भारतीय सेना के करीबी, पर बेहद गरीब कश्मीरी गुज्जर
हरियाणा-राजस्थान के गुज्जर जब आंदोलन करने पर उतारु होते हैं, तो दिल्ली से लेकर पंजाब और कश्मीर तक की ट्रेने रुक जाती हैं। सड़कें जाम पड़ जाती हैं और बहुत कुछ ऐसा होता है, जिससे आम जनता परेशान हो जाती है। प्रदर्शनों का कारण कोई भी हो, लेकिन आम जनता एक ही बात कहती है, "भाई गुज्जरों से मत उलझो..."। लेकिन क्या आप जानते हैं एक और गुज्जर समुदाय है, जो हिमालय की गोद में बैठा है।
जी हां हम बात कर रहे हैं जम्मू-कश्मीर के गुज्जरों और उनके साथ बकरवालों की, जिनकी कुल संख्या 2 लाख से ज्यादा है। इनका बसेरा कभी उत्तरपश्चिमी हिमालय की ऊंची चोटियों में होता है, तो कभी घाटी की हसीन वादियों के बीच और कभी जम्मू व आस-पास के जिलों में। ये रमता जोगी की तरह होते हैं।
ये कहां रहते हैं, यह निर्भर करता है मौसम पर। गर्मी के अधिकांश मौसम में अपना बसेरा ऊंची पीर पंजाल पहाड़ियों के प्राकृतिक हरे-भरे सुरम्य पहाड़ी मैदानों और खूबसूरत पर्वतमालाओं के बीच डालते हैं। हालांकि दूर-दराज और दुर्गम क्षेत्रों में रहने से उनका सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक सशक्तिकरण प्रभावित होता है और यह उन्हें पिछड़ेपन की ओर भी ले जाता है।
इनसे जुड़ी खास बातें इस प्रकार हैं-
- मौसमी प्रवास के दौरान उत्तरपश्चिमी ऊंची चोटियों से ये पैदल ही जम्मू क्षेत्र में आते हैं।
- ये जब भी चलते हैं, तब उनके साथ उनके पशुओं का झुंड रहता है।
- कश्मीर के राजमार्गो और सड़कों पर पैदल चलते हुए देखना एक आम नजारा है।
- इनका प्रवास अनंतनाग, उधमपुर, डोडा, राजौरी और पुंछ के सीमावर्ती जिलों में केन्द्रित रहता है।
- गुज्जरों और बकरवालों के बीच आपसी विवाह संबंध आम हैं।
- बकरवाल और गुज्जर अपनी स्वयं की समाजिक, सांस्कृतिक और भाषाई पहचान लिए हुए हैं।
- भूमिहीन और बेघर होने के कारण ये समाज में ऊपर नहीं उठ पा रहे हैं।
- ये लोग खूंखार पहाड़ी कुत्ते पालते हैं, जो इनके भेड़-बकरियों को चराने में मदद करते हैं।
ऐतिहासिक तथ्य
ऐसा माना जाता है कि मूल रूप से गुज्जर और बकरवाल राजपूत हैं, जो विभिन्न कारणों से गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र से कश्मीर में चले गये थे। प्राचीन कश्मीर के इतिहास कल्हाना में, राजतरंगणिनी में इन लोगों का 9वीं और 10वीं शताब्दी में कश्मीर की सीमा पर रहने का उल्लेख मिलता है।
कहा जाता है कि कुछ शताब्दी पहले उन्होंने मुस्लिम धर्म को स्वीकार कर लिया और फिर वे दो अलग-अलग सम्प्रदायों गुज्जर और बकरवाल में विभाजित हो गए। गुज्जरों के पुंछ में उच्च अधिकारी बनने से पूर्व 17वीं शताब्दी तक वे गुमनामी में रहे। इन अधिकारियों में से एक राह-उल्लाह-खान ने इस क्षेत्र में 18वीं शताब्दी में गुज्जरों के सांगो राजवंष की स्थापना की लेकिन यह भी अल्पकालिक रही।
पं. जवाहरलाल नेहरू ने दक्षिण कष्मीर के पहलगांव में बकरवालों के एक झुंड को देखकर उन्हें जंगल का राजा के रूप में वर्णित किया था।
कश्मीरी गुज्जरों की जनसंख्या
- गुज्जर और बकरवाल जम्मू और कश्मीर में तीसरा सबसे बड़ा जातीय समूह है।
- ये समुदाय राज्य की 20 प्रतिषत से ज्यादा जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करता है।
- 2001 में जनगणना के दौरान इनकी संख्या 7,63,806 थी।
- जनसंख्या के आधार पर ये सबसे अधिक आबादी वाली अनुसूचित जनजाति है।
जीवन शैली
- अधिकांश गुज्जर भैंसों के चरवाहे हैं। उनमें से कुछ की पहाड़ों की तलहटी में कुछ भूमि भी है।
- बहुतों के ऊंची पहाड़ियों पर लकड़ी के लठ्ठों से बने बैरक टाईप के घर भी हैं जिन्हें धोक्स कहा जाता है।
- बकरवाल भी ऐसी ही दिनचर्या के साथ आमतौर पर अपनी आजीविका के लिए भेड़ और बकरियों पर निर्भर हैं।
- ये लोग घोड़ों पर अपने साजो-सामान को लिए खानाबदोशी का जीवन जीते हैं।
इनके लिये क्या कर रही है सरकार
केन्द्र सरकार ने 1991 में जम्मू और कश्मीर के गुज्जरों और बकरवालों को अनुसूचित जनजाति के रूप में अधिसूचित किया। आरक्षण के विशेष लाभ के साथ समान अवसर मिलने से उन्हें शैक्षिक और आर्थिक रूप से सशक्त करने में काफी मदद मिली ताकि वे अपने आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक पिछड़ेपन से मुकाबला कर सकें।
सरकार इन खानाबदोश समुदायों को आरक्षण का लाभ उठाने में समर्थ बनाने हेतु उनके बच्चों को ज्ञान से परिपूर्ण करने के लिए शिक्षा दिलाने की पहल कर चुकी है। गुज्जरों और बकरवालों के लिए 12वीं कक्षा तक नि:शुल्क आवास और सुविधाओं से युक्त हॉस्टल जिला स्तर पर प्रदान कर चुकी है। बहुत सी सुविधाएं पूर्ण होने को हैं।
गुज्जर और बकरवाल छात्र शैक्षिक रूप से पिछड़े इलाकों में स्थापित लड़कियों के छात्रावास और मॉडल विद्यालयों से भी लाभ उठा रहे हैं। केन्द्र द्वारा अनुसूचित जाति और जनजाति के छात्राओं को 3000 रुपए की छात्रवृत्ति भी दी जाती है। लेकिन रोजगार और पेशेवर संस्थानों में आरक्षण का लाभ वे तभी उठा सकते हैं जब वे शैक्षिक रूप से समर्थ हों।
दो साल पहले इन्हें अस्थाई राशनकार्ड भी दिया जाने लगा, जिससे राज्य में कहीं से भी सरकारी दरों पर राशन प्राप्त कर सकें।
गोजरी भाषा बोलते हैं ये लोग
ये लोग गोजरी भाषा बोलते हैं। यह भाषा फिलहाल इन्हीं लोगों तक सीमित है। सरकार इस भाषा को बढ़ावा देने की योजना बना रही है। गोजरी को 12वीं कक्षा तक के विद्यालयों के पाठयक्रमों में शामिल कर लिया गया है।
जम्मू और कश्मीर सांस्कृतिक अकादमी और रेडियो कश्मीर के गोजरी कार्यक्रमों के अतिरिक्त, गुर्जर देश चैरिटेबल ट्रस्ट, जनजातीय फाउंडेशन, सांस्कृतिक विरासत के लिए गुज्जर केन्द्र और अन्य गुज्जर संगठनों जैसे गैर-सरकारी संगठनों के दीर्घकालीन योगदान ने जम्मू और कश्मीर में गुज्जरों की जातीय और भाषाई पहचान के संरक्षण और प्रोत्साहन में अहम योगदान दिया है।
एलओसी के उस पार भी हैं गुज्जर
आपको जानकर हैरानी होगी कि एलओसी के उस पार यानि पीओके में भी गुज्जर व बकरवाल समुदाय के लोग रहते हैं। लेकिन वहां वे पूरी तरह उपेक्षित हैं। नवम्बर, 2005 से पुंछ और उरी सैक्टरों में लोगों से लोगों के संपर्क के लिए नियंत्रण रेखा खोलने के बाद, पीओके में रहने वाले गुज्जर समुदाय के सदस्यों की भारतीय क्षेत्र में रह रहे अपने परिजनों से मिलने के लिए हुई यात्रा के बाद यह तथ्य सामने आया।
पीओके के त्रार- खाल से आये आगन्तुकों में से एक अब्दुल गनी ने बताया कि जम्मू और कष्मीर में सरकारी और राजनीतिक दलों में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य कर रहे अपने परिजनों को देखकर मैं बहुत खुश हूं। त्रार खाल से ही एक अन्य गुज्जर चौधरी मौहम्मद शरीफ ने कहा कि हमारी संस्कृति के प्रतीक जैसे लोक गीत, लोक संगीत, परम्पराएं और सदियों पुरानी हमारी रस्में हमारी तरह खो चुकी हैं जबकि यह जम्मू और कश्मीर में दिखाई पड़ती हैं।
ये जानकर गर्व होगा आपको
- गुज्जर और बकरवाल बहुत बहादुर और साहसी होते हैं।
- जैसा कि हमने कहा कि ये राजपूतों के वंशज हैं, लिहाजा देश की सेवा इनकी रग-रग में भरी हुई है।
- ये घाटी में तैनात भारतीय सेना के खुफिया अधिकारियों की मदद में हमेशा तत्पर रहते हैं।
- 1965 में, कश्मीर घाटी में तंगमार्ग क्षेत्र के निकट तोसमैदान इलाके का एक गुज्जर मौ. दीन पहला व्यक्ति था, जिसने अधिकारियों को पाकिस्तानी घुसपैठियों की उपस्थिति की जानकारी दी थी।
- भारतीय सेना ने बाद में मौ. दीन को सम्मानित भी किया था।
- कहा जाता है कि 1965 और 1971 के युध्दों में भी गुज्जरों ने पाकिस्तान से जंग लड़ी थी।
- वर्तमान में तमाम गुज्जर सेना के लिये जासूस का काम करते हैं और आतंकवादियों के ठिकानों से जुड़ी जानकारी जुटाने में सेना के अफसरों की मदद करते हैं।
क्या कहते हैं कश्मीर के एक्सपर्ट
कश्मीर मामलों के एक्सपर्ट चौधरी देवी लाल विश्वविद्यालय के रेडियो सिरसा के निदेशक विरेंद्र सिंह चौहान बताते हैं कि भले ही गुज्जर और बकरवाल भले ही मुस्लिम धर्म के हैं, लेकिन हिंदुओं से इनका जुड़ाव बहुत अच्छा है। इनके लिये जाति-धर्म की दीवार कोई मायने नहीं रखती। ये एक हिंदुस्तानी की तरह सभी से गर्मजोशी से मिलते हैं। हां हरियाणा और राजस्थान के गुज्जरों से इनका खास लगाव रहता है।
ये घाटी के वो कश्मीरी हैं, जो लोकतांत्रिक ढांचे पर बहुत आस्था रखते हैं। सरकार को इनके उत्थान के लिये कुछ बड़ा सोचना चाहिये।
नोट- इस लेख में कई तथ्य स्वतंत्र पत्रकार एमएल धर द्वारा पीआईबी के लिये लिखे गये लेख से लिये गये हैं।