Bhima-Koregaon Case: देश विरोधी विचार रखने वालों के समर्थन में यह कौन लोग है?
नई दिल्ली। भारत शुरू से ही एक उदार प्रकृति का देश रहा है, सहनशीलता इसकी पहचान रही है और आत्म चिंतन इसका स्वभाव लेकिन जब किसी देश में उसकी उदार प्रकृति का ही सहारा लेकर उसमें विकृति उत्पन्न करने की कोशिशें की जाने लगें, और उसकी सहनशीलता का ही सहारा लेकर उसकी अखंडता को खंडित करने का प्रयास किया जाने लगें, तो आवश्यक हो जाता है कि वह देश आत्म चिंतन की राह को पकड़े। हम ऐसा क्यों कह रहे हैं चलिए पहले इस विषय पर ही चिंतन कर लेते हैं।
भीमा कोरेगांव
31
दिसंबर
को
हर
साल
महाराष्ट्र
के
पुणे
स्थित
भीमा
कोरेगांव
में
शौर्य
दिवस
मनाया
जाता
है।
2017
की
आखिरी
रात
को
भी
मनाया
गया।
लेकिन
इस
बार
इस
के
आयोजन
के
मौके
पर
जो
हिंसा
हुई
और
खून
बहा
उसके
छीटें
सिर्फ
भीमा
कोरोगाँव
या
पूणे
या
महाराष्ट्र
ही
नहीं
पूरे
देश
की
राजनीति
पर
अपना
दाग
छोड़
देंगे
यह
शायद
किसी
ने
नहीं
सोचा
होगा।
क्योंकि
यह
केवल
एक
दलित
मराठा
संघर्ष
नहीं
उससे
कहीं
अधिक
था,
पुलिस
के
अनुसार
जिसके
तार
नक्सलवादियों
से
जुड़े
थे
लेकिन
सबसे
महत्वपूर्ण
बात
यह
है
कि
इस
घटना
की
जांच
से
राजीव
गांधीं
हत्याकांड
की
ही
तरह
प्रधानमंत्री
मोदी
की
हत्या
की
साजिश
भी
सामने
आयी
और
इस
साजिश
में
मानव
अधिकारों
के
लिए
लड़ने
वाले
वकीलों
से
लेकर
पत्रकार
सामाजिक
कार्यकर्ता
और
लेखक
जैसे
बुद्धिजीवीयों
तक
के
नाम
शामिल
हैं।
अब कलम ने बंदूक की जगह ले ली है
इस आधुनिक दौर में जहां नई तकनीक ने पुरानी तकनीक को बदल दिया है वहाँ युद्ध और आक्रमण के तरीके भी बदल गए हैं। अब कलम ने बंदूक की जगह ले ली है और आधुनिकतम हथियार बन चुकी है। अब आक्रमण देश की सीमाओं पर नहीं देश के नागरिकों की विचारों पर होने लगा है, देश हित में सोचने वाले बुद्धिजीवी वर्ग से इतर बौद्धिक आतंकवाद फैलाने वाले एक वर्ग का भी उदय हो गया है जो जंगलों में पाए जाने वाले हथियार बंद नकसलियों से भी ज्यादा खतरनाक हैं, जी हां "अर्बन नैकसलाइट्स" इन्हें इसी नाम से जाना जाता है।
शहरी नक्सलवाद
शहरी नक्सलवाद यानी वो प्रक्रिया जिसमें शहर के पढ़े लिखे लोग हथियार बंद नक्सलवादियों को उनकी नकस्ली गतिविधियों में बौद्धिक और कानूनी समर्थन उपलब्ध कराते हैं। ये लेखक ,प्रोफेसर, वकील, सामाजिक कार्यकर्ता से लेकर फिल्म मेकर कुछ भी हो सकते हैं। क्या हमें आश्चर्य होता है जब दिल्ली यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर, जी एन साई बाबा को उनकी नक्सलवादी गतिविधियों के लिए महाराष्ट्र की कोर्ट द्वारा आजीवन कारावास की सजा सुनाई जाती है?
"फोर्थ जनरेशन वारफेयर"
युद्ध रणनीतिज्ञ विलियम एस लिंड ने अपनी पुस्तक "फोर्थ जनरेशन वारफेयर" में कहा है कि युद्ध की यह रणनीति समाज में सांस्कृतिक संघर्ष के रूप में दरार उत्पन्न करने पर टिकी होती है। इस प्रकार से देश को नष्ट करने के लिए बाहर से आक्रमण करने की कोई आवश्यकता नहीं होती वह भीतर ही भीतर स्वयं ही टूट जाता है। शहरी नक्सलवाद भी संस्कृतिक उदारतावाद और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में अपने मंसूबों को अंजाम देने में लगा है। कम से कम भीमा कोरेगांव की घटना तो यही सोचने के लिए मजबूर करती है।
31 दिसंबर को शौर्य दिवस क्यों मनाया जाता है ?
दरअसल 31 दिसंबर 1818 को अंग्रेजों और मराठों के बीच एक युद्ध हुआ था जिसमें मराठों की हार हुई थी और अंग्रेजों की विजय।तो क्या भारत में इस दिन अंग्रेजों की विजय का जश्न मनाया जाता हैं? जी नहीं इस दिन मराठों की हार का जश्न मनाया जाता है।
अब आप सोचेंगे कि दोनों बातों में क्या फर्क है?
तो
बात
दरअसल
यह
है
कि
उस
युद्ध
में
दलितों
की
महार
रेजीमेंट
ने
अंग्रेजों
की
ओर
से
युद्ध
किया
था
और
मुठ्ठी
भर
दलितों
ने
लगभग
28000
की
मराठा
सेना
को
हरा
दिया
था।
तो
यह
दिन
दलितों
द्वारा
मराठों
को
हराने
की
याद
में
हर
साल
मनाया
जाता
है
और
इस
बार
इस
युद्ध
को
200
साल
पूरे
हुए
थे।
इस
उपलक्ष्य
में
इस
अवसर
पर
"यलगार
परिषद"
द्वारा
एक
रैली
का
आयोजन
किया
गया
था
जिसमें
जिगनेश
मेवाणी(जिन
पर
शहरी
नक्सलियों
को
कांग्रेस
से
आर्थिक
और
कानूनी
मदद
दिलाने
में
मध्यस्त
की
भूमिका
निभाने
का
आरोप
है)
,
उमर
खालिद
(जे.एन
यू
में
देश
विरोधी
नारे
लगाने
के
लिए
कूख्यात
है),
रोहित
वेमुला
की
माँ
जैसे
लोगों
को
आमंत्रित
किया
गया
था।
इसी
दौरान
वहाँ
हिंसा
भड़कती
है
जो
कि
पूरे
महाराष्ट्र
में
फैल
जाती
है
और
अब
तो
उसकी
जांच
की
आंच
पूरे
देश
में
फैलती
जा
रही
है।
अब
प्रश्न
यह
उठता
है
कि
आखिर
यह
यलगार
परिषद
क्या
है?
"यलगार परिषद"
अगर आप सोच रहे हैं की यह कोई संस्था या कोई संगठन है तो आप गलत है यह तो केवल उस दिन की रैली को दिया गया एक नाम मात्र है । तो अब सवाल यह उठता है कि आखिर दलितों की एक रैली का "यलगार परिषद" जैसा नाम ( जो एक कठिन और आक्रमक शब्द है) क्या किसी बुद्धिजीवी के अलावा कोई रख सकता है? सवाल यह भी कि वो कौन लोग हैं जो इस जश्न के बहाने दो सौ साल पुराने दलित और मराठा संघर्ष को जीवित रखने के द्वारा जातीय संघर्ष को बढ़ावा देने की कोशिश कर रहे हैं?
क्या हम सच समझ पा रहे हैं?
क्या हम इसके पीछे छिपी साजिशों को देख पा रहे हैं? अगर हां तो हमें यह भी समझ लेना चाहिए कि चूंकि ये लोग खुद बुद्धिजीवी और वकील हैं कोई आम इंसान नहीं तो इन्हें पकड़ना और इन पर आरोप सिद्ध करना इतना आसान भी नहीं होगा। यही कारण है कि जिस केस की सुनवाई किसी आम आदमी के मामले में किसी निचली अदालत में होती वो सुनवाई इनके मामले में सीधे सुप्रीम कोर्ट में हुई। इतना ही नहीं लगभग आठ माह की जांच के बाद भी पुलिस कोर्ट से इन लोगों के लिए हाउस एरेस्ट ही ले पाई रिमांड नहीं। लेकिन इस सब के बावजूद इस महत्वपूर्ण बात को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता कि 6 सितंबर की पुनः सुनवाई के बाद भी प्रशांत भूषण, मनु सिंघवी, रोमिला थापर जैसी ताकतें इन्हें हाउस एरेस्ट से मुक्त नहीं करा पाए।
दस अर्बन नक्सली पकड़े गए
आज राहुल गांधी और कांग्रेस भले ही इनके समर्थन में खड़ी है लेकिन यह ध्यान देने योग्य विषय है कि दिसंबर 2012 में तत्कालीन यूपीए सरकार ने नक्सलियों की 128 संस्थाओं के खिलाफ कार्रवाई का आदेश दिया था और भीमा कोरेगांव केस में 6 जून और 28 अगस्त को जो दस अर्बन नक्सली पकड़े गए हैं उनमें से सात तो इन्हीं संस्थाओं में काम करते हैं। ये हैं वारवरा राव, सुधा भारद्वाज,सुरेन्द्र गाडलिंग,रोना विलसन, अरुण फरेरा, वर्णन गोजांलविस और महेश राउत।
शहरी नक्सलियों की असलियत सामने
इनमें से अधिकतर पर पहले से ही मुकदमे दर्ज हैं और कई तो सजा भी काट चुके हैं। स्थिति की गंभीरता को समझते हुए 2013 में मनमोहन सरकार ने तो सुप्रीम कोर्ट में एफिडेविट देकर यहां तक कहा था कि अर्बन नक्सल और उनके समर्थक जंगलों में घुसपैठ किए बैठी उनकी सेना से भी अधिक खतरनाक हैं। एफिडेविट यह भी कहता है कि कैसे ये तथाकथित बुद्धिजीवी मानवाधिकार और असहमति के अधिकार की आड़ लेकर सुरक्षा बलों की कार्रवाई को कमजोर करने के लिए कानूनी प्रक्रिया का सहारा लेते हैं और झूठे प्रचार के जरिए सरकार और उसकी संस्थाओं को बदनाम करते हैं। सोचने वाली बात है कि जब ये अर्बन नक्सली लोग नक्सलियों को मानवाधिकारों की आड़ में बचाकर ले जाने में कामयाब हो जाते हैं तो क्या खुद को उन्हीं कानूनी दाँव पेचों के सहारे नहीं बचाने की कोशिश नहीं करेंगे ?लेकिन अब धीरे -धीरे इन शहरी नक्सलियों और उनके समर्थकों की असलियत देश के सामने आने लगी है और देश की जनता देश के संविधान का ही सहारा लेकर देश की अखंडता और अस्मिता के साथ खेलने वाले इन लोगों के असली चेहरे से वाकिफ हो चुकी है। शायद यह लोग इस देश के राष्ट्रीय आदर्श वाक्य को भूल गये हैं 'सत्यमेव जयते'।
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