Sharad Purnima 2021: यहां पढ़ें शरद पूर्णिमा व्रत की कथा
नई दिल्ली, 19 अक्टूबर। आश्विन माह का अंतिम दिन अर्थात् पूर्णिमा को वर्ष के सर्वाधिक शुभ और सिद्धि प्रदाता दिनों में गिना जाता है। इस दिन आने वाली पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा या कोजागरी पूर्णिमा कहा जाता है। वैसे तो पूर्णिमा 19 अक्टूबर शाम से लग रही है लेकिन व्रत रखने वाले कल यानी 20 अक्टूबर 2021 बुधवार को उपवास करेंगे। इस दिन से शरद ऋतु प्रारंभ होती है इसलिए इसे शरद पूर्णिमा कहा जाता है। इस दिन चंद्रमा षोडश कलाओं से युक्त होता है। इसलिए इस दिन मानसिक रोगियों को रोगमुक्ति और मस्तिष्क की मजबूती के लिए आयुर्वेदिक औषधियां पिलाई जाती है। साथ ही यह दिन संतान और सुख-सौभाग्य की प्राप्ति के लिए भी विशेष दिन होता है। शरद पूर्णिमा की रात्रि के दिन श्रीकृष्ण ने गोपियों संग रास रचाया था इसलिए इस रात्रि में कई जगह गरबा रास का आयोजन भी किया जाता है। मां लक्ष्मी की पूजा का भी यह विशेष दिन होता है।

रखें व्रत, करें माता लक्ष्मी का आवाहन
शरद पूर्णिमा के दिन प्रात: स्नानादि से निवृत्त होकर घर के पूजा स्थान को शुद्ध-स्वच्छ करके सफेद आसन बिछाएं। इस पर व्रती पूर्व की ओर मुख करके बैठ जाएं। चारों ओर गंगाजल छिड़कते हुए शुद्धिकरण का मंत्र बोलें। सामने एक चौकी पर साबुत चावल की ढेरी लगाकर उस पर तांबे या मिट्टी के कलश में शकर या चावल भरकर स्थापना करें। उसे सफेद वस्त्र से ढंक दें। उसी चौकी पर मां लक्ष्मी की मूर्ति या तस्वीर स्थापित करके उनकी पूजा करें। लक्ष्मी मां को सुंदर वस्त्राभूषण से सुशोभित करें। गंध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, तांबूल, सुपारी, दक्षिणा आदि से पूजा करें। शरद पूर्णिमा व्रत की कथा सुनें।
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सायंकाल में करें यह विधान
सायंकाल में चंद्रोदय के समय घी के 11 दीपक लगाएं। प्रसाद के लिए मेवे डालकर खीर बनाएं। इसे ऐसी जगह रखें जहां इस पर चंद्रमा की चांदनी आती हो। तीन घंटे बाद मां लक्ष्मी को इस खीर का नैवेद्य लगाए। घर के बुजुर्ग या बच्चों को सबसे पहले इस खीर का प्रसाद दें फिर स्वयं ग्रहण करें। दूसरे दिन प्रात: स्नानादि के बाद कलश किसी ब्राह्मण को दक्षिणा सहित दान दें और उनसे सुख-समृद्धि, उत्तम संतान सुख का आशीर्वाद प्राप्त करें।
शरद पूर्णिमा व्रत की कथा
एक साहुकार की दो पुत्रियां थी। वे दोनों पूर्णिमा का व्रत रखती थी, लेकिन छोटी पुत्री हमेशा व्रत को अधूरा रखती और दूसरी पूरी श्रद्धा के साथ व्रत का पालन करती। कुछ समय बाद दोनों का विवाह हुआ। विवाह के बाद बड़ी पुत्री ने अत्यंत सुंदर, स्वस्थ संतान को जन्म दिया जबकिछोटी पुत्री की कोई संतान नहीं हो रही थी। इस कारण वह और उसका पति काफी परेशान रहने लगे। उसी दौरान नगर में एक विद्वान संत आए हुए थे। पति-पत्नी उनके पास अपनी समस्या लेकर पहुंचे। उन्होंने देखकर बताया किइसने पूर्णिमा के अधूरे व्रत किए हैं इसलिए इसको पूर्ण संतान सुख नहीं मिल पा रहा है। तब ब्राह्मणों ने उसे पूर्णिमा व्रत की विधि बताई व उपवास रखने का सुझाव दिया। इस बार स्त्री ने व्रत रखा लेकिन कुछ त्रुटि रख दी। इस बार संतान जन्म के बाद कुछ दिनों तक ही जीवित रही। उसने मृत शिशु को पीठे पर लिटाकर उस पर कपड़ा रख दिया और अपनी बहन को बुला लाई बैठने के लिए। उसने वही पीठा उसे बैठने के लिए दे दिया। बड़ी बहन पीठे पर बैठने ही वाली थी किउसके कपड़े के छूते ही बच्चे के रोने की आवाज आने लगी। उसकी बड़ी बहन को बहुत आश्चर्य हुआ और कहा कितू अपनी ही संतान को मारने का दोष मुझ पर लगाना चाहती थी। तब छोटी ने कहा कियह तो पहले से मरा हुआ था। आपके प्रताप से ही यह जीवित हुआ है। बस फिर क्या था। पूर्णिमा व्रत की शक्ति का महत्व पूरे नगर में फैल गया और नगर में विधि विधान से हर कोई यह उपवास रखे इसकी राजकीय घोषणा करवाई गई। वह स्त्री भी अब पूर्ण श्रद्धा से यह व्रत रखने लगी और उसे बाद में अनेक स्वस्थ और सुंदर संतानों की प्राप्ति हुई।