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कई रेल हादसों के बाद लाल बहादुर बनने की फिराक में प्रभु

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पिछले चार दिनों में देश में दो बड़े रेल हादसे हो गए। रेलमंत्री सुरेश प्रभु ने बुधवार को इन हादसों की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा देने की पेशकश की।लेकिन ये बात किसी को समझ में नहीं आ रही कि प्रभु जी को इतने हादसे होने के बाद नैतिक जिम्मेदारी लेने का ख्याल कैसे आया। इन हादसों में कई लोग घायल अवस्था में अस्पताल में हैं तो कइयों के परिजनों की आंखों में अपनों के खो जाने का गम है। इन हादसों में किसी की मांग उजड़ गई तो किसी की कोख सुनी हो गई। लेकिन न ही कोई सुनने वाला है और न ही कोई कुछ कहने वाला।

दूसरों के लिए होते हैं नियम-

भारतीय राजनीति में नैतिक शब्द काफी पुराना है। विपक्ष में बैठने वाली पार्टी इस शब्द का इस्तेमाल बखूबी करती है। लेकिन अगर विपक्ष पक्ष में आ जाए तो फिर मानो इस शब्द के कोई मायने नहीं होते। ऐसा ही कुछ है भाजपा के नताओं के साथ भी है। हर नियम और शर्तें दूसरों के लिए बनती हैं।

कई रेल हादसों के बाद लाल बहादुर बनने की फिराक में प्रभु

कहते हैं समय बदलने के साथ सब बदल जाता है। क्या यह सच है? इतिहास के पन्नों को पलटकर देखा जाए तो नैतिकता पर याद आता है लाल बहादुर शास्त्री का इस्तीफा, जब एक रेल हादसे पर शास्त्री ने यह कहकर इस्तीफा दे दिया था कि मैं रेल मंत्री हूं, अगर रेल की कोई घटना होती है तो यह मेरी जिम्मेदारी है। क्या आज के दौर में सुरेश प्रभु ऐसा कर सकते हैं। शायद समय बदल गया है। अब ऐसा कुछ नहीं होगा। अगर होना ही होता तो ये काम वो बहुत पहले ही कर चुके होते, क्योंकि उनके रेलमंत्री रहते कई हादसे हो चुके हैं।

यूपीए राज में हर मुद्दे पर नैतिकता की बात करके सड़क से लेकर संसद तक हंगामा करने वाले भाजपा नेता कुछ भी बोलने को तैयार नहीं हैं। हर बार कड़ी आलोचना या दुखद घटना बताकर मामले से अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। हर बार एक जैसी घटना दोहराई जाती है और हर बार एक जैसा निंदा करने वाला बयान आ जाता है।

(यह एक व्यंग्य है)

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English summary
Railway Minister Suresh Prabhu offers to resign on Train accidents
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