'दीवार' के साथ 'शोले' की भी शूटिंग कर रहे थे अमिताभ
1975 में दीवार फिल्म आई थी जिसे व्यापारिक सफलता के साथ साथ समीक्षकों ने भी सराहा. पिक्चर अभी बाकी है की 8वीं कड़ी में रेहान फ़ज़ल बता रहे हैं दीवार फिल्म बनने की कहानी
'दीवार' 24 जनवरी, 1975 को 'रोटी कपड़ा और मकान' के 50 हफ़्ते पूरे होने के बाद रिलीज़ हुई थी. जैसे ही, फ़िल्म के निर्देशक यश चोपड़ा ने फ़िल्म की कहानी सुनी उन्हें अंदाज़ा हो गया कि उनके हाथ में एक ब्लॉकबस्टर है.
बाद में यश चोपड़ा ने एक इंटरव्यू में कहा, "पहली नज़र में मुझे सुनकर लगा कि ये कहानी 'मदर इंडिया' से प्रभावित है. लेकिन सलीम-जावेद की स्क्रिप्ट ज़बरदस्त थी और उससे भी ज़बरदस्त थे उसके डायलॉग.
ये संपूर्ण स्क्रिप्ट थी जिस पर फ़िल्म बनाने के बाद मुझे इससे एक डायलॉग भी हटाना नहीं पड़ा. मैं नहीं समझता कि सलीम जावेद ने अपने पूरे करियर में इससे बेहतर स्क्रिप्ट लिखी थी.
जहाँ तक स्क्रिप्ट की बात है, 'दीवार' की स्क्रिप्ट 'शोले' से बेहतर थी. ये एक भावनात्मक फ़िल्म थी न कि एक्शन फ़िल्म.
पूरी फ़िल्म में सिर्फ़ एक फ़ाइट सीन था जिसे 'गोडाउन (गोदाम) फ़ाइट' कहा जाता है. पूरी फ़िल्म में सिर्फ़ दो गाने थे.
फ़िल्म के प्रोड्यूसर गुलशन राय पहले राजेश खन्ना को हीरो लेना चाहते थे, क्योंकि फ़िल्म 'दाग़' में राजेश खन्ना ने काम किया था और वो फ़िल्म काफ़ी हिट हुई थी.
लेकिन मैंने 'ज़ंजीर' देख रखी थी इसलिए मैं अमिताभ को लेना चाहता था. हमने 1974 मे मार्च और अक्तूबर के बीच इस फ़िल्म की शूटिंग की. इस फ़िल्म की ज़्यादातर शूटिंग रात में हुई क्योंकि दिन में अमिताभ 'शोले' की शूटिंग कर रहे थे."
'दीवार' और 'शोले' की शूटिंग साथ-साथ कर रहे थे अमिताभ
दिलचस्प बात ये थी कि 'दीवार' और 'शोले' की शूटिंग न सिर्फ़ दो अलग अलग लोकेशंस पर हो रही थी, बल्कि दो अलग अलग शहरों में हो रही थी.
अमिताभ बच्चन ने एक इंटरव्यू में बताया था, "दीवार के क्लाइमेक्स को रात में शूट किया जा रहा था बंबई में. मैं रात भर जागता और सुबह बंगलौर की फ़्लाइट पकड़ता जहाँ से एक घंटे की दूरी पर रामगढ़ में 'शोले' की शूटिंग चल रही थी.
शूटिंग ख़त्म हो जाने के बाद शाम को मैं फिर बंबई की फ़्लाइट पकड़ता ताकि 'दीवार' की शूटिंग को जारी रखा जा सके. थोड़ी बहुत नींद मैं फ़्लाइट के दौरान ही ले पाता. ये सिलसिला कई दिनों तक चला.'
'शोले' और 'दीवार' के निर्देशक रमेश सिप्पी और यश चोपड़ा ने बाद में बताया कि दिन में दो शिफ़्ट करने के बाद भी अमिताभ किसी शूटिंग के लिए लेट नहीं हुए.
जब 'शोले' की शूटिंग ख़त्म हो गई तो यश चोपड़ा 'दीवार' के साथ साथ 'कभी-कभी' फ़िल्म की शूटिंग भी करने लगे.
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'दीवार' को व्यापारिक सफलता के साथ साथ 'क्रिटिकल अक्लेम' भी मिला था.
स्टीवन जे श्नीडर ने अपनी '1001 मूवीज़ यू मस्ट सी बिफ़ोर यू डाई' की सूची में जिन तीन हिंदी फ़िल्मों को शामिल किया था उनमें से एक 'दीवार' भी थी.
'फ़ोर्ब्स' पत्रिका ने भारतीय सिनेमा के 25 सर्वश्रेष्ठ अभिनय प्रदर्शनों में अमिताभ बच्चन के अभिनय को जगह दी थी. 'दीवार' पूरे 100 हफ़्ते चली थी और इसे 'क्लासिक फ़िल्म' का दर्जा मिला.
शायद इसका कारण ये था कि इस फ़िल्म ने कई रवायतें तोड़ी थीं.
फ़िल्म में मात्र दो गाने थे, हीरो 'एंटी हीरो' था, रोमांस की गुंजाइश बहुत कम थी, हीरोइन का बहुत छोटा रोल था और वो कोई आदर्श लड़की की भूमिका नहीं निभा रही थीं.
बाद में अमिताभ बच्चन ने इस फ़िल्म को याद करते हुए कहा, 'मैंने 'दीवार' की कहानी सुनी और मुझे इसका उस दौर के हिसाब से दिखाया जा रहा नज़रिया पसंद आया.
यशजी को सौंदर्य, प्रकृति और रोमांस पसंद है. उनको हमेशा फूलों के गुलदस्ते की तलब रहती थी. मैं समझ सकता हूँ 'दीवार' बनाना उनके लिए कितना कष्टदायक रहा होगा.
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गुलशन राय को ये बात पसंद नहीं आ रही थी कि फ़िल्म में बहुत कम संगीत था. बाद में उनके ज़ोर देने पर फ़िल्म में एक सूफ़ी गाना जोड़ा गया था. यश चोपड़ा ने इसे पसंद नहीं किया था लेकिन बाद में उन्होंने गुलशन राय की बात मान ली थी.'
गुलशन राय ने इस फ़िल्म की कहानी दो बार पढ़ी थी और दोनों बार वो अपने आँसुओं को नहीं रोक पाए थे.
'दीवार' में 'जोशीला' फ़िल्म के लिए तैयार किए गए टाइटल म्यूज़िक को इस्तेमाल किया गया था. बाद में इसको 'याराना' फ़िल्म में फिर इस्तेमाल किया गया.
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राजेश खन्ना और नवीन निश्चल थे यश चोपड़ा की पहली पसंद
जिस समय यश चोपड़ा ने दीवार की स्क्रिप्ट सुनी वो 'गर्दिश' फ़िल्म बना रहे थे. वो 'दीवार' की स्क्रिप्ट से इतने ज़्यादा प्रभावित हुए कि उन्होंने 'गर्दिश' फ़िल्म की शूटिंग रोक दी.
उन्हें डर था कि अगर उन्होंने देरी की तो 'दीवार' की स्क्रिप्ट किसी और के हाथ पड़ जाएगी.
यश चोपड़ा शुरू मे विजय के रोल के लिए राजेश खन्ना और रवि के रोल के लिए नवीन निश्चल को लेना चाहते थे. माँ के रोल के लिए उनके ज़हन में वैजयंतीमाला थीं.
इस बीच सलीम-जावेद की राजेश खन्ना से तनातनी हो गई और उन्होंने राजेश खन्ना को फ़िल्म में न लिए जाने के लिए अपनी पूरी ताक़त झोंक दी.
जब नवीन निश्चल और वैजयंतीमाला ने सुना कि फ़िल्म में राजेश खन्ना नहीं काम कर रहे हैं तो उन्होंने फ़िल्म में काम करने से मना कर दिया.
इसके बाद यश चोपड़ा ने विजय के रोल के लिए अमिताभ बच्चन को चुना.
उन्होंने माँ का रोल वहीदा रहमान को लगभग दे ही दिया था लेकिन बाद में उन्होंने ये सोच कर अपना मन बदल लिया कि उन्हीं की एक फ़िल्म 'कभी कभी' में वहीदा अमिताभ के प्रेमी की भूमिका निभा रही थीं. शायद 'दीवार' में दर्शक उन्हें अमिताभ बच्चन की माँ के रोल में न पसंद करें.
'मदर इंडिया' से मिलती थी 'दीवार' की थीम
एक आलोचक ने फ़िल्म की कहानी में कई नुख़्स निकाले थे. कहानी की थीम बल्कि इसको बनाने का ढंग भी बहुत कुछ 'मदर इंडिया' से लिया गया था.
फ़िल्म फ़्लैशबैक में चलती है. पति के बिना माँ को अपने दोनों बच्चों को पालने में बहुत संघर्ष का सामना करना पड़ता है. उसका एक बेटा क़ानून को मानता है जबकि दूसरा बेटा क़ानून को अपने हाथों में ले लेता है. माँ बुरे बेटे को चाहती है लेकिन उसे अच्छे बेटे को चुनने के लिए मजबूर होना पड़ता है.
'दीवार' के चरित्र बहुत हद तक 'मदर इंडिया' से मिलते हैं लेकिन सलीम-जावेद ने उन्हें समकालीन टच दिया है. हालाँकि निरूपा रॉय नरगिस जितनी बड़ी स्टार नहीं थीं, लेकिन उन्होंने एक आदर्श माँ का रोल निभाया था. उनको देश के कानून और अपने रिश्ते के बीच चुनाव करना पड़ता है.
हालाँकि वो विजय को बहुत प्यार करती हैं लेकिन वो क़ानून को चुनती हैं. विजय धर्म को नहीं मानता लेकिन अपनी बाँह पर लगे 786 नंबर के बिल्ले के लिए अंधविश्वासी है.
आख़िर में जब उसकी माँ बीमार पड़ती है तो वो उसके लिए प्रार्थना करने उसी मंदिर में जाता है जहाँ जाने से उसने हमेशा इंकार किया था. जब ये सीन फ़िल्माया जा रहा था तो अमिताभ ने यश चोपड़ा से अनुरोध किया कि जब ये दृश्य फ़िल्माया जाए तो सेट पर उनके अलावा कोई और मौजूद न रहे.
ये सीन रात में फ़िल्माया गया था और 15 टेक के बाद यश चोपड़ा ने इस शॉट को ओके कहा था. दिलचस्प बात थी कि फ़िल्म के डेथ सीन के लिए कोई भी डायलॉग नहीं लिखा गया था.
यश चोपड़ा की सहमति से अमिताभ ने पूरा सीन 'एडलिब' करके दिया था. इस फ़िल्म के कुछ अंश 1954 में आई एलिया कज़ान की फ़िल्म 'ऑन द वॉटरफ़्रंट' से मिलते थे.
'मेरे पास माँ है'
'मदर इंडिया' में बुरा बेटा बिरजू अपनी माँ के हाथ मारा जाता है, जो कि उस फ़िल्म की मुख्य पात्र थी. 'दीवार' का मुख्य पात्र बेटा विजय है. उससे मतभेद हो जाने के बाद उसकी माँ और भाई दूसरे घर में जाकर रहने लगते हैं. विजय और रवि की मुलाकात एक ब्रिज के नीचे होती है. उसकी पृष्ठभूमि में अल्लामा इक़बाल का मशहूर गाना,' सारे जहाँ से अच्छा , हिंदोसिताँ हमारा' बज रहा होता है. विजय रवि से कहता है कि वो कोई दूसरा केस ले ले.
रवि कहता है कि वो अपने उसूलों के लिए दूसरा केस नहीं ले सकता. तब विजय वो मशहूर डायलॉग बोलता है, 'उफ़ तुम्हारे उसूल, तुम्हारे आदर्श ! तुम्हारे सारे उसूलों को गूँध कर एक वक़्त की रोटी नहीं बनाई जा सकती है रवि. क्या दिया है तुम्हारे उन आदर्शों ने ? एक चार पाँच सौ रुपए की पुलिस की नौकरी. एक किराए का क्वार्टर, एक ड्यूटी की जीप, दो जोड़ी ख़ाकी वर्दी. आज मेरे पास बिल्डिंग है, प्रॉपर्टी है, बैंक बैलेंस है, बंगला है, गाड़ी है, क्या है तुम्हारे पास ?
रवि का वो मशहूर जवाब आता है, 'मेरे पास माँ है.'
सलीम-जावेद की किस्मत पलटी
'दीवार' फ़िल्म में मंदिर वाले सीन की भी बहुत चर्चा हुई थी. जावेद भगवान शिव से रवि की नाराज़गी दिखाने वाले दृश्य को याद करते हुए कहते हैं, 'जब ये सीन फ़िल्माया जा रहा था तो हमारी अमिताभ बच्चन से बात हुई थी. हमें लगा कि इस दृश्य में उनके बोलने के ढ़ंग में कुछ ज़्यादा ही रूखापन है. लेकिन वो मेरी बात से पूरी तरह सहमत नहीं थे.
उन्होंने कहा, 'अगर में डायलॉग को धीमे स्वर मे बोलता हूँ तो उस सीन के दौरान मुझे कहीं न कहीं अपनी आवाज़ ऊँची करनी होगी. इसलिए मैंने तय किया कि मैं डायलॉग की डिलीवरी शुरू से ही ऊँची रखूँगा और धीरे धीरे उसे कम करता जाउँगा.' मैं समझता हूँ ये सोच काम कर गई. यहाँ अमिताभ पूरी तरह से सही थे.'
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इस सीन को करने के लिए अमिताभ बच्चन ने आइने के सामने काफ़ी अभ्यास किया था. अमिताभ ने जानबूझ कर इस सीन की डबिंग नहीं की थी, क्योंकि उनका मानना था कि डबिंग में वो उस रोल की भावनाओं को दोबारा नहीं ला पाएंगे और डबिंग से सीन का असर जाता रहेगा.
कहा जाता है कि इस फ़िल्म के बाद सलीम-जावेद ने अपनी फ़ीस 8 लाख रुपए कर दी थी. जो उस ज़माने में किसी कहानीकार के लिए सबसे बड़ा पारिश्रमिक था.
पहले जब सलीम-जावेद ने यश चोपड़ा को अपनी कहानी सुनाई थी तो उन्होंने उनसे मेहनताने के तौर पर 1 लाख रुपए माँगे थे जिसे उन्होंने देने से इंकार कर दिया था. 'ज़ंजीर' की सफलता के बाद उन्होंने अपना रेट बढ़ाकर 3 लाख कर दिया था जिसे यश चोपड़ा खुशी खुशी देने के लिए तैयार हो गए थे.
अगर 1973 में आई 'ज़ंजीर' ने अमिताभ को 'एंग्री यंग मैन' के रूप में खड़ा किया तो 'दीवार' ने उसे 'सेंटर स्टेज' पर ला बैठाया.
'दीवार' को उसके मज़बूत स्त्री चरित्रों के लिए भी याद किया जाएगा. जहाँ इस फ़िल्म में माँ की भूमिका निभाने वाली निरूपा राय अपने अपराधी बेटे को अस्वीकार कर देती है, गैंगस्टर विजय की गर्लफ़्रैंड अनीता खुलेआम शराब और सिगरेट पीती है, बल्कि गर्भवती भी हो जाती है.
अमिताभ ने लंबी कमीज़ को कमर में बाँधा
इस फ़िल्म में डॉक के सीन में अमिताभ बच्चन की अपनी कमीज़ बाँधने की भी एक दिलचस्प कहानी है.
जब उनको उस सीन के लिए एक कमीज़ पहनने को दी गई तो उन्होंने पाया कि वो कमीज़ ज़रूरत से ज़्यादा लंबी थी और उनके घुटने तक आ रही थी.
तब उन्होंने उसी कमीज़ को बाँध कर फ़िल्म की शूटिंग करने का फ़ैसला किया.
70 और 80 के दशक में 'दीवार' उन 13 फ़िल्मों में से एक थी जिसने पूरे भारत की हर टेरेटरी में 1 करोड़ से अधिक रुपए कमाए.
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इस फ़िल्म में नीतू सिंह शशि कपूर की प्रेमिका बनी हैं जबकि असल ज़िंदगी में वो उनके भतीजे ऋषि कपूर की पत्नी थीं.
'दीवार' को कई पुरस्कार मिले लेकिन अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ अभिनय करने के बावजूद अमिताभ बच्चन को फ़िल्मफ़ेयर ने सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार नहीं दिया.
उस साल फ़िल्मफ़ेयर ने फ़िल्म 'आँधी' के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार संजीव कुमार को दिया.
'दीवार' में अमिताभ बच्चन का रोल मशहूर स्मगलर हाजी मस्तान की ज़िंदगी से बहुत मिलता था. शूटिंग के दौरान उनकी ज़िंदगी को समझने के लिए अमिताभ ने हाजी मस्तान से कई बार मुलाकात की थी.
फ़िल्म में मदन पुरी का चरित्र हाजी मस्तान के प्रतिद्वंदी सुकूर नारायण बखिया की ज़िंदगी पर आधारित था.
इस फ़िल्म में शशि कपूर ने अमिताभ के बड़े भाई का रोल किया था. असल ज़िंदगी में शशि कपूर अमिताभ से चार साल बड़े थे.
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