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Imran Khan: क्या दूसरे मुजीबुर्रहमान साबित होंगे इमरान खान?

पाकिस्तान में टकराव यहां तक आगे बढ़ चुका है कि अब पाकिस्तान के एक और विभाजन की आहट आने लगी है। इमरान खान साफ तौर पर धमकी दे रहे हैं कि उनकी आवाज दबाई गई तो वह दूसरे मुजीबुर्रहमान बन सकते हैं।

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Will Imran Khan prove to be another Mujibur Rahman

पाकिस्तान में राजनीतिक हालात पल पल बदल रहे हैं। अगले पल क्या होने वाला है किसी को पता नहीं। पीटीआई के नेता इमरान खान एक तरफ सत्ता में आने के लिए तत्काल चुनाव कराने के लिए किसी हद तक जाने को तैयार हैं, तो दूसरी तरफ पीडीएम की सरकार इस कोशिश में है कि किसी तरह इमरान खान को व्यक्तिगत तौर पर या पूरी पीटीआई को ही चुनाव लड़ने से अयोग्य ठहारा दिया जाए। इस सत्ता संघर्ष में फिलहाल पाक फौज पीडीएम सरकार के साथ नजर आ रही है तो कोर्ट इमरान खान के प्रति नरम लग रहा है।

प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ के नेतृत्व वाली सरकार चाहती है कि नेशनल असेंबली अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा करे, जबकि पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान तत्काल चुनाव पर पड़ अड़े हुए हैं। अब 9 मई को पाकिस्तान में हुए उपद्रव की घटना में शामिल लोगाें को पाकिस्तान सेना अधिनियम और आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम के तहत मुकदमा दर्ज करने और सैन्य कोर्ट में केस चलाने के फैसले से पीटीआई में बिखराव शुरू हो गया है।

बहरहाल, मुजीबुर्रहमान बन जाने वाली इमरान खान की धमकी को पाकिस्तान में भी हल्के में नहीं लिया जा रहा है, बल्कि 1969 और 70 के पाकिस्तान के राजनीतिक हालात की तुलना आज की परिस्थितियों से की जा रही है। यह तुलना स्पष्ट रूप से राजनीति में सैन्य हस्तक्षेप, सरकार द्वारा पीटीआई के खिलाफ आक्रामक बदले की कार्रवाई और जनता के अंदर उभर रहे असंतोष के आधार पर की जा रही है।

51 साल बीत जाने के बाद भी पाकिस्तान ने 1971 के विघटन से कोई सबक नहीं लिया हैं। इमरान खान खुद अपनी पार्टी पीटीआई को तब के बांग्लादेश अवामी लीग के बराबर लोकप्रिय मानते हैं। वह धौंस देते हैं कि यदि लाठी और दमन का जोर चलाकर उनकी बढ़ती लोकप्रियता का सम्मान नहीं किया गया तो वह 'मुजीबुर्रहमान' बन सकते हैं। वह साफ कहते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में पाकिस्तान के राजनीतिक परिदृश्य में फौज का हस्तक्षेप जिस तेजी से बढ़ा है और जिस तरह से अघोषित सेंसरशिप के जरिए - लोकप्रिय नेताओं की आवाज दबाई जा रही है, उससे सेना और सरकार दोनों के प्रति लोगों का भरोसा उठ रहा है। एक तरह से इमरान अपने समर्थकों को सेना के खिलाफ खड़े होने के लिए उकसा रहे हैं।

इमरान खान मौजूदा आर्मी चीफ जनरल आसिम मुनीर की तुलना तब के जनरल याह्या खान से करके परोक्ष रूप से यह आरोप लगा रहे हैं कि जिस तरह तब के सैन्य शासन ने अवामी लीग के वैध लोकतांत्रिक जनादेश को नजरंदाज किया। एक राजनीतिक आंदोलन को बूटों से रौंद डाला और जिसके कारण बंगाली राष्ट्रवादी आंदोलन को बांग्लादेशी स्वतंत्रता आंदोलन में बदल गया, वैसी ही स्थिति आज भी पैदा हो गई है। मार्च 1971 में भी आज ही की तरह पाक फौज ने ऑपरेशन सर्चलाइट शुरू किया था, जिसके कारण एक राजनीतिक और संवैधानिक संकट पैदा हो गया जो अंततः खूनी गृहयुद्ध में बदल गया। इस समय भी यही स्थिति है।

9 मई को इमरान खान की इस्लामबाद हाई कोर्ट से गिरफ्तारी के बाद पीटीआई के कार्यकर्त्ताओं ने जिन्ना हाउस में जमकर तोड़ फोड़ की, लाहौर कोर कमांडर का घर लूट लिया और आग लगा दी। पाकिस्तानी सेना के युद्धक प्रतीकों को खंडित कर दिया और सैन्य मुख्यालय जीएचक्यू की तरफ कूच किया। यही नहीं पाकिस्तान की आजादी की पहले पहल घोषणा करने वाले पाकिस्तान रेडियो की इमारत को भी आग के हवाले कर दिया।

पाकिस्तानी फौज 9 मई की घटना को काले दिवस की संज्ञा देकर पीटीआई पर टूट पड़ी है। सैन्य प्रतिष्ठानों पर हमला करने वाले 25 से ज्यादा उपद्रवियों को मार गिराया है, 7000 से ज्यादा पीटीआई कार्यकर्त्ताओं को गिरफ्तार कर आर्मी एक्ट के तहत मुकदमा चलाने का निर्णय किया है और पीटीआई के पूरे नेतृत्व को साजिशकर्त्ता बनाकर उन्हें जेल में ठूसने का मंसूबा बना लिया है। यह पाकिस्तानी आर्मी का डर ही है कि पीटीआई के नेता अब सार्वजनिक रूप से उनसे अलग हटने का ऐलान करने लगे हैं।

आवामी लीग की तरह पीटीआई के नेता भीे खुले तौर पर सेना की रैंकों के भीतर अपने समर्थन का दावा करते हैं। खासकर पूर्व आईएसआई प्रमुख जनरल फैज को इमरान खान का खास सलाहकर और सहुलियतकार माना जाता है। 9 मई की घटना में भी ऐसा इंप्रेशन दिया गया कि सेना के रैंक एंड फाइल में इमरान खान और उनकी पार्टी को लेकर मतभेद है। पीटीआई प्रमुख इमरान खान ने पहले भी इस समर्थन का दावा किया था, जब उन्होंने पिछली मार्च में कहा था कि प्रधानमंत्री कार्यालय से उनका निष्कासन हुआ तो सेना के जवानों के परिवार उनके साथ इस्लामाबाद मार्च करेंगे। उनकी पार्टी के नेता शाहबाज गिल, अली अमीन गंडापुर और फवाद चौधरी पर लोकतांत्रिक द्रोह का मुकदमा दायर हो चुका है। हालांकि डीजी आईएसपीआर की तरफ से कई मौकों पर इन दावों का खंडन किया गया और यह दावा किया गया कि सेना प्रमुख आसिफ मुनीर के नेतृत्व में सेना एकजुट है।

इमरान खान के खिलाफ सेना का चौतरफा हमला, आतंकी बताकर कई समर्थकों को पकड़ा, घर की होगी तलाशीइमरान खान के खिलाफ सेना का चौतरफा हमला, आतंकी बताकर कई समर्थकों को पकड़ा, घर की होगी तलाशी

हालांकि सच्चाई तो यही है कि पाकिस्तान ने 1971 की पराजय से सीखने के बजाय, बल और छल के साथ राजनीतिक मुद्दों को हल करने की अपनी प्रवृति अभी भी नहीं छोड़ी है। अभी भी जबरन लोगों को गायब करना, राजनीतिक हत्याएं, गैरकानूनी कारावास, उत्पीड़न और डराना-धमकाना जैसी मानवीय और अलोकतांत्रिक घटनाएं बिना रोक टोक हो रही हैं। जो भी सत्ता में आता है वह अपने असंतुष्टों और आलोचकों के खिलाफ आतंकवाद विरोधी और राजद्रोह कानूनों को हथियार बनाकर उन्हें ठिकाने लगाने का प्रयास करता है। बलूचिस्तान, वजीरिस्तान, गिलगित बाल्टिस्तान और यहां तक कि ओकारा जैसे क्षेत्रों में अत्याचार और लूटमार चरम पर है। इन क्षेत्रों में अलगाववादी आंदोलन वर्षोंं से चल रहे हैं और यदि पाकिस्तान कहीं से फिर टूट सकता है तो ये क्षेत्र पहले हो सकते हैं। क्वेटा और खैबर पख्तूनख्वा के कई शहरों में पुलिस सेना और अलगाववादियों के बीच युद्ध की स्थिति बन रही है, रोज ही पाकिस्तानी आर्मी के जवान वहां मारे जा रहे हैं।

पंजाब में भी इस समय उत्पीड़न और डराने-धमकाने की घटना बड़े पैमाने पर हो रही है। एक विशिष्ट पार्टी के सेना के साथ खराब संबंधों का यह असर हो या इमरान की अपनी जिद। इस समय पाकिस्तान जिस अनिश्चितता की सुरंग में घुस रहा है वहां प्रकाश का कोई दूसरा सिरा नजर नहीं आ रहा है। अब पाकिस्तानी बुद्धिजीवी भी मानने लगे हैं कि देश विघटन की कगार पर पहुंच रहा है। पाकिस्तान के पूर्व विदेश सचिव एजाज अहमद चौधरी ने हाल ही में डॉन में लिखे लेख में कहा है कि यह सोचना मूर्खता होगी कि सीरिया, लीबिया, यमन, अफगानिस्तान, सूडान या रवांडा में जो कुछ हुआ है, वह यहां नहीं हो सकता। यहां भी असहिष्णुता की एक तीव्र संस्कृति है, जो समय के साथ पोषित होती रहती है और अंततः राजनीतिक और सामाजिक ताने-बाने को तोड़ देती है'।

एजाज अहमद चौधरी ने भी पाकिस्तान में 1971 के दोहराये जाने की आशंका जताई है। उन्होंने लिखा है- "हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जब भी हमारा देश राजनीतिक और संवैधानिक संकट से गुजरा है, उसका दुष्परिणाम पाकिस्तान के लोगों को भुगतना पड़ा है। 1971 में, उस समय के राजनीतिक नेता को प्राप्त लोकतांत्रिक जीत का सम्मान करने में विफल रहे, जबकि सैन्य शासक याह्या खान एक लापरवाह सैन्य अभियान में लगे रहे। परिणाम पाकिस्तान के पूर्वी क्षेत्र का लज्जाजनक, रक्तरंजित अलगाव के रूप में मिला।"

(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)

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Will Imran Khan prove to be another Mujibur Rahman
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