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Tarek Fatah: चला गया सच्चाई और मानवता से भरा 'मिडनाइट चाइल्ड'

73 साल की उम्र में तारेक फतेह ने आज संसार से विदा ले ली। अपने आप को हिन्दुस्तान के बंटवारे के समय पैदा हुए 'मिडनाइट चिल्ड्रन' में से एक मानने वाले तारेक फतेह एक ऐसे व्यक्ति थे जिनकी सबसे बड़ी ताकत सच्चाई और मानवता थी।

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Tarek Fatah Gone is Midnight Child full of truth and humanity

सलमान रश्दी का बेस्ट सेलर और बुकर ऑफ द बुकर पुरस्कार पाने वाला एक उपन्यास है "द मिडनाइट चिल्ड्रन"। इस उपन्यास में रश्दी ऐसे लोगों के बारे में लिखते हैं जो 15 अगस्त 1947 की आधी रात में 12 से 1 बजे के बीच पैदा हुए हैं। उन लोगों के पास टेलीपैथी की ताकत होती है जो उसके जरिए आपस में संवाद करते हैं। इसमें एक पात्र सलीम सिनाई होता है जो इन सबका सूत्रधार है। उसके जरिए रश्दी उस त्रासदी का बहुत व्यवस्थित विवरण सामने रखते हैं जो 14-15 अगस्त की आधी रात में भयावह बंटवारे के रूप में इस भूभाग पर उतरा था।

हालांकि तारेक फतेह 14-15 अगस्त की आधी रात को पैदा होने वालों में से नहीं थे लेकिन वो अपने आपको मिडनाइड चिल्ड्रेन में से एक ही कहते थे। ऐसा दुर्भाग्यशाली मनुष्य जिसे बंटवारे के कारण भाषाई, धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से सिर्फ पीड़ा ही मिली। वह एक ऐसे यावावर की जिन्दगी जीने को मजबूर हो गया जो जिसे अपनी धरती कहता था वहां जा नहीं जा सकता था, लेकिन जहां रहा उसे अपना नहीं कह सकता था।

20 नवंबर 1949 को कराची में पैदा होने वाले तारेक फतेह के जीवन में पैदा होने से पहले ही विस्थापन आ गया था। उनके मां बाप जो कि मूल रूप से पंजाब के थे वो मुंबई में रहते थे। बंटवारा हुआ तो परिवार मुंबई से निकलकर कराची पहुंच गया। वहां तारेक फतेह का जन्म हुआ लेकिन वो यहां भी पूरी उम्र रह नहीं पाये। अस्सी के दशक में ही उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण उन्हें कराची छोड़ना पड़ा।

हालांकि कराची यूनिवर्सिटी से उन्होंने पढ़ाई तो बायोकेमिस्ट्री में की थी लेकिन उनका मन आंदोलन में ही रमता था। युनिवर्सिटी के दिनों में ही मार्क्सवादी बन चुके तारेक फतेह ने पत्रकारिता का रास्ता चुना। उन्होंने एक अखबार निकाला कराची सन। इसके बाद टीवी चैनलों के लिए खोजी पत्रकारिता भी की। वो पत्रकारिता के जरिए सैनिक तानाशाही का विरोध करते थे जिसकी उन्हें कीमत भी चुकानी पड़ी। दो बार उन्हें जेल भेजा गया और 1977 में उनके ऊपर देशद्रोह का मुकदमा लगा दिया गया।

आखिरकार जिया उल हक के जमाने में उनकी पत्रकारिता पर ही रोक लगा दी गयी और तारेक फतेह पाकिस्तान छोड़कर सऊदी अरब चले गये। 1987 में वो सऊदी अरब से कनाडा चले गये और आखिरी सांस उन्होंने कनाडा में ही ली।

कनाडा में रहने के दौरान वो पत्रकारिता करते थे। वहां टोरंटो सन के लिए नियमित कॉलम लिखते थे। नब्बे के दशक में वो कनाडा की राजनीति में भी सक्रिय रहे और उन्होंने ओन्टेरियो न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी के लिए काम भी किया जो कि लेफ्ट झुकाव वाला एक राजनीतिक दल है।

लेकिन भारत से तारेक फतेह का परिचय 2014 के बाद हुआ। तारेक फतेह बलूच आजादी के समर्थक थे और उनके लिए आवाज भी उठाते थे लेकिन उनका भारत आना जाना नहीं था। वो कनाडा में कुछ ऐसे यूट्यूब चैनल से जरूर जुड़े थे जो पीओके से निष्कासित जीवन बिता रहे मुस्लिम चला रहे थे। लेकिन 2014 के बाद उन्होंने भारत का रुख किया। यह वह दौर था जब केन्द्र में नरेन्द्र मोदी की सरकार आ चुकी थी और उनके मुखर विचारों के कारण उन्हें कभी आने से रोका भी नहीं गया।

शुरुआत उन्होंने पंजाब यूनिवर्सिटी और जेएनयू आने से की और फिर धीरे धीरे वो यहां के मीडिया के लिए एक जानी पहचानी हस्ती बन गये। तारेक फतेह ने जिस तार्किक तरीके से इस्लाम और मुसलमान पर सवाल उठाने शुरु किये, वह भारत के लिए बिल्कुल नया था। भारत में इस्लाम के जानने वालों ने हमेशा इसे आलोचना के दायरे से बाहर ही रखा। भारत के वो मार्क्सवादी जो धर्म को अफीम कहते थे, वो भी इस्लाम की आलोचना की बजाय उसका बचाव और वकालत ही करते थे। वे उसे एक प्रोग्रेसिव रीलीजन के तौर पर प्रस्तुत करते थे।

लेकिन एक सच्चे मार्क्सवादी की तरह तारेक फतेह ने इस्लाम की सच्चाई सबके सामने रखनी शुरु कर दी। हालांकि वो अपने आप को नास्तिक मानते थे लेकिन उन्होंने कभी ये दावा भी नहीं किया कि उन्होंने इस्लाम छोड़ दिया है। अगर कोई इस्लाम छोड़ता भी था तो इसे वो अच्छा नहीं मानते थे। वो कहा करते थे कि अगर आवाज उठाने वाले लोग इस्लाम छोड़कर चले जाएंगे तो बहुत बड़ी भूल करेंगे। वो इस्लाम में रहकर इसको सुधारवादी रास्ते पर ले जाना चाहते थे।

उनके इस प्रयास को उनके इस्लाम विरोध के तौर पर देखा गया। भारत में जैसे ही टीवी चैनलों पर वो एक चर्चित नाम हुए, मुल्ला मौलवी द्वारा उनका जमकर विरोध भी शुरु हो गया। उन्हें पाकिस्तानी कहकर अपमानित किया जाने लगा जबकि स्वयं तारेक फतेह अपने आप को हिन्दुस्तानी ही मानते थे। अपने आप को मिडनाइट चिल्ड्रन वो इसीलिए कहते थे क्योंकि उन्होंने बंटवारे को नकार दिया था। वो भारत भूमि की सांस्कृतिक और सामाजिक अखंडता कै पैरोकार थे और मानते थे कि इसे बांटकर अलग किया ही नहीं जा सकता। इसलिए एक ओर वो जहां अपने आप को प्राउड पंजाबी कहते थे वहीं दूसरी ओर उन्हें हिन्दुस्तानी होने पर भी गर्व था।

टीवी चैनलों के लाइव शो में कई बार ऐसा हुआ कि उन्हें बुरा भला कहा गया, धमकियां दी गयी और अपमानित करने का प्रयास किया गया। लेकिन ऐसी हर घटना को वो हंसकर टाल देते थे। एक टीवी चैनल में जब एक मुल्ला ने उन्हें सरेआम टीवी चैनल पर धमकी दी तो उन्होंने हंसते हुए कहा कि वो ऐसी धमकियों से डरते नहीं। अब जीवन में दिन ही कितने बचे हैं? आज नहीं तो कल मरना ही है। ऐसे में सच बोलने से क्यों डरें?

Tarek Fatah: खुद को पाक में जन्मा भारतीय माना, तर्कों से छुड़ाए लोगों के पसीने, शरिया के मुखर विरोधी, ProfileTarek Fatah: खुद को पाक में जन्मा भारतीय माना, तर्कों से छुड़ाए लोगों के पसीने, शरिया के मुखर विरोधी, Profile

सच्चाई यही है कि अपने जीवन के उत्तरार्ध में उन्होंने जीभर सच बोला। बिना किसी डर के। बिना किसी भय के और बिना किसी पक्षपात के। मुस्लिम समुदाय में जो बुराइयां हैं उस पर उन्होंने जमकर प्रहार किया। हालांकि मुसलमान अपनी आलोचना सुनना भी नहीं चाहता इसलिए उनके मरने के बाद भी खुशियां मनाने वाले मुसलमान उन्हें सोशल मीडिया पर जहन्नुम भेज रहे हैं। लेकिन अपनी सच्चाई के ही कारण वो भारत में एक बड़े वर्ग के चहेते बन गये।

दूसरी बार उभर आये कैंसर के कारण तारेक फतेह आज दुनिया से विदा हो गये हैं तब वो हिन्दुस्तान दुखी है जो तारेक फतेह की सच्चाई का कायल था। उनकी सच्चाई और साहस ने उस हिन्दुस्तान को उम्मीद की नयी रोशनी दी है जो अभी भी 15 अगस्त 1947 के घाव से उबर नहीं पाया है। वह इस घाव से उबरे या न उबरे लेकिन किसी नये घाव के प्रति सचेत तो हो ही गया है। उसके इस सचेत होने में तारेक फतेह ने जो योगदान दिया है उसे कभी भुलाया नहीं जा सकेगा।

(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)

English summary
Tarek Fatah Gone is Midnight Child full of truth and humanity
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