संजय राउत: उद्धव ठाकरे के “अमर सिंह”
वह जुलाई 2008 का महीना था। केन्द्र में कांग्रेस की अगुवाई में यूपीए की सरकार थी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अमेरिका के साथ परमाणु उर्जा समझौता किया था जिसके विरोध में 8 जुलाई को कम्युनिस्ट पार्टियों ने यूपीए सरकार को दिये जा रहे समर्थन को वापस ले लिया। मनमोहन सिंह की सरकार कार्यकाल पूरा करने से पहले ही परमाणु उर्जा समझौते पर गिर जाती अगर अमर सिंह न होते। अमर सिंह ने 9 जुलाई को ही राष्ट्रपति से मिलकर समाजवादी पार्टी के 39 सांसदों के समर्थन वाली चिट्ठी सौंप दी।
मनमोहन सिंह की सरकार तो बच गयी लेकिन मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक प्रतिष्ठा हमेशा के लिए खत्म हो गयी। अमर सिंह ने समर्थन के लिए क्या डील की, उसकी कहानी अलग है, लेकिन सपा के इस समर्थन ने जहां मुलायम सिंह को उस कांग्रेस का समर्थक बना दिया जिसके विरोध की राजनीति उनकी पूंजी थी, वहीं उन्हें कम्युनिस्ट पार्टियों से भी दूर कर दिया। हालांकि साल भर बाद ही 23 जुलाई 2009 को संसद में खड़े होकर मुलायम सिंह यादव ने स्वीकार किया कि कांग्रेस की सरकार बचाना उनकी राजनीतिक भूल थी लेकिन अब तो जो होना था वो हो चुका था।
महाराष्ट्र की राजनीति को देखें तो अमर सिंह जैसा ही एक कैरेक्टर वहां भी दिखाई देता है जिसका नाम है संजय राउत। 2019 के विधानसभा चुनाव के बाद संजय राउत ने भाजपा को "राजनीतिक सबक" सिखाने के लिए शिवसेना को ऐसे फैसले लेने पर मजबूर किया जिसका परिणाम अंतत: शिवसेना में ही बगावत के रूप में सामने आया।
पहला फैसला यह कि परंपरा से उलट पहली बार ठाकरे परिवार का कोई व्यक्ति सत्ता की कुर्सी पर बैठने जा रहा था। दूसरा फैसला यह कि ठाकरे परिवार का व्यक्ति जिस सरकार की कुर्सी संभालने जा रहा था वह ऐसे दलों और व्यक्तियों के समर्थन से बनने वाली थी जिनका विरोध ही शिवसेना का राजनीतिक आधार रहा है। लेकिन संजय राउत ने अपने प्रयासों से वही असंभव कार्य करवा दिया जैसा अमर सिंह ने मुलायम सिंह से कांग्रेस को समर्थन दिलाकर करवाया था।
मुलायम सिंह यादव की कुछ ऐसी व्यक्तिगत मजबूरियां थीं जिसके चलते हो सकता है उन्होंने वैचारिक समझौता करना जरूरी समझा हो लेकिन उद्धव ठाकरे की ऐसी कौन सी व्यक्तिगत मजबूरी थी जो उन्होंने शरद पवार और कांग्रेस के समर्थन से मुख्यमंत्री बनना स्वीकार कर लिया? स्वाभाविक है, उद्धव ठाकरे की ऐसी कोई मजबूरी नहीं थी कि वो इतना बड़ा वैचारिक समझौता करते।
लेकिन नेपथ्य में शरद पवार संजय राऊत के जरिए शिवसेना के साथ नया राजनीतिक समीकरण बना रहे थे। शरद पवार ने मीडिया से बातचीत में इस बात का संकेत भी दिया कि दो हिन्दुत्ववादी दल मिलकर चुनाव लड़ते हैं तो उनके लिए दिक्कत होती है। इसका मतलब वो शुरु से जान रहे थे कि शिवसेना का साथ देने में जो नुकसान होगा वो शिवसेना को ही होगा। लेकिन संजय राउत ने यह बात ठाकरे परिवार को समझने नहीं दी।
कहते हैं ठाकरे परिवार में नेपथ्य से उद्धव की पत्नी रश्मी ठाकरे राजनीतिक निर्णय लेने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है और कांग्रेस तथा शरद पवार के सहयोग से मुख्यमंत्री बनने का निर्णय भी उद्धव का नहीं बल्कि रश्मि ठाकरे का ही था। इसका मतलब जैसे अमर सिंह मुलायम परिवार के भीतर तक पहुंच रखते थे वैसे ही संजय राउत ने भी ठाकरे परिवार में अपनी पहुंच बना रखी है।
संजय राउत किसी बड़ी राजनीतिक पृष्ठभूमि से नहीं आते। वो जिस अलीबाग में पैदा हुए उसके बारे में मुंबई में एक कहावत प्रचलित है: "अलीबाग से आया है क्या?" इसका मतलब होता है कि अलीबाग वाले मूर्ख होते हैं। उन्हें कोई सोच समझ नहीं होती। लेकिन इसी अलीबाग में पैदा होने वाले संजय राउत ने मुंबई पहुंचकर शिवेसना में अपने आपको राजनीति का चाणक्य तक घोषित कर दिया।
संजय राउत न तो पेशे से पत्रकार रहे हैं और न ही राजनीतिक पृष्ठभूमि से आते हैं। वो मुंबई से छपने वाले टाइम्स ग्रुप के एक अखबार महाराष्ट्र टाइम्स के सर्कुलेशन डिपार्टमेन्ट में बतौर क्लर्क काम करते थे। यहीं काम करते हुए उनका संपर्क राज ठाकरे से हुआ। यह नब्बे के दशक में उस समय की बात है जब शिवसेना राजनीतिक रूप से बहुत ताकतवर नहीं हुई थी। बाल ठाकरे ने एक अखबार निकालने का निश्चय किया जिसका नाम "सामना" रखा गया और राज ठाकरे को उस अखबार के प्रबंधन की जिम्मेवारी दी गयी।
सामना में संजय राउत का प्रवेश राज ठाकरे के जरिए ही हुआ। सामना के संपादक बाल ठाकरे बने जबकि कार्यकारी संपादक के रूप में संजय राउत ने काम करना शुरु किया। यहीं से उनका पत्रकारिता में प्रवेश होता है। 2004 में पहली बार वो राज्ससभा सांसद बनते हैं और आज भी वो राज्यसभा में हैं। 2012 में बाल ठाकरे के निधन के बाद संजय राऊत ने सामना से बाहर निकलकर ठाकरे परिवार की राजनीति में भी प्रवेश कर लिया।
ठाकरे परिवार के राजनीतिक निर्णयों में संजय राउत की भूमिका अहम होने लगी जो शिवसैनिकों को पसंद नहीं आती थी। लेकिन संजय राउत के रुतबे के आगे मजबूरन सब चुप रहते थे। लेकिन कोई न कोई समय तो आता है जब असंतोष फूट पड़ता है, जैसे एक समय में अमर सिंह के खिलाफ फूट पड़ा था और पूरी समाजवादी पार्टी तथा मुलायम सिंह परिवार में एक भी व्यक्ति अमर सिंह के साथ खड़ा नहीं हुआ। इस समय संजय राउत की स्थिति भी शिवसेना में अमर सिंह वाली बन गयी है।
बीते जून महीने में शिवसेना में जो विद्रोह हुआ वह उद्धव ठाकरे से ज्यादा संजय राउत के खिलाफ था। विधायकों ने मीडिया से बात करते हुए साफ कहा कि उन्हें उद्धव साहब से नहीं संजय राउत से शिकायत है। क्योंकि उद्धव ठाकरे सरकार में रहते हुए पूरी तरह से संजय राउत के प्रभाव में थे इसलिए संवाद और मेलजोल की हर संभावना समाप्त हो गयी थी।
सरकार से बाहर होते ही उद्धव हालात को समझ गये। उन्होंने पार्टी कार्यालय में बैठकर जायजा लिया तो विद्रोही शिवसैनिक उतने गलत नहीं लगे जितना वो समझ रहे थे। इसलिए उन्होंने सुलह समझौते वाला रुख अख्तियार कर लिया। सोमवार 11 जुलाई को सांसदों और विधायकों की बैठक में उन्हें यह स्पष्ट हो गया कि एनडीए से अलग जाकर गलती उन्होने ही की थी। संजय राउत की सलाह के बावजूद उन्होंने राष्ट्रपति पद के लिए एनडीए की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू के समर्थन का ऐलान कर दिया है।
यह पहला ऐसा संकेत है जो बताता है कि शिवसेना के "मुलायम सिंह" ने सामना वाले "अमर सिंह" की सलाह मानने से इंकार कर दिया है। इसके साथ उद्धव ठाकरे के सामने एक राजनीतिक मजबूरी ये भी है कि अगर वो विद्रोही गुट से सुलह समझौता नहीं करते तो शिवसेना के ही खत्म होने का संवैधानिक संकट पैदा हो गया है। जब शिवसेना ही उनके हाथ से निकल जाएगी तो ठाकरे परिवार की विरासत का क्या मोल रह जाएगा?
इसलिए बहुत संभव है कि निकट भविष्य में उद्धव ठाकरे शिवसेना में आये राजनीतिक संकट को समाप्त करने के लिए संजय राउत से किनारा कर लें। ठीक वैसे ही जैसे किसी समय मुलायम सिंह यादव ने अमर सिंह से कर लिया था। अगर उद्धव ठाकरे ऐसा नहीं करते तो वो भी मुंबई में "अलीबाग वाले" ही समझे जाएंगे।
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