भारत की राजनीति में नेहरु वंश का परिवारवाद दशकों पुराना
कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष किसे चुना जाए उसके लिए आजकल रस्साकस्सी चल रही है। कांग्रेस के अधिकतर नेता नेहरू-गाँधी परिवारवाद से बाहर निकलने को तैयार नहीं है। अब स्थिति यह है कि या तो अध्यक्ष एक परिवार विशेष से होगा अथवा एक ऐसा व्यक्ति होगा जो कि इसी परिवार का वफादार हो।
भारत के सबसे पुराने राजनैतिक दल का अस्तित्व कई दशकों से नेहरू-गाँधी परिवारवाद के भरोसे है। मगर इन सबके बीच एक प्रश्न यह भी उठता है कि कांग्रेस पार्टी के इस परिवारवाद से भारत को सबसे बड़ा नुकसान क्या पहुंचा?
इतिहास के पन्ने उलट कर देखें तो पता चलता है कि कांग्रेस में परिवारवाद की विसंगति के बीज ब्रिटिश साम्राज्यवाद के दौर में ही पड़ने शुरू हो गए थे। इतिहासकार बीआर नंदा की पुस्तक 'द नेहरुज मोतीलाल एंड जवाहरलाल' में यह उल्लेख मिलता है कि मोतीलाल नेहरू ने अपने बेटे जवाहरलाल को देश की राजनीति में स्थापित करने के प्रयास 1920 में ही शुरू कर दिए थे। कुछ ही सालों के अंतराल में जवाहरलाल ने महात्मा गाँधी के सबसे प्रिय शिष्य होने का तमगा भी हासिल कर लिया था।
कांग्रेस में गांधी नेहरु युग की शुरुआत
इतिहासकार बीआर नंदा लिखते है कि "साबरमती और आनंद भवन का यह रिश्ता किसी राजनैतिक साझेदारी से ही अधिक मजबूत था।" इन्ही संबंधो के आधार पर मोतीलाल नेहरु के कुछ साधारण प्रयासों से जवाहरलाल कांग्रेस के स्थाई स्तंभ बन गए। यहाँ से गाँधी-नेहरू कालखंड शुरू हुआ और अगले कुछ ही सालों में इसके विपरीत परिणाम दिखने लगने।
साल 1938 में कांग्रेस की कमान नेताजी सुभास चन्द्र बोस के हाथों में आ गयी थी। वे वैचारिक और राजनैतिक रूप से जवाहरलाल के विरोधी थे। नेताजी से पहले लगातार दो वर्षों - 1936 और 1937 में कांग्रेस के अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरु रह चुके थे। जनवरी 1938 में नेताजी कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए और 5 मार्च 1938 को नेहरू ने अपने मित्र वीके कृष्णा मेनन को एक पत्र लिखकर कहा कि "अब मेरा आल इंडिया कांग्रेस कमिटी के दफ्तर से इतना गहरा नाता नहीं रहा जोकि पहले हुआ करता था."
नेहरू की यह झुंझलाहट इस बात का स्पष्ट संकेत था कि उन्हें नेताजी के नेतृत्व में काम करना पसंद नहीं था। वैसे भी यह दौर महात्मा गाँधी का था और उनकी मर्जी के बिना कांग्रेस का न तो अध्यक्ष और न ही कार्यसमिति का कोई सदस्य चुना जाता था।
पट्टाभि सीतारमैया अपनी पुस्तक 'द हिस्ट्री ऑफ़ द इंडियन नेशनल कांग्रेस' में लिखते है, "गाँधी कांग्रेस के सदस्य भी नहीं थे लेकिन गद्दी के पीछे की सबसे बड़ी ताकत वही थे।" ऐसे ही जवाहरलाल ने भी एक बार कहा था कि कांग्रेस के स्थाई सुपर-प्रेसिडेंट गाँधी हैं।
सुभाष चंद्र बोस और कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव
इन प्रतिकूल परिस्थितियों में नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने एक साल का अपना अध्यक्षीय कार्यकाल पूरा क्या। कांग्रेस अध्यक्ष पद के बारे में पट्टाभि सीतारमैया लिखते है, "कांग्रेस में अगले अध्यक्ष पद के चुनावों को लेकर उत्साह बना हुआ था। इस बार कौन अध्यक्ष होगा? इस बार चुनाव होगा अथवा राष्ट्र के वरिष्ठ नेता स्वयं नेतृत्व का चयन कर लेंगे? क्या सुभाष को दोबारा मौका मिलेगा अथवा जवाहर को मौका फिर से मिल जायेगा?"
कांग्रेस में जवाहरलाल के फिर से अध्यक्ष बनने की सुगबुगाहट हो रही थी। आमतौर पर किसी भी हालत में महात्मा गाँधी की पहली पसंद जवाहरलाल ही हुआ करते थे। हालाँकि, इस बार प्रत्यक्ष रूप से ऐसा नहीं हुआ और मौलाना आजाद, सरदार पटेल एवं पट्टाभि सीतारमैया सहित नेता जी सुभाष चंद्र बोस ने अपनी दावेदारी पेश कर दी।
नामांकन से पहले, मौलाना अपना नाम वापस लेना चाहते थे लेकिन महात्मा गाँधी ने उन्हें ऐसा करने मना कर दिया। सरदार पटेल ने अपना नाम वापस ले लिया। बाद में मौलाना ने भी अपना नाम अध्यक्ष पद की दौड़ से बाहर कर दिया। उन्होंने ऐसा क्यों किया इसका कोई स्पष्ट जवाब नहीं मिलता है।
अब चुनाव में सिर्फ नेताजी और पट्टाभि सीतारमैया बचे। महात्मा गाँधी और जवाहरलाल ने पट्टाभि का खुलकर समर्थन किया जबकि कांग्रेस का एक बड़ा तबका नेताजी के साथ था। महात्मा गाँधी ने इस चुनाव को एकदम व्यक्तिगत बना लिया और उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि "पट्टाभि की हार मेरी हार होगी।" फिर भी उनकी योजना बेकार चली गयी और अंततः जीत नेताजी की हुई।
वास्तव में, यह नेताजी के राष्ट्रवादी विचारों की जीत थी जिन्हें कांग्रेस सहित देशभर में सराहा जाने लगा था। दरअसल, वे चाहते थे कि भारत के स्वराज प्राप्ति के लिए ब्रिटिश सरकार को अंतिम चेतावनी देने का वक्त आ गया है। जवाहरलाल को उनका यह विचार निजी रूप से पसंद नहीं था। उन्होंने 11 मार्च 1939 को एक भाषण देते हुआ कहा था कि "मैं ऐसी चेतावनी देने की युक्तियों के विरुद्ध हूँ."
जवाहरलाल और उनके कुछ समर्थकों को छोड़कर कांग्रेस का प्रत्येक नेता इस बात से परिचित था कि नेताजी के रहते स्वाधीनता का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे द्वारकाप्रसाद मिश्रा अपनी पुस्तक 'लिविंग एन एरा' में लिखते है, "सुभास बाबू एक नायक के साँचें में ढले हुए थे। भारत की स्वाधीनता के लिए कांग्रेस में ऐसा और कोई नेता नहीं था जो उनके जितना खतरा मोल ले सकता था।"
यह भारतीय स्वाधीनता संग्राम के सबसे दुखद और अमर्यादित कालखंडों में से एक था। सुभास चन्द्र बोस ब्रिटिश साम्राज्यवाद को भारत से समाप्त करने के लिए हर उस व्यक्ति एवं देश को साथ लेकर चलना चाहते थे जोकि भारत की स्वाधीनता के लिए गंभीर था।
वहीं दूसरी ओर, जवाहरलाल भारत की स्वाधीनता के लिए कोई ठोस प्रयास करने के फिलहाल पक्ष में नहीं थे। मात्र इसी एक कारण से नेताजी को कांग्रेसियों अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा और कार्यसमिति ने उन्हें कांग्रेस के लिए अयोग्य घोषित कर दिया।
कांग्रेस में हुई परिवारवाद की परवरिश
मोतीलाल नेहरू ने कांग्रेस में जिस परिवारवाद को बढ़ावा दिया उसी के चलते कांग्रेस ने नेताजी जैसा एक योद्धा खो दिया। जबकि इसमें कोई दो राय नहीं है कि नेताजी के पास भारत की स्वाधीनता के लिए अपने समकालीन नेताओं से ज्यादा युक्तियां अथवा योजनाएं मौजूद थी।
इसके बाद कांग्रेस में कोई खास लोकतांत्रिक बदलाव देखने को नही मिला और नेहरू-गांधी की पसंद और नापसंद का अधिक ख्याल रखा जाने लगा। नतीजतन देश को स्वाधीनता तो मिली लेकिन ब्रिटिश साम्राज्यवाद की शर्तों पर। आज भी इसके नकारात्मक परिणाम सामाजिक और राजनैतिक जीवन के किसी भी पहलू में देखने को मिल जाते है।
महात्मा गाँधी ने मनु गाँधी से 1 जून 1947 को अपने दिल की बात कहते हुए कहा था, "आज मैं अपने को अकेला पाता हूँ। लोगों को लगता है कि मैं जो सोच रहा हूँ वह एक भूल है...... भले ही मैं कांग्रेस का चवन्नी का सदस्य नहीं हूँ लेकिन वे सब लोग मुझे पूछते है, मेरी सलाह लेते है...... आजादी के कदम उलटे पड़ रहे है, ऐसा मुझे लगता है। हो सकता है आज इसके परिणाम तत्काल दिखाई न दे, लेकिन हिन्दुस्तान का भविष्य मुझे अच्छा नहीं दिखाई देता...... हिन्दुस्तान की भावी पीढ़ी की आह मुझे न लगे कि हिंदुस्तान के विभाजन में गाँधी ने भी साथ दिया था।"
महात्मा गाँधी ने अपने मन की बात कहने में बहुत समय लगा दिया था। उन्होंने जवाहरलाल नेहरु के कहने पर नेताजी के साथ जो किया उसका परिणाम अब उन्ही के सामने था लेकिन वे कुछ भी करने में एकदम असमर्थ एवं असहाय थे। कुछ महीनों बाद उनकी हत्या हो गयी और प्रधानमंत्री नेहरू कांग्रेस के स्वयंभू शासक बन गए। इस प्रकार उन्हें जो परिवारवाद की जो विरासत अपने पिता मोतीलाल नेहरू से मिली, उन्होंने उसे ही आगे बढ़ाया।
आजादी के बाद नेहरु ने कांग्रेस पर अपने एकाधिकारवाद को कमजोर नहीं होने दिया। 26 अगस्त 1950 को सी राजगोपालाचारी को लिखे एक पत्र में प्रधानमंत्री नेहरु ने कहा कि अब मेरी कांग्रेस और सरकार में जरुरत नहीं रह गयी है। ऐसा ही उन्होंने अगले दिन एक और पत्र लिखकर कहा कि अब मैं शारीरिक और मानसिक रूप से थक गया हूँ। मुझे अब नहीं लगता है कि मैं भविष्य में संतुष्टि के साथ काम कर पाउँगा। आखिरकार इन दवाबों के बीच, 1950 में कांग्रेस के चुने गये अध्यक्ष पुरषोत्तमदास टंडन को इस्तीफा देना पड़ा।
यह स्वाधीनता के बाद जवाहरलाल का एक लिटमस टेस्ट था जिसमें उन्हे साबित करना था कि सैधांतिक और वैचारिक रूप से उन्हें जो कोई भी टक्कर देगा उसकी कांग्रेस में कोई जगह नहीं रहेगी। आगे चलकर कांग्रेस में यह एक प्रथा हमेशा के लिए कायम हो गयी। वर्तमान में भी नेहरू-गांधी परिवार का विरोध करने वाले नेताओं का कांग्रेस में कोई स्थान नही रहता है। जिसे कांग्रेस में रहना है उसे नेहरु वंश का परिवारवाद स्वीकार करना ही होगा।
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