग की है. उनका कहना है कि आज़ादी की लड़ाई के दौरान कांग्रेस में सभी तरह के गुट शामिल थे. इनमें दक्षिणपंथी और वामपंथियों के अलावा मध्य पथ पर चलने वाले भी थे. इस दौरान जन संघ से लेकर मुस्लिम लीग जैसे संगठन भी साथ थे. एक समय था जब कांग्रेस में दक्षिणपंथी लोग भी शामिल थे.
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रशीद किदवई कहते हैं, "इनकी तादात भी काफ़ी बड़ी थी, लेकिन जवाहरलाल नेहरू की वजह से सब बीच के रास्ते पर ही चलते थे. जब भारत में सबसे पहली बार चुनाव हुए तो जवाहरलाल नेहरू के ख़िलाफ़ चुनाव कौन लड़ता? लेकिन एक स्वामी जी, जो बोलते नहीं थे यानी मौन थे, उन्होंने चुनाव लड़ा और वो भी गौ सेवा के मुद्दे को लेकर. स्वामी जी को 52 हज़ार से 53 हज़ार वोट भी मिले."
किदवई कहते हैं कि वर्ष 1991 में कांग्रेस ने फ़ैज़ाबाद से अयोध्या तक शांति मार्च भी निकाली थी. इस मार्च का नेतृत्व नवल किशोर शर्मा कर रहे थे. इस मार्च में कोई हज़ार लोग शामिल हुए. लेकिन इसके अगले दिन जब वहाँ पर विश्व हिंदू परिषद् ने जुलूस निकाला तो लाखों की भीड़ उमड़ पड़ी.
उनका कहना था, "कांग्रेस पार्टी लोगों की भावनाओं को समझ नहीं पाई या समझ कर भी इसकी अनदेखी करती रही. हालाँकि मंदिर का ताला खुलवाने में राजीव गाँधी ने अहम भूमिका निभाई, लेकिन इस मुद्दे पर पार्टी की विचारधारा में कभी स्पष्टता नहीं दिखी. इसलिए अब कांग्रेस को ना माया मिली ना राम."
राजनीतिक दुविधा
दूसरे विश्लेषकों को भी लगता है कि कांग्रेस के सामने यूपीए के शासन काल में अलग तरह की राजनीतिक दुविधा रही. उदाहरण के तौर पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह थे, पार्टी की अध्यक्ष सोनिया गाँधी ख़ुद थीं. कांग्रेस ने हामिद अंसारी को भारत का उपराष्ट्रपति बनाया.
कांग्रेस के संकट मोचक के रूप में दो प्रमुख नाम रहे. पहले पूर्व रक्षा मंत्री एके एंटनी और दूसरे अहमद पटेल. इससे संदेश जाता रहा कि कांग्रेस पार्टी अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण कर रही है.
लखनऊ में मौजूद वरिष्ठ पत्रकार वीरेंद्रनाथ भट्ट कहते हैं कि वर्ष 1984 में हत्या के पहले इंदिरा गाँधी चाहती थीं कि मंदिर का ताला खुल जाए और आम चुनाव वो इसी पर लड़ना चाहती थीं. लेकिन उनकी हत्या के कई सालों के बाद राजीव गाँधी के कार्यकाल के दौरान मंदिर का ताला खुला और उस समारोह का सीधा प्रसारण भी हुआ.
वो कहते हैं कि इससे पहले अक्तूबर 1989 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत तिवारी से विष्णु हरि डालमिया और अशोक सिंघल की आपस में बैठक भी हुई थी.
भट्ट कहते हैं, "घटनाक्रम कुछ ऐसा चलता रहा कि राम मंदिर का ताला खुलवाने से लेकर वोटों के ध्रुवीकरण तक सारी की सारी खीर कांग्रेस की तैयार की हुई थी. लेकिन राजीव गाँधी और नरसिम्हा राव जैसे नेताओं के बाद कांग्रेस का नेतृत्व किसी भी मुद्दे पर ठोस फ़ैसला नहीं कर पाया और उनकी खीर भारतीय जनता पार्टी खा गई."
पार्टी के भीतर स्पष्टता की कमी
नेतृत्व का जहाँ तक सवाल है, तो सोनिया गांधी दो दशकों तक पार्टी की अध्यक्ष रहीं. फिर राहुल गांधी का कार्यकाल लगभग 19 महीनों का रहा. इस दौरान पार्टी में कभी भी किसी मुद्दे पर कोई स्पष्टता नज़र नहीं आई.
कुछ कांग्रेस के भीतर के लोगों ने चर्चा के दौरान कहा कि गुजरात के चुनावों में राहुल गांधी ने जो सक्रियता दिखाई. मसलन जनेऊ धारण करना और मंदिरों में पूजा पाठ करना, वो आख़िरी बार साल 2017 में ही दिखा था. उसके बाद फिर वो मंदिरों में जाते नज़र नहीं आए. ये बात भी पार्टी के अंदर के लोगों को बेचैन कर रही है.
यही वजह है कि कांग्रेस के जितने कार्यकर्ता राज्यों में बनाए गए हैं, उतने वोट भी पार्टी को नहीं मिल पाते हैं, ऐसा कुछ कांग्रेस के उन नेताओं को लगता है जिन्हें किनारे कर दिया गया है. ताज़ा उदाहरण के रूप में वो मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस के बड़े नेताओं की बग़ावत बताते हैं.
वो कहते हैं कि इन दोनों राज्यों में सरकार बनाने के पहले दिन से ही इसके संकेत मिल रहे थे लेकिन पार्टी ने समय रहते कोई क़दम नहीं उठाया.