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'बंबई में का बा' के सागर को ऐसे मिला किनारा

'बम्बई में का बा' भोजपुरी रैप सॉन्ग सुपरहिट है और चार दिन में यूट्यूब पर इसे 40 लाख से ज़्यादा बार देखा गया है.

By अमरेश द्विवेदी
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बंबई में का बा के सागर को ऐसे मिला किनारा

'बम्बई में का बा' भोजपुरी रैप सॉन्ग सुपरहिट है और चार दिन में यूट्यूब पर इसे 40 लाख से ज़्यादा बार देखा गया है. इस गाने को गाने वाले मशहूर अभिनेता मनोज बाजपेयी और गाने को बनाने वाले निर्देशक अनुभव सिन्हा की ख़ूब चर्चा हो रही है और साथ ही चर्चा के केंद्र में आ गए हैं इस गीत को लिखने वाले डॉक्टर सागर.

ये डॉक्टर सागर कौन हैं. उनकी पृष्ठभूमि क्या है. उनकी रचना यात्रा कैसी रही है. आख़िर उनके दिल में प्रवासी मज़दूरों के लिए इतना दर्द कैसे पैदा हुआ. चलिए सागर की ज़िंदगी के बंद पन्नों को थोड़ा पलटते हैं.

बंबई में का बा के सागर को ऐसे मिला किनारा

दृश्य 1

स्थान - जेएयू का गोदावरी ढाबा

एक बार जेएनएयू के एमए हिंदी के कुछ छात्र गोदावरी ढाबे पर चाय पीने जा रहे थे. सागर भी उनमें शामिल थे. चाय का प्रस्ताव दूसरे लड़के ने दिया था और वो सबको चाय पिलाने वाला था.

जब लड़के डिपार्टमेंट से पैदल चलकर गोदावरी ढाबे पर पहुँचे और चाय का ऑर्डर देनेवाले थे, तो सागर ने कहा था- अगर मैं चाय ना पिऊँ तो चलेगा. पूछा गया कि क्यों आजकल चाय नहीं पी रहे क्या?

"अरे पैसे हों तब तो चाय पीएँ. हालत बहुत ख़राब है भाई लोग. वैसे मेरी चाय पर जो पैसे ख़र्च होनेवाले हैं, वो अगर मुझे दे दिए जाएँ, तो शायद मेरे लिए वो ज़्यादा अच्छा होगा."

लड़के हैरान थे. पर सबने हँसकर यही कहा था कि सागर भी फैलने का कोई मौक़ा छोड़ता नहीं है. उन्हें चाय पिलाई गई थी और दोस्तों ने सोचा था कि पैसे से भी उनकी कुछ मदद की जानी चाहिए.

सागर से मेरी मुलाक़ात जेएनयू में हुई थी. वो पहले व्यक्ति थे, जिनसे मैं जेएनयू के भारतीय भाषा केंद्र में मिला था. हमारी मुलाक़ात ठीक डिपार्टमेंट के गेट पर हुई थी. तब ये भी नहीं मालूम था कि पहली क्लास कहाँ होनी है. मैं भी तमाम जिज्ञासाएँ और कौतुहल लिए वहाँ पहुँचा था. हालाँकि दिल्ली में मैं कई सालों से रह रहा था. लेकिन सागर की आंखें अलग थीं.

एक दुबला पतला सा, छोटे क़द और सांवले रंग वाला सागर. बाल घुंघराले से. चेहरा लगभग डरा हुआ. भारत के सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के अनजाने, अपरिचित से माहौल में ग्रामीण पृष्ठभूमि से आनेवाला सागर.

बातचीत के लहजे में भोजपुरियापन भरपूर. हम दोनों हिंदी साहित्य में एमए करने जेएनयू पहुँचे थे. कक्षा में 21 विद्यार्थी थे. लोग आपस में जल्दी ही घुलमिल गए थे. लेकिन सागर उस माहौल में सहज नहीं थे. दो-चार लोगों को छोड़कर सहज तो कोई भी नहीं था लेकिन थोड़े समय में जब परिचय संसार बढ़ा तो आपस में सबकी बातें होने लगी थीं.

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लेकिन सागर काफ़ी दिनों तक कक्षा की मुख्यधारा के छात्रों से अलग-थलग ही रहे. हालांकि क्लास में होनेवाली बौद्धिक चर्चा में वो खुलकर हिस्सा लेता था. टीचर भी उनसे और उनके सवालों से ख़ुश रहा करते थे. समय बीतता गया. एमए के बाद एमफ़िल और फिर पीएचडी. लंबा साथ रहा हमारा.

बातचीत के क्रम में सागर ने बताया था कि वो भोजपुरी गीत लिखते हैं और बस कविता करना चाहते हैं. हम दोस्त अक्सर बातें करते कि भोजपुरी गीत लिखने से कैसे ज़िंदगी कटेगी इसकी. क्लास के कई छात्र यूपीएससी की परीक्षाएँ देते थे. लेकिन सागर ने आईएएस बनने के राष्ट्रीय फ़ैशन का हिस्सा नहीं बनना चाहा था और शुरू में ही हाथ खड़े कर दिए थे. उनका कहना था कि उनसे ना हो पाएगा.

उनकी आर्थिक हालत अच्छी नहीं थी. कह सकते हैं बहुत ख़राब थी. सबलोग उन्हें गाना लिखने को प्रेरित तो करते थे, लेकिन अपनी ज़िंदगी में कुछ कर पाएँगे, इसके बारे में सबकी राय संशयों से भरी थी. टीचर भी कहते कि सागर गाने लिखा करो. लेकिन उन्होंने भी नहीं सोचा था कि ये सहमा-सहमा सा लड़का कभी चकाचौंध से भरी मुंबई की फ़िल्म नगरी में चर्चा का केंद्र बन जाएगा या अपना करियर बना पाएगा.

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सब लोग अपनी-अपनी ज़िंदगी बनाने में जुटे थे. कोई नेट की परीक्षा पास कर लेक्चरर बनना चाह रहा था, तो कोई प्रशासक बनने के ख़्वाब देख रहा था. सागर अक्सर एक-दो अपने जैसे कवि हृदय लड़कों के साथ जेएनयू कैंपस में भटकते नज़र आते. कभी गंगा ढाबे पर तो कभी गोदावरी ढाबे पर. कुछ भोजपुरी बैकग्राउंड वाले लड़के उन्हें रोककर उनके नए लिखे गीतों के बारे में पूछ लेते और वो वहीं सुनाने लगते.

उन दिनों ज़िंदगी के हरे-हरे सपने देखने वाले हमारे ज़्यादातर दोस्तों को सागर में कोई उम्मीद नज़र नहीं आती थी. कई लोग तो उनसे मिलकर इसलिए कट लेते थे कि कहीं सागर पैसे ना मांग लें. और ये शंका निराधार भी नहीं थी.

एक दिन सागर से लाइब्रेरी कैंटीन के पास मुलाक़ात हुई, तो पता चला कि वो दो महीने से अपने कमरे में नहीं रहते. कारण...? उनके हॉस्टल के कमरे में डबल लॉक का लगना. ये डबल लॉक हॉस्टल एडमिनिस्ट्रेशन की तरफ़ से तब लगा करती थी, जब कोई हॉस्टल का मेस बिल नहीं चुका पाता था.

ऐसे में पैसे का इंतज़ाम होने तक सागर हॉस्टल के अपने दूसरे दोस्तों के कमरे में सो जाया करते थे. जब आपकी माली हालत ऐसी हो, तो पूरी दुनिया जानती है कि ज़्यादातर लोग आपके साये से भी बचकर निकलने की कोशिश करते हैं. सागर के मामले में भी ऐसा ही था.

एक बार मैंने पूछा था - आगे क्या करने का इरादा है? सागर का जवाब था - पता नहीं. कुछ सोच नहीं पाता. कविता लिखने के अलावा तो कुछ आता भी नहीं है. लगता नहीं कि कोई परीक्षा पास कर पाऊंगा. नहीं मालूम कि आगे मेरा क्या होगा. अगर कुछ नहीं हुआ तो क्या करूँगा, क्या खाऊँगा, कहाँ रहूँगा. जेएनयू में तो काम चल जा रहा है. आगे क्या होगा सोचकर डर लगता है.

सबकुछ अच्छा ही होगा - ऐसा मैंने कहा था. बाक़ी के लोग भी ऐसा ही कहा करते थे.

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जेएनयू की मेन लाइब्रेरी के पीछे एक छोटी सी लाइब्रेरी है, जिसे धौलपुर हाउस कहा जाता है. यूपीएससी की पढ़ाई करने वाले छात्र अपनी किताबें लेकर वहीं पढ़ा करते हैं, क्योंकि मेन लाइब्रेरी में आप अपनी किताबें नहीं ले जा सकते. पीछे लाइब्रेरी कैंटीन है जहाँ घंटा, दो घंटा पढ़ाई करने के बाद लोग टी ब्रेक के लिए जाया करते थे. एक दिन वहीं लाइब्रेरी कैंटीन के पास सागर से मुलाक़ात हो गई.

दृश्य - 2

मैंने पूछा, आजकल क्या चल रहा है सागर. सागर ने कहा - टॉल्सटॉय का लिखा उपन्यास 'वॉर एंड पीस' पढ़ रहा हूँ. मैंने पूछा कैसी है, मज़ा आ रहा है?

सागर का जवाब था- मज़े की तो मत पूछिए, डर लगता है कि कहीं ख़त्म ना हो जाए. ख़त्म हो जाएगा तो क्या करूँगा. इतना बेहतरीन उपन्यास है कि लगता है कि इसे ही पढ़ता रह जाऊँ.

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पाठकों को बता दूं कि 'वॉर एंड पीस' क़रीब 15 सौ पेज का उपन्यास है और अच्छे-अच्छे पढ़ाकू लोग भी उसे पढ़ना शुरू करने से पहले कई बार सोचते हैं. कइयों के लिए समय की कमी वजह होती है. लेकिन सागर के पास समय की कोई कमी नहीं थी. वो तो उसमें डूब चुके थे और उपन्यास के किरदार, उसके प्लॉट और उसमें छिपी संवेदना का भरपूर आनंद उठा रहे थे.

मैं कम से कम ऐसा जवाब सुनने के लिए तैयार नहीं था. लेकिन शायद सागर को दूसरों की प्रतिक्रिया से कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ता था. वो साहित्य की दुनिया को पूरी तरह समर्पित था.

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दृश्य - 3

एक दिन उन्होंने बताया कि, "मेस का बिल 7600 रुपए हो गया है. समझ में नहीं आ रहा क्या करूँ. मेस बिल माफ़ करने के लिए डीन के दफ़्तर में मैंने जो अर्ज़ी दी है, उसे जीत सिंह (डीन दफ़्तर में अफ़सर) ने मेरे सामने ही फेंक दिया. अब नहीं लगता कि जेएनयू में आगे कॉन्टीन्यू कर पाऊँगा."

मैंने कहा था कि कुछ न कुछ हो जाएगा सागर. मैं भी देखता हूँ क्या कर सकता हूँ. ऐसा कह कर मैं आगे बढ़ गया था.

दो दिन बाद वो बहुत घबराया हुआ मिला. बताया ''वीसी ने बुलवाया है. लगता है जेएनयू में मेरे दिन अब पूरे हो गए हैं. ज़रूर मेस बिल की वजह से यूनिवर्सिटी से नाम काटने के लिए बुलवाया होगा. मेरे तो हाथ-पाँव फूल रहे हैं. भाई ग़रीबी से बड़ा अभिशाप और कुछ नहीं. मैं तो चुपचाप साहित्य की अपनी पढ़ाई पूरी करना चाहता हूँ, पर रास्ते में इतनी रुकावटें आती जा रही हैं कि क्या बताऊँ."

मैंने कहा था कि जाकर मिल तो आओ क्या पता किसी और वजह से बुलाया हो. "अरे वीसी को मुझसे और क्या काम हो सकता है. मैं कौन सा उसका दोस्त हूँ. मेस बिल के मसले के अलावा वीसी को मुझसे और क्या काम हो सकता है."

मैंने कहा था - अरे जाकर मिलो तो पहले. कयास लगाने से क्या फ़ायदा. "क्या मुँह लेकर जाऊँ."

अब सुनिए वीसी के दफ़्तर में क्या हुआ.

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जैसे ही सागर वहाँ पहुँचे, वीसी गोपाल कृष्ण चड्ढा ने कहा - "आइए सागर साहब बैठिए-बैठिए."

सागर की हालत ख़राब. पहले से डरा-सहमा चेहरा और सूख गया.

"क्या लेंगे चाय, कॉफ़ी, बिस्किट?"

डीन ऑफ़िस वाले जीत सिंह वहीं खड़े थे. वीसी साहब ने आदेश दिया कि सागर साहब के लिए चाय-कॉफ़ी का जल्दी इंतज़ाम कीजिए. सागर को समझ में नहीं आ रहा था कि ये आख़िर हो क्या रहा है.

"नहीं सर मैं ऐसे ही ठीक हूँ. किसलिए बुलाया है आपने मुझे सर?"

"अरे भई केदारनाथ जी को आपने कौन सी कविता सुना दी. वो तो आपकी तारीफ़ करते थक नहीं रहे थे. हमें भी तो बताइए?"

सागर की जान में जान आई थी कि मेस बिल की वजह से उसे शायद नहीं बुलाया गया है. वीसी साहब ने भोजपुरी ना समझते हुए भी अनुवाद के सहारे वो कविता सुनी और बेहद ख़ुश हुए. बोले, "सागर आप बहुत अच्छा सोचते और लिखते हैं. काफ़ी संभावनाएँ हैं आपमें. कभी कोई ज़रूरत हो तो ज़रूर बताइएगा."

सागर ने कहा था, "सर और कोई तो ज़रूरत नहीं, पर मेस बिल की वजह से नोटिस पर नोटिस मिल रहा है."

वीसी ने तुरंत अपने सहायक को बुलाकर आदेश दिया कि 7600 रुपए का चेक झेलम मेस में भिजवाया जाए. साथ ही ये भी कहा कि आप झेलम हॉस्टल में क्यों रहते हैं. वीसी बंगले में आकर रहिए. फिर तो मेस बिल की कोई समस्या भी नहीं रहेगी.

वीसी के दफ़्तर से निकल कर सागर ने चैन की साँस ली थी और फिर ये किस्सा दोस्तों को मज़े ले लेकर सुनाया.

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यूँ ही देखते-देखते जेएनयू में नौ साल बीत गए थे. सागर ने ख़ूब जमकर सिर्फ़ लिटरेचर पढ़ा और लिखा. जिन्होंने हिंदी के ज़रिए करियर बनाने कोशिश की थी, उनमें से कोई लेक्चरर हो गया तो कोई प्रशासक.

लेकिन कहते हैं ना जिस राह में भटकन होती है, उसकी भी कोई न कोई तो मंज़िल होती ही है.

एक दिन मैं अपने दोस्तों से मिलने गंगा ढाबा पहुंचा तो देखा कि सागर कार से उतर रहे हैं. उन्होंने बताया कि "फ़्लाइट से मुंबई गया था एक गाने की रिकॉर्डिंग के लिए. मेरा पहला गाना श्रेया घोषाल की आवाज़ में रिकॉर्ड हुआ है. शानदार फ़्लैट में रहा. एक कार दे दी गई थी मुंबई घूमने के लिए. रिकॉर्डिंग के बाद पैसे भी अच्छे मिले."

मैंने मुस्कुरा कर कहा था - "लगता है अब तुमने सही रास्ता पकड़ लिया है."

सागर ने कहा था- हाँ, अब मैंने तय कर लिया है कि फ़िल्मों के लिए गाने लिखूंगा, मुंबई में ही स्ट्रगल करूंगा. वहीं शिफ़्ट हो रहा हूँ.

सागर को ये मुंबई वाला ब्रेक आज के राजनेता अशोक तँवर ने दिलवाया था. वो उन दिनों यूथ कांग्रेस के बड़े नेता हुआ करते थे. उन्होंने उभरते संगीतकार विपिन पटवा के पास फोन कर सागर को काम दिलवाया था. सागर की ज़िंदगी में ये बड़ा टर्निंग प्वाइंट था.

उसके बाद गाहे बगाहे सागर से फ़ोन पर बात होती रही थी. वो बताते थे कि बॉलीवुड में काम मिलना और सफल होना इतना आसान नहीं. काम तो मिल रहा है, लेकिन उतना नहीं कि आराम से गुज़र-बसर हो जाए जाए.

सागर कहते थे "यहाँ काम करने के लिए जिस अंग्रेज़ी वाले एटीट्यूड की ज़रूरत है, वो मुझमें नही इसलिए दिक़्क़त होती है. जेएनयू से पीएचडी होने के कारण भी लोग मुझे गंभीर साहित्य लेखक मानकर एंटरटेन नहीं करते. हालांकि सुधीर मिश्रा जैसे लोग भी हैं, जिन्होंने मेरी प्रतिभा को समझा और काम दिया."

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सागर के फ़िल्मी सफ़र के कुछ साल बीतने के बाद एक बार मैंने मुंबई पहुँचकर उन्हें फ़ोन किया. उन्होंने ज़िद की कि मैं उससे मिलने ज़रूर आऊँ. मैं समय निकालकर उनके घर पहुँचा. अंधेरी में कोई जगह थी. जब मैं उनके घर पहुँचा, तो देखा कि चार कमरे का फ़्लैट है, जिसमें 10-12 लोग रहते हैं. बहुत दिनों के बाद मिल रहे थे. बहुत अच्छा लग रहा था.

थोड़ी देर के बाद जब बाकी लोग अपने-अपने कमरे में चले गए तो सागर ने बताया था कि ये सभी लोग स्ट्रगलर हैं. फ़िल्मी दुनिया में अपना करियर बनाना चाहते हैं. कोई एक्टिंग करना चाह रहा है, तो कोई डायरेक्टर बनने की तमन्ना रखता है.

सागर ने स्ट्रगल करनेवाले लोगों के लिए अपना दरवाज़ा खोल दिया था. लोग वहाँ रहते, वहीं खाते-पीते. कमाते तो कुछ पैसे दे देते. नहीं तो सारा ख़र्च सागर ही उठाते थे. मैं जेएनयू के उन पुराने दिनों की यादों में पहुँच गया था, जब सागर दूसरों के कमरों में रातें गुज़ारा करते थे, क्योंकि पैसे नहीं होते थे. आज वो अपने जैसे तमाम सागरों का किनारा बन गए हैं.

उत्तर प्रदेश में बलिया के बेहद पिछड़े गाँव ककड़ी के सागर का बचपन संघर्षों की अंतहीन दास्तान है. पिता हरियाणा में कहीं मज़दूरी करते थे. परिवार में दूर-दूर तक कोई पढ़ा लिखा नहीं था. पिता से लंबे-लंबे अंतराल के बाद मुलाक़ात होती.

बचपन ग़रीबी, जहालत और मुश्किलों में गुज़रा. दादा-दादी के साथ रहते थे. सागर बताते हैं कि उनके भोजपुरी गीतों में आनेवाले 90 फ़ीसदी शब्द उनकी दादी के सुनाए गीतों के हैं. दादी उन्हें कजरी, सोहर, झूमर, चैता, जंतसार विधा वाले गीत सुनाया करती थीं.

सागर बताते हैं कि वो गाँव के स्कूल में तो जाते थे, लेकिन वहाँ भी भोजपुरी के गीत लिखने में जुटे रहते. खेतों में काम करते, धान की रोपाई करते. दादा के साथ बर्तन बनाते. दादी के काम में हाथ बँटाते.

बंबई में का बा के सागर को ऐसे मिला किनारा

छठी कक्षा में अंग्रेज़ी के टीचर सत्यदेव पांडे को वो अपना पहला गुरु मानते हैं. जब उन्होंने पहली बार सागर की कविता सुनी, तो उसमें व्यक्त भावों से सराबोर हो गए और कहा था कि तुम एक दिन बहुत बड़े आदमी बनोगे.

आठवीं कक्षा के बाद पैसे की तंगी की वजह से दादा ने एक क्लीनिक में कंपाउंडर बना दिया. वहाँ भी ख़ाली समय में गाना लिखने का काम करते. एक दिन डॉक्टर ने जब ये देखा, तो डाँट लगाई कि तुमने क्लीनिक को ड्रामा सेंटर बना दिया है. पढ़ाई छूट सी गई थी. केवल स्वाध्याय से काम चल रहा था. जो भी किताब मिल जाती सागर पढ़ डालते.

ऐसे ही बिना किसी राह के भटकती ज़िंदगी में उन्हीं दिनों सागर ने बलिया के ग्रामीण बैंक में मैनेजर रहे अशोक द्विवेदी की किताब 'रामजी के सुगवा' बलिया के बुक सेंटर में देखी. ख़रीदने के पैसे थे नहीं. वहीं खड़े-खड़े पढ़ डाला. किताब से ही उनका पता लिखा और मिलने उनके घर पहुँच गए.

जब अशोक द्विवेदी ने सागर की कविताएँ सुनीं, तो बहुत प्रभावित हुए और ख़ूब प्रोत्साहन दिया. जगह-जगह कवि सम्मेलनों में साथ लेकर जाने लगे. नए-नए साहित्यजीवियों से मुलाक़ात होने लगी.

लेकिन पैसों की तंगी बरकरार रही. उन्हीं दिनों सागर ने एक नाच पार्टी बनाई थी, ताकि थोड़े पैसे कमाए जा सकें. सट्टे पर नाचपार्टी लेकर वो जगह-जगह जाया करते थे. घर लौटकर दादा-दादी की मदद करते. खाट बुनते और वहीं दड़बे में छटपटाती मुर्गियों और खाट के नीचे बैठी बकरियों के बीच सो जाया करते.

बंबई में का बा के सागर को ऐसे मिला किनारा

'ना त बम्बई में का बा' में महानगरों के दड़बेनुमा कमरे में छटपटाते प्रवासियों का बिम्ब शायद सागर के बचपन का भोगा हुआ यथार्थ है.

सागर जब 10वीं कक्षा में थे, तो एक उन्यास लिख डाला था.

शीर्षक था 'टूट गई पायल, बिखर गए घूंघरू'.

बहुत परिश्रम कर लिखा गया था ये मोटा उपन्यास. लेकिन उसकी यात्रा पाठक के हाथ में पड़ने से पहले ही थम गई थी, जब माँ ने उसे बोरी में डालकर कबाड़ी में बेच दिया था.

जो भी किताब मिल जाती, सागर उसे पढ़ डालते. कभी खेतों में बैठकर, तो कभी पेड़ों की छांव में, कभी घास काटने वालियों के बीच तो कभी तालाब के किनारे. किताबें ज़्यादा नहीं थीं तो पहले की कक्षाओं में पढ़ी किताबें बार-बार पढ़ डालते.

एक बार ककड़ी गाँव में रिश्तेदारी वाले बनारस के एक लड़के ने सागर को घास पर बैठकर पढ़ते देखा. बातचीत हुई. प्रभावित हुआ और उसने कहा कि इतना पढ़ने का शौक है तो तुम्हें बीएचयू में पढ़ना चाहिए. कम जानकारी वाले सागर ने कहा था कि वो तो अस्पताल है. लड़का हँस पड़ा था.

उसके बाद सागर बनारस पहुंचे थे संजय सिंह के घर पर. बीएचयू के एंट्रेंस एग्ज़ाम की पढ़ाई तक वहाँ रहे. एंट्रेंस पास कर गए. बीएचयू में दाखिला हो गया. बिड़ला हॉस्टल में रूममेट मिले सीवान के आलोक कुमार सिंह.

पैसे तब भी सागर के पास नहीं थे. खाते-पीते परिवार के आलोक वहाँ उनके पालनहार बन गए. उनके घर से आया खाना खाते, आलोक के ही कपड़े पहनते और पैसों की तंगी का समाधान भी आलोक ही देते थे. दोनों की दोस्ती ज़बरदस्त थी.

बीएचयू में रहते गाँव गए हुए सागर को कई महीने हो गए थे. गाँव की बहुत याद आ रही थी. बीएचयू गेट के बाहर एक नाई की दुकान थी, जहाँ सागर खलिहरी करने जाया करते थे. वो नाई भी बातूनी था. सागर ने उससे अपना दुख बताया था कि पैसे होते तो गांव हो आते.

नाई ने कहा था "दोस्त आज हजामत से जो भी कमाई होगी तुम ले लेना और गाँव हो आना." बदक़िस्मती ये कि उस दिन एक भी ग्राहक नहीं आया था और सागर गाँव नहीं जा सके थे.

उन दिनों बीएचयू के डिप्टी रजिस्ट्रार अजय कुमार भी सागर की कविताओं से बेहद प्रभावित थे. उन्होंने सलाह दी कि तुम्हें जेएनयू में जाकर पढ़ना चाहिए. उन्होंने ही सागर का जेएनयू एंट्रेंस का फ़ॉर्म भरा. साइकिल पर बिठाकर परीक्षा दिलवाने ले गए.

जब जेएनयू का एंट्रेंस क्लीयर हो गया तो रूममेट आलोक की ख़ुशी का पारावार न था. विदा होने का समय आया तो हॉस्टल के कमरे के बाहर गला पकड़कर फूट फूट कर रोने लगे. सागर को छोड़ ही नहीं रहे थे. रोए जा रहे थे.

ट्रेन के जनरल डिब्बे में बैठकर ज़िंदगी के आगे के सफ़र के लिए सागर जेएनयू के लिए रवाना हो गए थे. एक सज्जन मिले, जो नौकरी करने दुबई जा रहे थे. उन्होंने बातचीत में बताया था कि वो भी जेएनयू में पढ़ना चाहते थे लेकिन एंट्रेंस पास नहीं कर सके थे. दिल्ली स्टेशन से जेएनयू कैंपस तक वही राजेश कुमार पांडे, सागर को छोड़ने आए थे. हालांकि फिर उनसे कभी मुलाक़ात नहीं हो सकी थी.

बंबई में का बा के सागर को ऐसे मिला किनारा

आज 'ना त बम्बई में का बा' गाने को लेकर सागर का फ़ोन लगातार व्यस्त आ रहा है. कल उन्होंने बताया कि रातोंरात उनकी दुनिया बदल सी गई है. टीवी और वेबसाइट से उसके इंटरव्यू के लिए लाइन लगी है.

छोटे से कमरे में टीवी का कैमरा सेट करते हुए एक कैमरामैन ने कहा था कि "कैमरे और लाइटिंग के लिए जगह थोड़ी कम है, नहीं?"

सागर ने छूटते ही कहा था, "अरे भई नया, नया सिलेब्रिटी बना हूँ. धीरे-धीरे सब हो जाएगा."

BBC Hindi
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English summary
This is how Sagar got an edge with a song 'Bombay Ka Ka Ba'
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