नज़रिया: मोदी-शाह की जोड़ी के सामने कहां है विपक्ष?
बीजेपी का पूरा ध्यान तो 2019 के चुनाव पर तो विपक्ष के पास न कोई काम है और न ही मुद्दा.
मेरे एक मित्र हैं, जो चुनाव के एक्सपर्ट हैं. जब मैंने उनसे आने वाले चुनाव के बारे में पूछा, तो वो हंसने लगे. उन्होंने कहा कि ये कोई चुनाव थोड़े ही हैं. ये तो 2019 की बड़ी तैयारी का टेस्ट भर है.
ये एक छोटा सा तजुर्बा है. ये चुनाव एक पायलट स्टडी है जो अमित शाह कर रहे हैं. इस चुनाव में अमित शाह 2019 के बड़े इम्तिहान के लिए अपनी तैयारियां परखने जा रहे हैं.
वो चाहते हैं कि 2019 के लिए वो जो चुनावी मशीन तैयार कर रहे हैं, उसमें कोई कसर हो तो अभी पता करके दूर कर ली जाए.
गुजरात चुनाव में यूपी-बिहार की तरह जाति अहम?
'बीजेपी अब वो नहीं जो दाग़ियों को निकालती थी'
मौजूदा चुनाव टाइम-पास
मेरे दोस्त ने कहा कि चुनाव अनिश्चितता, शुबहे और ज़ोरदार मुक़ाबले के साथ लड़े जाते हैं. मौजूदा चुनाव में से ये सब कुछ ग़ायब है.
आज जो भी हो रहा है, वो पहले से लिखी हुई स्क्रिप्ट लग रहा है. बीजेपी ने बड़ी जीत हासिल कर ली है. देश के सियासी माहौल पर उसका दबदबा है.
जो भी छोटी-मोटी चुनावी झड़प हो रही है, उसे आप मनोरंजन भर मानिए. यूं कह सकते हैं कि ये तो जम्हूरियत का भरम बनाए रखने के लिए हो रहा है.
बीजेपी का पूरा ध्यान तो 2019 के आम चुनाव पर है. मौजूदा चुनाव तो टाइम-पास हैं.
विपक्ष के पास न काम, न मुद्दा
अगर आप देश में पिछले कुछ महीनों में हुए चुनावों को देखें तो लगता है कि मोदी ने जनता के दिलो-दिमाग़ पर अपना राज क़ायम कर लिया है.
भले ही उनके भाषणों में लफ़्फ़ाज़ी ज़्यादा हो, पर उनकी बातें लोगों में जोश भरती हैं.
लोगों को मोदी की बातों से इस बात का यक़ीन हो जाता है कि वो कुछ करना चाहते हैं.
वो एक ख़ास मक़सद के लिए पूरी ताक़त से काम कर रहे हैं. वहीं विपक्ष के पास न कोई काम है और न ही मुद्दा है.
विपक्ष पूरी तरह से बिखरा हुआ दिखता है.
हिमाचल चुनाव में किसके बीच है मुक़ाबला?
मोदी के पीछे शाह, संघ की मशीनरी
मेरे दोस्त ने कहा कि कई धार्मिक गुरुओं ने मोदी को अच्छे काम करने का प्रमाणपत्र दिया है.
मोरारी बापू, स्वामीनारायण संप्रदाय के धार्मिक नेता और जग्गी वासुदेव तक ने खुल कर मोदी के काम-काज की तारीफ़ की है.
वहीं दूसरी तरफ़ राहुल गांधी हैं. उन्हें एक मार्शल आर्ट सिखाने वाले गुरु से सर्टिफ़िकेट मिला है.
जनता को ये फ़र्क़ समझ में आता है. राहुल गांधी जो मार्शल आर्ट यानी ऐकीडो सीख रहे हैं, उसका चुनाव से कोई ताल्लुक़ नहीं है.
जनता को साफ़ दिखता है कि मोदी के पीछे अमित शाह हैं. संघ परिवार की पूरी मशीनरी है.
उन्हें एक ज़बरदस्त सियासी मशीनरी दिखती है, जो चुनावी जंग के लिए हमेशा तैयार है.
बदलाव का संदेश देने की कोशिश भर है फेरबदल
माहौल और क़िस्मत बीजेपी के साथ
वहीं, विपक्षी खेमे पर नज़र डालें तो कहीं दूर संभावनाओं की एक लौ सी जलती नज़र आती है. जो चुनौतियों के थपेड़ों का सामना कर रही है.
हां, कुछ अच्छे नेता हैं विपक्षी खेमे में. जैसे राजस्थान में सचिन पायलट, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी. लेकिन कुल मिलाकर विपक्ष बिखरा हुआ ही नज़र आता है.
न इसका कोई किरदार है, न कोई पहचान है और न ही कोई लक्ष्य समझ में आता है.
साफ़ है कि माहौल और क़िस्मत दोनों बीजेपी के साथ है. लोग इसे ऐसी पार्टी मानते हैं जो जी-तोड़ मेहनत कर रही है.
मिसाल के तौर पर नोटबंदी को ही लीजिए. ये सामाजिक तौर पर बहुत बुरा फ़ैसला था. असंगठित क्षेत्र को इससे बहुत नुक़सान हुआ. लेकिन इस फ़ैसले के बुरे असर के बावजूद, मोदी के इस फ़ैसले पर जनता सवाल नहीं उठाती.
लोगों को लगता है कि सरकार ने नोटबंदी का फ़ैसला तो अच्छी नीयत से लिया. हां, इसे लागू करने में गड़बड़ियां रह गईं. फिर भी लोग इसके लिए मोदी को ज़िम्मेदार नहीं समझते. वो आज भी मतदाता के लिए सबसे अच्छे नेता हैं.
लालू की मुस्कान से परेशान होते हैं नीतीश?
सियासत में ये सन्नाटा ठीक नहीं
ऐसा लगता है कि लोग बस दो साल पूरे होने का इंतज़ार कर रहे हैं. ये ख़ाली वक़्त है. देश सिर्फ़ 2019 के आम चुनावों का इंतज़ार कर रहा है. ऐसा नहीं है कि बीजेपी ने ग़लतियां नहीं कीं.
रोज़गार से लेकर खेती तक, इसकी नीतियां तबाही लाने वाली रही हैं. लेकिन ये ग़लतियां इतनी बड़ी नहीं दिखीं कि जनता बीजेपी सरकार के ख़िलाफ़ सड़क पर उतर आए.
मगर ये ज़रूर है कि सियासत में ये सन्नाटा ठीक नहीं है. ये वो रंग-बिरंगा चुनावी माहौल नहीं है, जो होना चाहिए. ये तो राजनीति का ख़ालीपन है.
आज माहौल ऐसा है कि एक बहुसंख्यक विचारधारा वाली पार्टी मीडिया का साथ लेकर कमज़ोर विपक्ष की मौजूदगी में अपनी मनमर्ज़ी से देश चला रही है.
आज कमी है विकल्प की, विरोध की. ऐसा नहीं है कि बीजेपी कामयाब है. बात असल में ये है कि राजनीति ही आज थकी और हताश मालूम होती है.
हार्दिक, अल्पेश, जिग्नेश शोर मचाते बच्चे
आज चुनाव मूक फ़िल्मों जैसे महसूस होते हैं. लोकतंत्र का शोर-शराबा ही आज नहीं सुनाई देता.
गुजरात चुनाव को ही ले लीजिए. तीन चेहरे हैं जो लोगों का ध्यान अपनी तरफ़ खींचने की कोशिश कर रहे हैं. हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवानी.
ये ख़ूब हंगामा और बयानबाज़ी कर रहे हैं. फिर भी वो अमित शाह के विशाल विजय रथ के आगे शोर मचाते बच्चों जैसे दिखते हैं.
ऐसा नहीं है कि बीजेपी अपने काम से हम पर अच्छा असर डाल रही है. असल में ये एक ख़ालीपन है सियासत का.
नाकामी है लालू, ममता बनर्जी, नवीन पटनायक जैसे नेताओं की. जो एकजुट होकर बड़ी रणनीति बनाने में नाकाम रहे हैं.
'नीतीश कुमार कभी लालू यादव के दाएं हाथ थे'
बुनियादी बातें, मुद्दों पर बहस से महरूम
हम फौरी नतीजों की बात नहीं कर रहे हैं. हम तो उस दूरंदेशी की बात कर रहे हैं, जिसमें रणनीति बनाकर दूर की मंज़िल हासिल करने की कोशिश होनी चाहिए.
क्षेत्रीय स्तर पर ये नेता भले ही ताक़तवर दिखते हों. मगर राष्ट्रीय स्तर पर ये असरहीन नज़र आते हैं.
आज की तारीख़ में भारतीय राजनीति इन नेताओं से दोयम दर्जे की किसी कोशिश की भी उम्मीद नहीं करती.
नतीजा ये कि आज हमारा लोकतंत्र ग़लतियां सुधारने, उनसे सबक़ लेने, जनता की बात सुनने और विवादित मुद्दों पर बहस जैसी बुनियादी बातों से महरूम है.
उम्मीद है लोकतंत्र में सार्थक बहस की
आज तो चेन्नई शहर भी ख़ाली लगता है. वो चेन्नई, जो कभी सियासी विचारों की खान कहा जाता था.
कमल हासन राजनीति की अधूरी कहानी के साथ खड़े हैं. रजनीकांत ख़ामोश हैं. राजनीति की ये विकलांगता चिंता का विषय है.
मीडिया तो पहले ही 2019 में बीजेपी की जीत का जश्न मनाने में जुट गई है.
हम तो बस यही उम्मीद करते हैं कि समाज से ही कुछ लोग निकलेंगे जो लोकतंत्र में सार्थक बहस छेड़ेंगे.
हुक्मरानों से सख़्त सवाल पूछेंगे. देशहित के लिए हंगामा खड़ा करेंगे. ताकि हम सोते-सोते ही 2019 का चुनाव न निपटा दें.