परमवीर विक्रम बत्रा की आखिरी चिट्ठी, 'मैं पाकिस्तानियों से लड़ रहा हूं, मां-पिताजी का ख्याल रखना'
विक्रम बत्रा ने जब इस चोटी से रेडियो के जरिए अपना विजय उद्घोष ‘ये दिल मांगे मोर’ कहा तो सेना ही नहीं बल्कि पूरे भारत में उनका नाम छा गया।
शिमला। कारगिल विजय दिवस पर परमवीर कैप्टन विक्रम बत्रा को भला कौन भूल सकता है। उन्होंने कारगिल युद्ध के दौरान अपने अदम्य साहस और वीरता का परिचय देकर मातृभूमि की रक्षा के लिए सर्वोच्च बलिदान दिया था। कैप्टन विक्रम बत्रा के साहस, वीरता एवं बलिदान को आज भी याद किया जा रहा है। अपनी वीरता, जोश-जुनून, दिलेरी और नेतृत्व क्षमता से 24 साल की उम्र में ही सबको अपना दीवाना बना देने वाले इस वीर योद्धा को 15 अगस्त 1999 को वीरता के सबसे बड़े पुरस्कार परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। कारगिल युद्ध की वीरगाथा उनको याद किए बिना अधूरी ही रहेगी।
सेना का था जज्बा, ठुकरा दी थीं कई नौकरियां
हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले के पालमपुर से सटे बंदला में जीएल बत्रा व कांता बत्रा के घर 9 सितंबर, 1974 को पैदा हुए विक्रम बत्रा ने डीएवी कॉलेज चंडीगढ़ में विज्ञान विषय में स्नातक की पढ़ाई की और इस दौरान उन्होंने सेना में जाने का पूरा मन बना लिया और सीडीएस (सम्मलित रक्षा सेवा) की भी तैयारी शुरू कर दी। हालांकि विक्रम को इस दौरान हांगकांग में भारी वेतन में मर्चेन्ट नेवी में भी नौकरी मिल रही थी, लेकिन देश सेवा का सपना लिए विक्रम ने इस नौकरी को ठुकरा दिया। सेना में विज्ञान विषय में स्नातक करने के बाद विक्रम का चयन सीडीएस के जरिए सेना में हो गया। जुलाई 1996 में उन्होंने भारतीय सेना अकादमी देहरादून में प्रवेश लिया और उन्हें 6 दिसंबर 1997 को जम्मू के सोपोर जगह पर सेना की 13 जम्मू-कश्मीर राइफल्स में लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्ति मिली। उन्होंने 1999 में कमांडो ट्रेनिंग के साथ कई प्रशिक्षण भी लिए। 1 जून 1999 को उनकी टुकड़ी को कारगिल युद्ध में भेजा गया।
'पाकिस्तानियों से लड़ रहा हूं, मा-पिताजी का ख्याल रखना'
हम्प व राकी नाब स्थानों को जीतने के बाद उसी समय विक्रम को कैप्टन बना दिया गया। इसके बाद श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर सबसे महत्त्वपूर्ण 5,140 चोटी को पाक सेना से मुक्त करवाने का जिम्मा भी कैप्टन विक्रम बत्रा को दिया गया। बेहद दुर्गम क्षेत्र होने के बावजूद विक्रम बत्रा ने अपने साथियों के साथ 20 जून 1999 को सुबह तीन बजकर 30 मिनट पर इस चोटी को अपने कब्जे में ले लिया। इससे पहले 16 जून को कैप्टन ने अपने जुड़वा भाई विशाल को द्रास सेक्टर से चिट्ठी में लिखा- प्रिय कुशु, मैं पाकिस्तानियों से लड़ रहा हूं, जिंदगी खतरे में है। यहां कुछ भी हो सकता है। गोलियां चल रही हैं। मेरी बटालियन के एक अफसर आज शहीद हो गए। नार्दन कमांड में सभी की छुट्टी कैंसिल हो गई है। पता नहीं कब वापिस आऊंगा। तुम मां और पिताजी का ख्याल रखना यहां कुछ भी हो सकता है।
जब इस शेरशाह ने कहा 'ये दिल मांगे मोर...'
शेरशाह के नाम से प्रसिद्ध अदम्य साहस और पराक्रम की प्रतिमूर्ति विक्रम बत्रा ने जब इस चोटी से रेडियो के जरिए अपना विजय उद्घोष ‘ये दिल मांगे मोर' कहा तो सेना ही नहीं बल्कि पूरे भारत में उनका नाम छा गया। इसी दौरान विक्रम के कोड नाम शेरशाह के साथ ही उन्हें ‘कारगिल के शेर' की भी संज्ञा दे दी गई। अगले दिन चोटी 5,140 में भारतीय झंडे के साथ विक्रम बत्रा और उनकी टीम का फोटो भारतीय मीडिया में आया तो हर कोई उनका दीवाना हो उठा। इसके बाद सेना ने चोटी 4,875 को भी कब्जे में लेने का अभियान शुरू कर दिया। इसकी भी बागडोर विक्रम को सौंपी गई। उन्होंने जान की परवाह न करते हुए लेफ्टिनेंट अनुज नैयर के साथ कई पाकिस्तानी सैनिकों को मौत के घाट उतारा।
ऐसे ही नहीं परमवीर हुए विक्रम बत्रा!
वीरगति को प्राप्त होने से पहले कैप्टन बत्रा ने बताया था कि कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टीनेंट कर्नल जोशी जो रेडियो सेट पर थे, उनके नेतृत्व में उनकी ब्रेवो कंपनी ने टारगेट को फतेह करने के लिए प्रयास किया तो मेरे साथी चाहते थे कि दुशमनों के और बंकर नेस्तनाबूद किए जाएं। लिहाजा वहीं से मैंने कहा कि दिल मांगे मोर। फिर उसी जुनून के साथ हमनें चोटी फतेह कर ली। कैप्टन के पिता जीएल बत्रा कहते हैं कि उनके बेटे के कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टीनेंट कर्नल वायके जोशी ने विक्रम को शेरशाह उपनाम से नवाजा था। अंतिम समय मिशन लगभग पूरा हो चुका था जब कैप्टन अपने कनिष्ठ अधिकारी लेफ्टीनेंट नवीन को बचाने के लिए लपके। लड़ाई के दौरान एक विस्फोट में लेफ्टीनेंट नवीन के दोनों पैर बुरी तरह जख्मी हो गए थे। जब कैप्टन बत्रा लेफ्टीनेंट को बचाने के लिए पीछे घसीट रहे थे तब उनकी छाती में गोली लगी और मां भारती का ये लाडला जय माता दी कहते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ।
पिता ने दिया वीरों के सम्मान का सुझाव!
अपनी वीरता, जोश-जुनून, दिलेरी और नेतृत्व क्षमता से 24 साल की उम्र में ही सबको अपना दीवाना बना देने वाले इस वीर योद्धा को 15 अगस्त 1999 को वीरता के सबसे बड़े पुरस्कार परमवीर चक्र से सम्मानित गया जो उनके पिता जीएल बत्रा ने प्राप्त किया। जीएल बत्रा बताते हैं कि जिस उम्र में युवाओं को अच्छे-बुरे की पहचान भी नहीं होती उस उम्र में यानी 18 साल की उम्र में विक्रम ने नेत्र दान करने का निर्णय ले लिया था। उन्हें अपने बेटे पर गर्व है। पालमपुर में उनके परिवार को शहादत के बाद पेट्रोल पंप मिला है। वहीं प्रदेश सरकार ने उनकी याद में परीधिगृह के पास प्रतिमा स्थापित की है और पालमपुर के डिग्री कॉलेज को भी शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा कॉलेज नाम दिया गया है। वहीं पालमपुर में शहीद बत्रा मार्ग भी है। विक्रम के पिता जीएल बत्रा कहते हैं कि सरकार परमवीर चक्र विजेताओं के लिए कोई सम्मानजनक योजना नहीं बना पाई है। उनका मानना है कि जिस तरह खिलाड़ियों को सम्मान दिया जता है, वैसा सम्मान परमवीर चक्र विजेताओं को मिलना चाहिए। वहीं देश भर के स्कूल कॉलेज के स्लेबस में परमवीर चक्र विजेताओं का जीवन वृतांत भी लाया जाना चाहिए।